अहमदाबाद से मुंबई आने वाली रेलगाड़ी दादर के स्टेशन पर रुकी और देखते ही देखते सैकड़ों यात्री गाड़ी से उतरने लगे। अम्बाजी ने भी अपना बैग कंधे पर टाँग लिया और भीड़ में उतरने से डरते हुए वहीं सीट पर बैठे-बैठे कोच के खाली होने का इंतज़ार करने लगीं।
आखिर, कोच खाली भी हुआ और अम्बाजी बैग को एहतियात से सँभालती हुई रेलगाड़ी से उतर भी गईं। स्टेशन से बाहर की ओर जाती हुई भीड़ पर कुछ देर नज़र जमाई फिर पूरे वातावरण का जायज़ा मन ही मन लेते हुए एक बेंच पर बैठ गईं।
मोबाइल पर एक नंबर मिलाया लेकिन दूसरी तरफ से कोई जवाब नहीं आया। बड़ी लाचारी से इधर-उधर देखने लगीं। दुबारा फ़ोन मिलाया लेकिन फिर से वही हुआ। दूसरी ओर से फ़ोन नहीं उठाया गया। किसीसे बात नहीं हो पाई उनकी। मोबाइल के स्क्रीन पर समय देखा तो परेशान हो गईं और बाहर निकलने वाले गेट की ओर देखते हुए धीरे से बुड़बुड़ा उठीं, “कहाँ हो तुम, मुन्ना ? फ़ोन क्यों नहीं उठा रहे हो?”
फिर फ़ोन मिलाया, फिर वही हुआ। गहन होता अंधेरा और उसपर खाली होता हुआ स्टेशन देखकर डरने लगीं वो।
“हे भगवान ! 10:30 बज गए हैं और यहाँ स्टेशन पर भी सन्नाटा छाने लगा है। क्या करूँ? कहाँ जाऊँ इस समय अकेले? अब तक तो मुन्ना को भी आ जाना चाहिए था। फ़ोन ही नहीं उठा रहा है यह तो?”
सामने प्लेटफार्म में ही एक छोटे से रेस्तरां में कुछ लोग बैठकर चाय, समोसे और पकौड़े खाते दिखे। भूख उन्हें भी लग रही थी लेकिन भूख से ज़्यादा डर लग रहा था उन्हें। फिर भी खाली स्टेशन में अकेले बैठने से तो अच्छा था कि वे वहीं रेस्तरां में बैठकर चाय पीते हुए अपने बेटे का इंतज़ार कर लें। वहाँ बैठकर एक बार और फ़ोन मिलाने पर हो सकता है कि बात हो जाए या तब तक वो पहुँच ही जाए, ऐसा सोचते हुए वो उठीं और थके-हारे क़दमों से चलती हुई वहाँ पहुँचीं।
वहाँ जाकर एक बेंच पर बैठ गईं और चाय के साथ कुछ पकौड़े ऑर्डर कर दिए। सोच में डूबी अम्बाजी को आभास ही नहीं हुआ कि उनकी चाय कब ख़त्म हो गई। मन का मौसम तो वैसे ही बिगड़ा हुआ था, सो पकौड़े चखे भी नहीं उन्होंने। चाय ख़त्म करके फिर फ़ोन मिलाया। फिर सन्नाटा मिला उन्हें। अब तो वहाँ बैठे लोग भी धीरे-धीरे जा चुके थे। तभी एक बैरा उनके पास आया और जूठे बरतन समेटने लगा।
“पकौड़े छोड़ दिए आपने माताजी?”
“हाँ, लिए तो थे पर भूख नहीं है।”
“तो ठीक है आप मेरे साथ काउंटर पर चलना। पकौड़ों की जो पेमेंट आपने की है वो वापस हो जाएगी। सिर्फ चाय की ही पेमेंट लेंगे आपसे।”
उन्होंने सुना तो सही लेकिन ध्यान पूरी तरह से मोबाइल पर ही लगा हुआ था उनका। अपनी ही सोच में बैठी रहीं वो।
“आप किसी का इंतज़ार कर रही हैं क्या?”
“नहीं, बस जा रही हूँ।”
बैरे की आवाज़ से उनकी चेतना लौट आई थी। उसकी बातों से वो मन ही मन काफी सतर्क सी हो रही थीं। अपने चेहरे के हाव-भावों को सामान्य बनाने की कोशिश करते हुए वो वहाँ से उठ गईं।
बाहर निकलने से पहले उन्होंने पर्स में से एक पर्ची निकाली। ये नायर जी ने उन्हें पकड़ाई थी। नायर जी उनके पडोसी थे अहमदाबाद में। उनकी पत्नी उनकी बहुत ही पुरानी सहेली थी। अम्बा जी का एक ही बेटा था सजल, जो मुंबई में पिछले 3 वर्षों से एक विदेशी कंपनी में कार्यरत था। पति के जीवित रहते दोनों ने अच्छा जीवन गुज़ारा था। महीने में 15-20 दिन दौरे पर ही रहता था सजल इसलिए पिछली बार उनका मन उसके यहाँ नहीं लगा था। मुंबई से तो ज़्यादा अच्छा अहमदाबाद में रहना था उनके लिए। मित्रों के यहाँ आना-जाना तो ज़्यादा नहीं था लेकिन उनके आस-पास होने की बात ही उन्हें सुरक्षा का एहसास कराती थी। नायर जी पिछले महीने मुंबई आए थे। सजल से भी मिले थे। उसका पता तभी मिला था उन्हें। उन्होंने सजल को समझाया था कि अकेली माँ को अपने पास बुलाले। तब उसने कहा था कि वह महीने में 15-20 दिन शहर से बाहर रहता है और रविवार छोड़कर महीने के बाकी दिन भी उसके पूरी तरह से दफ़्तर को समर्पित रहते हैं। ऐसे में उसकी माँ यहाँ रह नहीं पाएँगी बल्कि परेशान हो जाएँगी। वैसे वो एक नई नौकरी के लिए इंटरव्यू भी देकर आया था। जिससे कि उसे दौरों पर न जाना पड़े और माँ को अपने पास बुला सके। नसीब से वो इंटरव्यू में सफ़ल रहा तो नायर जी और उनकी पत्नी के ज़ोर देने पर वे फिर से मुंबई पहुँच गईं।
टिकट वाली खिड़की के सामने प्रांगण में बहुत ही कम लोग दिखाई दे रहे थे। लगभग खाली सा लग रहा था इस समय। बाहर तेज़ बारिश हो रही थी। चिंता के घने बादल छाने लगे थे उनके चेहरे पर। बेटे से फ़ोन पर बात करने की उनकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी।
अम्बा जी सहमी हुई सी स्टेशन से बाहर निकलने वाले रास्ते पर खड़ी हो गईं। बाहर तेज़ बारिश हो रही थी। बुरी तरह फँस गईं बेचारी। थोड़ी देर बाद वो पीछे की ओर मुड़ी तो आख़िरी खिड़की के पास उन्हें एक बेंच पर उनकी ओर पीठ किये हुए कन्धों तक कटे हुए लहराते बालों वाली आकृति दिखाई दी। अपनी गर्दन झुकाए शायद कोई पुस्तक पढ़ने में मगन थी वो। धीरे-धीरे पग बढ़ाती हुईं अम्बा जी उसकी ओर जाने लगीं।
“सुनो बिटिया, एक काम है तुमसे।” पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोलीं,
उसने तुरंत मुड़कर देखा। अतिसुन्दर चेहरा देखकर अम्बाजी प्यार से उसकी ओर पर्ची बढ़ाते हुए बोलीं, “ बेटा, यह जगह स्टेशन से कितनी दूर है?”
उसने पर्ची हाथ में ली और देखकर बोली, “ आंटी 40 मिनट लगेंगे गाड़ी से।”
“अरे, तुम तो …..”
“हाँ, मैं किन्नर हूँ। कोई प्रॉब्लम?”
“नहीं, नहीं कोई प्रॉब्लम नहीं है। देखने में तो तुम गुड़िया जैसी हो लेकिन आवाज़ से मुझे लगा….” खुद को थोड़ा संतुलित करती हुई बोलीं।
“कोई बात नहीं, मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है। वैसे मेरे पेरेंट्स ने एक अच्छा सा नाम भी दिया है मुझे ‘सुलक्षणा’। आप मुझे सुलक्षणा कहेंगी तो मुझे ख़ुशी होगी।”
“अच्छा नाम है तुम्हारा … सुलक्षणा।” विनम्रता से बोलीं अम्बा जी।
“थैंक्स आंटी, आपको इस पते पर जाना है क्या?”
“हाँ, बेटा आ रहा है मेरा। शायद बारिश की वजह से लेट हो रहा होगा आने में। अभी फ़ोन मिलाकर पूछ लेती हूँ कि कहाँ तक पहुँचा है वो।”
फिर फ़ोन मिलाया और फिर वही हुआ। अबकी बार भी बात नहीं हो पाई बेटे से।
“आप भी यहाँ बैठकर इंतज़ार कर लीजिए अपने बेटे का। मैं भी अपने भाई का इंतज़ार कर रही हूँ।”
“भाई का इंतजार कर रही हो?” चौंककर बोलीं अम्बा जी और उसी बेंच पर उससे एक दूरी बनाते हुए वहाँ बैठ गईं। उनकी मनोदशा को समझते हुए सुलक्षणा के दिल में एक टीस तो उठी लेकिन सामान्य बनते हुए उनके प्रश्न का जवाब दिया।
“हाँ जी, अपने भाई का इंतज़ार कर रही हूँ।”
किन्नर के हाथ में अंग्रेजी की पुस्तक देखकर हैरानी के हाव-भाव बिखर गए उनके चेहरे पर।
“कौन सी किताब पढ़ रही हो?”
“द सीक्रेट“
“तुम अंग्रेजी की किताबें भी पढ़ती हो?”
“हाँ, पढ़ लेती हूँ।”
कुछ देर दोनों में ख़ामोशी रही लेकिन अब अम्बा जी के मन में भी उसके बारे में जानने की जिज्ञासा होने लगी। पहले एक नजर उन्होंने मोबाइल में टाइम पर डाली फिर किताब में डूबी सुलक्षणा पर। उसके बाद अपनी नज़रें स्टेशन के बाहर शोर मचाती बारिश पर गड़ा दीं।
बरसात बहुत तेज़ हो रही थी और सड़क पर गाड़ियाँ रुक-रुक कर धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थीं। जाम लगा हुआ था यहाँ। सजल का फ़ोन हैंग हो गया था। वह भी माँ से बात करने के कई प्रयास कर चुका था।
“ओह गॉड…बारिश भी आज ही होनी थी और यह फ़ोन …..दिल कर रहा है कि फेंक दूँ इस कबाड़ को। मम्मी परेशान हो रही होंगी अकेली। क्या करूँ भगवान?”
रुकी हुई गाड़ियाँ हॉर्न बजा-बजा कर रास्ता माँग रही थीं। सजल भी परेशान सा बीच-बीच में हॉर्न बजा रहा था।
किताब से नज़रें हटाकर सुलक्षणा ने कलाई घड़ी में समय देखा और फिर उसकी नज़रें अम्बा जी के सोच में डूबे हुए निराश चेहरे पर पड़ी। एक लम्बी साँस लेते हुए धीरे से बोली, “परेशान क्यों हैं? अभी आ जाएगा आपका बेटा।”
“हाँ, आ तो जाएगा लेकिन यह बारिश…. फ़ोन भी नहीं लग रहा है।”
“एक बार फिर से कोशिश कीजिए।”
“हाँ करती हूँ।”
कह कर उन्होंने कई बार कोशिश करके देख ली लेकिन फ़ोन ने तो जैसे कसम खाई हुई थी कि माँ-बेटे की बात नहीं होने देगा। सुलक्षणा भी उन्हें फ़ोन में व्यस्त देखकर फिर से किताब पढ़ने लगी और अम्बा जी बुझे मन से अपनी दाँई हथेली पर अपनी ठुड्डी टिकाकर बैठ गईं। सुलक्षणा के साथ बैठने के बाद से उन्हें डर लगना तो बंद हो गया था। तभी सुलक्षणा के फ़ोन पर घंटी बजी।
“हाँ, भाई आ गए आप? कहाँ हो?”
“मेन गेट के बाहर हूँ। यहाँ तक आना पड़ेगा तुम्हें। अन्दर बहुत गाड़ियाँ हैं। शायद किसी ट्रेन का टाइम हो रहा है।”
“ठीक है, बारिश थोड़ी हलकी हो तो निकलती हूँ यहाँ से। आप अभी गाड़ी में ही इंतज़ार करो मेरा।”
“ओके” दूसरी तरफ से आवाज़ आई।
वार्तालाप सुनकर अम्बाजी थोड़ी विचलित हो गईं। सुलक्षणा के साथ ने उनके डर को भगा दिया था। वे मन ही मन सोच रही थीं कि सुलक्षणा चली जाएगी तो उनका क्या होगा? मुन्ना की तो दूर-दूर तक कोई खबर ही नहीं लग रही थी उन्हें।
“तुम्हारे भाई आ गए क्या?”
“हाँ, आ गए भाई। गाड़ियों की वजह से अन्दर नहीं आ पाए। बारिश हलकी हो जाए तो निकलूँगी मैं भी।”
“हाँ ठीक है।” कह तो दिया उन्होंने लेकिन घड़ी में 11 बजते देख बुड़बुड़ाने लगीं।
“मुन्ना,मुन्ना ! कहाँ रह गया बेटे? फ़ोन क्यों नहीं कर रहा है मुझे? सब ठीक है ना?”
सोच-सोचकर उनका दिल घबराने लगा। उन्होंने कुछ सोचते हुए सुलक्षणा पर अपनी नज़रें टिका दीं। वह गाड़ियों पर नज़रें गड़ाए हुए थी।
“लगता तो है कि अब बारिश रुकने वाली है। पहले जैसी तेज़ नहीं लग रही है।” मुस्कुराते हुए उसने अम्बा जी के उड़े हुए चेहरे को देखा तो उसे भी उनकी चिंता हुई।
“क्या हुआ आंटी आपको? आपकी तबियत तो ठीक है ना?”
अम्बा जी की घबराहट इतनी बढ़ गई कि वे फूट-फूटकर रोने लगीं। सुलक्षणा ने पानी की बोतल उनकी ओर बढ़ाई तो उन्होंने गर्दन हिलाकर लेने से मना कर दिया। मन ही मन उन्हें उसकी बढ़ती नज़दीकी और चीज़ों से परहेज़ हो रहा था। आँसू पोंछते हुए बोलीं, “रहने दो पानी। अब ठीक हूँ मैं।”
सुलक्षणा समझ गई लेकिन धैर्य से बोली, “आती हूँ सामने से। अपना ध्यान रखना।” वह दौड़कर सामने की स्टॉल से पानी की नई बोतल ले आई।
“नई बोतल है, अब पीलो पानी। थोड़ा ठीक लगेगा।”
अम्बा जी ने संकोच से उसकी तरफ़ देखा फिर उसके मुस्कुराते चेहरे को देखकर जबरन मुस्कुराते हुए पानी की बोतल लेली।
“थैंक यू सुलक्षणा। कितने की है?”
“सिर्फ 5000 रूपए की ”
“हैं…!”
“अरे आंटी, पानी के पैसे थोड़ी लूँगी आपसे। पानी पिलाना तो पुण्य का काम होता है।”
“अच्छा, किसने सिखाया यह सब?” उसकी इस बात ने जैसे उनका दिल जीत लिया था। वे मन ही मन उसकी प्रशंसा करते हुए पानी पीने लगीं।
“माँ ने….अरे! बारिश हलकी हो गई, अब मैं निकलती हूँ आंटी।” कहते हुए अपना सामान उठाया और वह तीव्रता से मुड़ी तो घबराई हुई अम्बा जी ने ज़ोर से आवाज़ लगाईं, “सुलक्षणा ..”
सुलक्षणा ने मुड़कर देखा। “क्या हुआ?”
“तुम चली जाओगी तो मैं यहाँ अकेले कैसे रहूँगी? बहुत डर लग रहा है मुझे।”
“ओह हो ! लेकिन आपका तो बेटा आने वाला है ना?”
“आना तो चाहिए उसे लेकिन उससे तो कोई कांटेक्ट ही नहीं हो पा रहा है मेरा।”
उन्हें यूँ डरते हुए देख सोच में पड़ गई वह। फिर उनकी हिम्मत बँधाते हुए बोली, “ठीक है,ठीक है …. आप परेशान मत हो। 5-10 मिनट और देख लेते हैं। नहीं तो पर्ची है ना आपके पास। आपको छोड़ दूँगी आपके घर।”
अंबा जी की जान में जान आ गई।
“तुम बहुत अच्छी हो सुलक्षणा। हमेशा खुश रहो।”
“आशीर्वाद के लिए शुक्रिया आपका। मेरी माँ की उम्र की हैं आप। आपके लिए इतना तो बनता है।”
थोड़ी देर में सुलक्षणा ने अपने हैण्ड बैग में से बिस्किट का एक पैकेट निकाला और उनकी ओर बढ़ाती हुई बोली, “ये लीजिए बिस्किट।”
“अरे नहीं, भूख नहीं है। थोड़ी देर पहले ही स्टेशन पर चाय-पकौड़े खाए थे।”
“पैकेट नया है आंटी। अभी खुला नहीं है। पानी पी लिया है तो यह भी खा सकती हैं आप।”
“ऐसी कोई बात नहीं है बेटा।”
“बेटा भी कहती हैं और लेती भी नहीं।” शरारती नज़रों से देखती हुई सुलक्षणा बोली। उससे नज़रें मिलते ही झेंप गईं अम्बाजी और बिस्किट का पैकेट ले लिया।
“वैरी गुड, अब खा लीजिए इसे, नहीं तो चक्कर आ जाएँगे।”
अम्बा जी को पहला बिस्किट खाते हुए अजीब सा लग रहा था लेकिन एक बिस्किट खाते ही भूख ने सायरन देना शुरू कर दिया और देखते ही देखते 4-5 बिस्किट खा लिए उन्होंने।
उन्हें तन्मयता से खाते देख सुलक्षणा को सुखद अनुभूति हो रही थी।
“थैंक यू सुलक्षणा..”कहते हुए उन्होंने 100 रूपए का एक नोट उसकी ओर बढ़ा दिया|”
सुलक्षणा का मुँह खुला रह गया। उसकी भावना को ठेस पहुँची थी। वह भावुक होकर बोली, “अच्छा तो जब आपका बेटा आपको कुछ लाकर देता है तो क्या आप उसे भी थैंक यू कहकर पैसे थमा देती हैं हर बार?”
“नहीं, ऐसा नहीं करती हूँ मैं। चलो तुम्हें भी नहीं कहूँगी थैंक यू लेकिन बिस्किट के पैसे तो तुम्हें लेने ही पड़ेंगे।” वे अपनी बात पर ज़ोर देकर कहने लगीं।
“आप पैसे देने की बात करेंगी तो मैं चली जाऊँगी। बोलो क्या करूँ?” उसने विशिष्ट लहज़े में अपनी बात कही तो अम्बाजी ने चुपचाप नोट अपने पर्स में डाल लिया। उन्हें डर लगा कि कहीं सच में ही वह उन्हें स्टेशन में अकेला ना छोड़ जाए। सुलक्षणा ध्यान से उनके हाव-भाव देख रही थी। उसे इस तरह अपनी तरफ देखते हुए देखकर जबरन मुस्कुराने की कोशिश करने लगीं अम्बा जी।
पिछले डेढ़ घंटे से सजल जाम में फँसा हुआ था। बारिश ज़रा रुक सी गई थी लेकिन जाम कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। रुकी हुई गाड़ी में बुरी तरह परेशान सजल ने फ़ोन को कई बार पूरी तरह से बंद किया फिर खोला। अबकी बार फ़ोन चालू हो गया और नेटवर्क भी ठीक से पकड़ लिया फ़ोन ने। उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। झट से फ़ोन लगाया माँ को।
घंटी सुनकर दोनों चौंक गए। सुलक्षणा ने उनके फ़ोन की तरफ हाथ से इशारा किया तो अम्बा जी खुश होकर बोलीं,“हाँ,बेटे का फ़ोन है।”
“हेलो सजल … कहाँ है तू? कब पहुँचेगा स्टेशन?”
“हाँ मम्मी,मेरा फ़ोन हैंग हो गया था। अभी चालू हुआ है। बारिश की वजह से जाम में फँसा हुआ हूँ। कैसी हैं आप?”
“बस तेरी वेट कर रही हूँ। कितनी देर लगेगी अभी तुझे?”
“पौना घंटा और लग सकता है आने में। बस धीरे-धीरे गाड़ियाँ चलनी शुरू हुई हैं अभी।”
“पौना घंटा और लगेगा अभी?” कहकर अपनी लाचार दृष्टि उन्होंने सुलक्षणा के चेहरे पर टिका दी।
“चल ठीक है, क्या कर सकते हैं ! आजा जल्दी।” कहकर उन्होंने फ़ोन रख दिया।
स्टेशन पर निरा सन्नाटा छाया हुआ था। कुछ देर पहले तक हलचल मचाते यात्रियों की आवाजाही भी अब धीरे-धीरे बहुत कम हो चली थी। उनकी नज़रें चारों ओर घूमते हुए स्टेशन का जायज़ा ले रही थीं।
“ठीक है आंटी,अब तो आ ही रहा है ना आपका बेटा। मै चलती हूँ अब।भाई कब से मेरा इंतज़ार कर रहे हैं।”
“कितना सन्नाटा है यहाँ सुलक्षणा। उसे आने में तो अभी काफी देर है। तब तक मैं ….”
“अरे आंटी कितना डरती हैं आप भी! ”
“सही कह रही हो तुम।”
परेशान हो उठी सुलक्षणा, लेकिन फिर ध्यान से अम्बा जी का चेहरा देखकर उसने वहीं रुकने का मन बना लिया।
“ठीक है। भाई को फ़ोन पर बता देती हूँ कि अभी आपके पास बैठी हूँ। उन्हें थोड़ा और इंतज़ार करना पड़ेगा।”
आभार व्यक्त करती हुई नज़रों से उसे देखती हुई वे फिर शांति से बेंच पर बैठ गईं।
उसने अपने भाई को सूचित कर दिया और फिर पहले की तरह वहाँ बैठ गई। अम्बा जी के हाथ में बिस्किट का पैकेट देखकर बोली, “अब तो बेटे से बात हो गई है आपकी, पैकेट ख़त्म कर लीजिए। भूखी मत बैठिए।”
सुलक्षणा की बात मानकर वे मुस्कुराते हुए बिस्किट खाने लगीं।
“आप कहाँ से आई हैं?”
“अहमदाबाद से।”
“अरे! मैं भी वहीं से आई हूँ।”
“रहती कहाँ हैं आप?”
“अहमदाबाद में ही रहती हूँ। यहाँ तो बेटे के पास आई हूँ।”
“अच्छा… अकेली क्यों आई हैं आप?”
“क्योंकि बेटा पिछले 3 सालों से यहाँ रहता है और मैं वहाँ अकेली रहती हूँ। मिस्टर नहीं रहे अब मेरे।”
“ओह, तो यहीं रहना चाहिए ना आपको, अपने बेटे के साथ।”
“पहले एक विदेशी कंपनी में काम करता था सजल। महीने के 15-20 दिन तो टूर पर ही रहता था। अकेले यहाँ रहने से तो अच्छा था कि अहमदाबाद में ही रहूँ। मेरी पुरानी पहचान वाले कई लोग वहाँ रहते हैं। यहाँ तो किसी को जानती भी नहीं हूँ मैं।”
“अरे ! बड़ी मुश्किल है आपके लिए तो।”
“हाँ, मुश्किल तो थी तब, लेकिन अब उसे बिना टूर वाली नई जॉब मिल गई है। अब की बार सब ठीक रहा तो यहीं रहूँगी आगे से।”
“फिर तो सब अच्छा ही होगा आगे। अकेले मत रहना अब वहाँ।”
“भाग्य जैसे चलाता है, वैसे ही चलते हैं हम सब। उसकी नौकरी के कारण ही मैं वहाँ नहीं रहती थी वरना मेरा सजल तो लाखों में एक है।”
“मेरी माँ भी मेरे भाई के लिए ऐसा ही कहती हैं कि वो लाखों में एक है। सच कहूँ तो वो पूरी दुनिया में ही एक, सोने जैसे दिल वाला इंसान है।”
उसे अम्बा जी ने मुस्कुराते हुए देखा और उसके बारे में पूछने की हिम्मत जुटाने लगीं।
“अच्छा ! अब तुम बताओ अपने बारे में। तुम तो पढ़ी-लिखी हो ना?”
“हाँ आंटी, पढ़ी-लिखी हूँ क्योंकि मेरे माँ-बाप दुनिया के सबसे अच्छे माँ-बाप हैं।”
कहकर अम्बाजी के चेहरे पर अपनी नज़रें गड़ा दीं। अम्बा जी भी गंभीरता से उसकी बातें सुन रही थीं।
“आंटी, जब एक घर में बेटा पैदा होता है तो क्या करते हैं माँ-बाप?”
“लड्डू बाँटते है।”
“मेरी पैदाइश पर भी ऐसा ही हुआ था। जैसे-जैसे बड़ी होने लगी तो मुझे लड़कियों की तरह सजना-सँवरना, गुड़ियों से खेलना और लड़कियों से दोस्ती करना अच्छा लगने लगा। घर वाले समझ गए कि मेरे साथ क्या हो रहा है। उन्होंने इस कठोर दुनिया से बचाते हुए मुझे लड़कियों की ही तरह रहने की इजाज़त दे दी।”
“हाँ, तुम्हारे सुन्दर चेहरे को देखकर तो इस बात का पता भी नहीं चलता है और तुम बहुत लकी भी हो वरना किन्नरों को काफी संघर्ष भरा जीवन जीना पड़ता है। खासकर परिवार को छोड़ना ही पड़ता है उन्हें।”
“लेकिन हमेशा सब कुछ इतना सुन्दर नहीं रहता है ना आंटी।”
“ऐसा क्यों कह रही हो?”
“उन दिनों मैं कॉलेज में थी, जहाँ ट्रांसजेंडर्स को भी पढ़ने-लिखने से अब कोई नहीं रोक सकता है। उसी कॉलेज की एक लड़की मेरे भाई को पसंद करने लगी थी। उसके घर वाले रिश्ता लेकर आए लेकिन मेरे भाई को यह रिश्ता पसंद नहीं था तो पापा ने मना कर दिया। बस इसी रंजिश में उस लड़की की माँ ने हमारे समाज वालों को मतलब किन्नर समाज वालों को झूठी खबर पहुँचा दी कि मेरे घर वाले मुझे छोड़ रहे हैं और मैं बेघर हो रही हूँ। जिनके घर वाले छोड़ देते हैं उन्हें वो लोग आसरा देते हैं। चालाकी से लड़की के घरवालों ने ऐसी लगाई-बुझाई करके हमारे घर भेज दिया था उन्हें। उस दिन मेरे माता-पिता भाई की शादी के सिलसिले में बात करने दूसरे शहर गए हुए थे। मुझे अकेले देखकर तो उन्हें खबर पर पक्का यकीन हो गया। उन्होंने कहा कि एक बार हमारे गुरु से मिल लो, उन्होंने ही हमें तुम्हारे लिए भेजा है। उसके बाद अगर तुम्हारे घर वाले तुम्हें घर में रखना चाहेंगे तो तुम उनके साथ वापस आ जाना। उनकी तसल्ली के लिए चली तो गई लेकिन वहाँ से निकलना मेरे लिए मुश्किल हो गया।”
“ओह ! तो तुम उनके साथ रहती हो क्या?”
“पहले रही हूँ कुछ टाइम, अब नहीं रहती हूँ। वो जगह छोड़कर अपने घर आ गई हूँ।”
“और तुम्हारे घर वालों ने ……”
“सबकी लाडली हूँ घर में। वो तो मेरे वापस आते ही बहुत खुश हो गए थे।”
“और उन्होंने छोड़ दिया तुम्हें?”
“जब मैंने डेरा जॉइन किया था तो ढोलक और घुँघरू की आवाज़ मुझे बहुत परेशान करती थी। मेरा माहौल बदल गया था और मैं उन लोगों के साथ तालमेल कायम नहीं कर पा रही थी। घरवालों की बहुत याद आती थी। बहुत चिड़चिड़ी हो गई थी मैं। रोज़ डेरे की दूसरी किन्नरों के साथ मेरा किसी न किसी बात पर झगड़ा हो जाता था। फिर एक दिन हमारी गुरु ने मुझे अकेले में बुलाकर मुझसे बात की तो मैंने साफ़ कह दिया कि मैं ढोलक और घुँघरू को हाथ नहीं लगाऊँगी और अपनी पढ़ाई पूरी करूँगी।”
“तो फिर तुम आ गईं वापस?”
“इतना आसान नहीं था वापस आना। संघर्ष करना पड़ा मुझे।”
“ओह ! क्या संघर्ष किया तुमने?”
“मेरी गुरु उस लड़की की बातों में आ चुकी थी। मैंने खुद अपना सच बताया तो भी उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। पहले तो वह मुझे समझाती रहीं कि वापस जाने पर मुझे मेरे घर वाले नहीं अपनाएँगे इसलिए वह मुझे यूँ ही अकेला नहीं छोड़ने वाली हैं। उन्हें पूरा यकीन था कि थोड़ा समय बीतेगा तो मुझे भी वहाँ से जाना अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन जब मैं अपनी ही बात पर अड़ी रही तो उन्होंने सख्ती से यह कहकर मुझे मना कर दिया कि मैं बेकार की जिद्द कर रही हूँ। उन्हें छोड़कर मैं सड़क की हो जाऊँगी।”
दोनों के बीच कुछ देर सन्नाटा पसरा रहा फिर गहरी साँस लेते हुए उसने बात आगे बढ़ाई, “उसी रात मैंने अपने हाथ की नस काट ली थी। अचानक किसी की नींद खुली और मुझे उस हालत में बेहोश देखकर घबरा गए। मेरा इलाज हुआ, फिर समझाने की कोशिश की गई तो मैंने खाना-पीना छोड़ दिया। अगले दिन रहमत भाई वहाँ आए और मेरी ज़िन्दगी फिर से पटरी पर आ गई। देखो आज जो चाहती हूँ, वो करती हूँ। मेरे घर वालों ने भी मुझे नहीं छोड़ा है। ऊपरवाला बहुत साथ दे रहा है मेरा। बस उसी का शुक्रिया अदा करती हूँ हरदम।”
“रहमत भाई कौन हैं?”
“एक किन्नर हैं उसी डेरे के। सुना है कि पहले वो वहीं थे उनके साथ और टोली में ढोलक बजाते थे। हमारी गुरु उनकी बहुत इज़्ज़त करती हैं। जब उनके पिताजी की मृत्यु हुई तो उन्होंने रहमत भाई को अपनी सारी दौलत सौंपते हुए उनसे वचन लिया कि वो डेरा छोड़कर उनका धंधा आगे बढ़ाएँगे और उनके पैसे को भलाई के कामों में लगाएँगे।”
“क्या करते हैं अब वो?”
“केन का फर्नीचर बनाते हैं और बहुत सारे घरों और दफ़्तरों में उनका सामान बेचा जाता है।”
“ऐसा क्या कहा उन्होंने जो तुम्हारी गुरु ने तुम्हें जाने दिया?”
“सच कहूँ तो वो दिल की बहुत अच्छी हैं। मेरा बहुत ध्यान रखती थीं। सलमा ने मेरे आँसू पोछते हुए कहा था कि वो जितना सख्त बनने का दिखावा करती हैं उतनी ही मोम हैं वो। किसी की कोई इच्छा हो तो वह ज़रूर पूरा करती थीं। उसने कहा था कि वो सच में मेरी चिंता करती हैं। मुझे ताले में बंद कर जाती थीं लेकिन मेरी इच्छा के खिलाफ मुझे टोली में नाचने-गाने के लिए नहीं ले जाती थीं। रहमत भाई टोली पर कोई भी मुसीबत आए तो सबसे पहले ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं। वहाँ के भगवान जैसे ही हैं वो। उन्होंने मेरी ज़िद्द पर फैसला लिया कि वो मुझे मेरे घर ज़रूर ले जाएँगे लेकिन अगर घर वालों ने ना अपनाया तो मुझे वापिस उसी डेरे में शामिल होना पड़ेगा। मैं तैयार हो गई उनकी बात पर।”
“तो इस तरह तुम अपने घर पहुँच गईं?”
“नहीं, मैं तो उनकी बात मान गई लेकिन मेरी गुरु अड़ गईं कि ऐसा नहीं हो सकता है। उन्हें लगता था कि मेरे घर वाले तो मुझे अपनाएँगे नहीं और मैं शायद उन्हें कोई चकमा ना दे दूँ। उन्होंने कहा कि समय के साथ धीरे-धीरे मैं भी वहाँ रम जाऊँगी तो रहमत भाई बोले कि बहुत परेशान है यह। रम नहीं पाएगी यहाँ। हमेशा रोती रहती है। उसकी बद्दुआएँ ना लें वो। बद्दुआओं से डरती थीं बहुत। बस यह सुनकर उनका मन भी बदल गया शायद।
वापस लौटने पर मेरे घर वालों ने मुझे अपनी पलकों पर बिठा लिया तो रहमत भाई बहुत खुश हो गए और मुझे छोड़कर वापस चले गए।”
“उनसे अभी भी जुडी हुई हो क्या?”
“हाँ, अपने समुदाय की बहुत इज़्ज़त करती हूँ मैं। वहाँ जितने दिन भी रही, बहुत अपनापन मिला सबसे और सच कहूँ तो मुझे गर्व है अपने किन्नर होने पर, जैसे कि किसी लड़की को अपने लड़की होने पर और किसी मर्द को अपने मर्द होने पर गर्व होता है।”
“पढ़ाई पूरी की फिर?”
“हाँ, इंग्लिश में एम.ए.किया है मैंने, अब भाई के साथ उनकी बिज़नस पार्टनर हूँ।”
“हैं ! तुम बिज़नस करती हो?”
“भाई के रेस्टोरेंट्स की चेन चलती है भारत के 4 शहरों में। उनमें से मुंबई ब्रांच को सँभाल रही हूँ।”
“बिज़नस के काम से ही वापस आ रही हो क्या?”
“नहीं, अभी तो अहमदाबाद से वापस आ रही हूँ। वहाँ के बहुचर अम्बा जी के मंदिर में मैं हर साल इन्हीं दिनों दर्शन करने जाती हूँ। खासकर किन्नर उन्हें बहुत मानते हैं।
डेरे में एक दोस्त बनी थी। अहमदाबाद से थी। उसीने कहा था तेरी इच्छा पूरी हो तो उस मंदिर में माँ के दर्शन करने ज़रूर जाना। बस तभी से साल में एक बार वहाँ जाने लगी हूँ मैं।”
“अब जाती हो कभी डेरे वालों से मिलने या वो कभी तुमसे मिलने आते हैं?”
“मुझे तो काम से खाली वक़्त कम ही मिलता है लेकिन डेरे वाले आते रहते हैं अक्सर। उनका पूरा मान रखा जाता है हमारे यहाँ। जब उनके यहाँ कोई प्रसंग होता है और वो लोग मुझे निमंत्रण देते हैं तो मैं कैसे भी समय निकालकर वहाँ ज़रूर जाती हूँ।
“तुमसे प्रेरणा भी तो मिलती होगी उन्हें? और लोग भी नए कामों से जुड़े हैं क्या?
“ज़्यादा तो मालूम नहीं लेकिन 6-7 लोग तो सीधा मेरे पास भी आए थे काम माँगने। भाई ने 3-4 लोगों को अलग-अलग जगह अच्छे कामों पर लगाया है। उनमें से 2 तो समाज सेवक संघ के साथ जुड़ गई हैं और किन्नरों की भलाई के लिए, उनमें जागृति जगाने के लिए अच्छा काम भी कर रही हैं। 3 लोगों को हमने अपने यहाँ भी काम दिया है। 2 वेटर हैं और एक टेक अवे काउंटर पर बैठता है। अच्छा पैसा कमा रहे हैं ये लोग।”
“यह तो बड़ी अच्छी बात है लेकिन उनके प्रति लोगों का व्यवहार कैसा रहता है?”
“नॉर्मल रहता है। कम से कम हमारे यहाँ तो उन्हें पूरा सम्मान देते हैं लोग। इससे इन लोगों का आत्मविश्वास भी पहले से बहुत बढ़ गया है और ये अपने काम से बहुत खुश भी हैं|”
“क्या बात है तुम्हारी? तुम तो वाकई सुलक्षणा निकलीं।”
उनके मुँह से अपनी प्रशंसा के मीठे बोल सुनकर प्यारी सी मुस्कान बिखर गई सुलक्षणा के चेहरे पर। अपना विज़िटिंग कार्ड पर्स से निकालकर उन्हें थमाती हुई बोली,
“कभी आइएगा। बहुत अच्छी सर्विस मिलेगी आपको हमारे यहाँ।” कहकर उनके मुखमंडल पर आए प्रतिभावों को पढ़ने की पुरज़ोर कोशिश करने लगी वह।”
बिना कुछ बोले अम्बाजी हैरानी से उसका विज़िटिंग कार्ड पढ़ने लगीं। सफ़ेद कार्ड पर अंग्रेजी के बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा उसका नाम मैरून और सुनहरे रंग की स्याही से दमक रहा था।
“वाह ! यथा नाम, तथा गुण वाली उक्ति भी सच कर दी तुमने। मुझे तो लगता था कि अधिकतर नाचने-गाने का ही काम होता है तुम्हारा।”
“अब ज़माना बदल रहा है और उसके साथ हम सबकी सोच भी बदल रही है। हम इस देश के नागरिक भी हैं। जिस देश में रह रहे हैं, खा रहे हैं, उसकी तरक्की में योगदान करने का हमारा भी कर्तव्य बनता है ना आंटी और जब हम तरक्की करेंगे तो क्या देश की और तरक्की नहीं होगी? आज किन्नर समाज में भी बहुत से प्रबुद्ध ज्ञानी और कर्मठ लोग अपनी पहचान और ऊँचा व्यक्तित्व बनाने में सफल हो रहे हैं। बस अब यह समाज भी हमें उसी तरह सम्मान से देखना शुरू करे जिस रूप में हम उन्हें दिखाई दे रहे हैं। हम भी सम्मान के हक़दार है। लेकिन कुछ तो आम लोगों की घिसी-पिटी सोच और कुछ किन्नरों के बुरे व्यवहार के कारण लोग हम सभी किन्नरों को हिकारत और डर के भाव से देखते हैं। क्या यह ठीक है आंटी?”
“अरे! बिलकुल ठीक नहीं है यह तो। देखना, जब तुम जैसे चमकते सितारों को लोग देखना और जानना शुरू करेंगे तो उनकी हिकारत और डर सब दूर हो जाएगा। तुम्हें भी कोशिश करनी पड़ेगी कि समाज में अपनी छवि का इसी प्रकार से निर्माण करके सम्मान पाओ। सम्मान किसीसे माँगा नहीं जाता है सुलक्षणा, हमें यह कमाना पड़ता है। अपने समाज के लिए बहुत सुन्दर प्रेरणा हो तुम। जब तुम जैसे लोग अपने समाज का कुशल नेतृत्व करेंगे और राष्ट्रहित में अपनी कर्मठता का योगदान देंगे तो देश भी तुम पर गर्व करेगा। कोई हिकारत से नहीं देखेगा फिर तुम्हें।”
“शुक्रिया आंटी, मुझे ऐसा बनाने में मेरे भगवान जैसे माँ-बाप की भूमिका ही सब कुछ है। ऐसे ही जब हर किन्नर के माँ-बाप अपने बच्चों में फर्क नहीं करेंगे, उसे प्यार से पालेंगे और किसी और को नहीं सौंपेंगे तो सच में वो दिन जल्दी आएगा जब हमारा देश हम पर हमारे योगदान के लिए गर्व करेगा।”
“ ज़रूर आएगा ऐसा दिन भी। जब तुम्हारे जैसे लोग समाज में परिवर्तन लाने की ठान लेंगे तब ऐसा ही होगा। ईश्वर तुम्हें सफल करेगा इस काम में।”
“शुक्रिया आंटी, आज इंटरनेट पर भी आप देखेंगी तो दंग रह जाएँगी किन्नरों की उपलब्धियाँ देखकर। समानता का अधिकार भी पा चुके हैं अब तो। बस अब ज़रुरत रह गई है समाज में नव जागरण के चेतना प्रसार की ताकि लोगों के मन में जो हमारी पुरानी छवि बसी है उसे बदला जा सके। मुझसे जितना होता है, करने की कोशिश करती हूँ।”
“हूँ .. बड़ी ऊँची सोच है तुम्हारी। बहुत अच्छा कर रही हो तुम। बस ऐसे ही करती रहो।”
“इस काम के लिए आपका आशीर्वाद चाहिए।” कहते हुए सुलक्षणा ने अम्बा जी के पैर छू लिए तो उनकी दोनों हथेलियाँ स्वतः उसके सिर पर ठहर गईं।
“ईश्वर तुम्हारा मनोरथ सिद्ध करे सुलक्षणा। अपने नाम को सार्थक करो तुम।”
तभी उनके फ़ोन की घंटी बजी।
“हाँ बेटा, कहाँ पहुँचे?”
“ पहुँच गया हूँ मम्मी। गेट के बाहर ही हूँ गाड़ी में। आप बाहर ही आ जाओ।”
“ठीक है, आती हूँ।” ख़ुशी-ख़ुशी मोबाइल बैग में डाल दिया।
“आ गया आपका बेटा?”
“हाँ, आ गया वो। चलो, तुम्हें भी तो वहीं जाना है ना?”
“हाँ, लाइए अपना बैग दे दीजिए मुझे।”
“अरे, नहीं भाई। अभी इतनी बूढ़ी भी नहीं हुई हूँ मैं। उठा सकती हूँ अपना बैग।”
“ठीक है फिर, चलिए।”
दोनों गेट के पास आकर गाड़ी ढूँढने लगती हैं। सजल माँ को देखकर गाड़ी का हॉर्न बजाता है। उसे देखकर अम्बा जी के मन में ख़ुशी की सरसों लहलहाने लगती है। सुलक्षणा भी फ़ोन पर भाई से पूछ लेती है कि उसकी गाड़ी कहाँ है?
“वो रहा सजल। गाड़ी में बैठा है। तुम्हारी गाड़ी कहाँ है?”
“वो सामने चाय की स्टॉल है ना उसके आगे ही खड़ी है गाड़ी।”
“शुक्रिया सुलक्षणा ! तुम ना होतीं तो पता नहीं क्या होता आज मेरा !”
“शुक्रिया की कोई बात नहीं है आंटी। बड़ों के किसी काम आएँ तो अच्छा ही है ना।”
“मेरी वजह से तुम्हें भी परेशानी उठानी पड़ी।”
“ऐसा मत सोचिए आंटी। मुझे भी बहुत अच्छा लगा आपके साथ।” अम्बा जी उसे देखकर प्यार से मुस्कुराईं तभी सजल ने हॉर्न बजाया। बारिश फिर से तेज़ होने लगी थी।
“चलिए आंटी, ध्यान रखना अपना। मेरा नंबर है कार्ड में। कभी दिल करे तो फ़ोन कर लेना… बाय ..” कहकर सुलक्षणा जाने को मुड़ी, तभी उनकी आवाज़ उसके कानों में मिस्री सी घोल गई,
“सन्डे को तुम्हारे रेस्टोरेंट आऊँगी बेटे के साथ। आने से पहले फ़ोन करुँगी …बाय…”
सुनकर सुलक्षणा को अद्भुत आनंद महसूस होने लगा। मुड़कर ज़ोर से बोली, “वेलकम आंटी ..दोनों का इंतज़ार करुँगी।” दाएँ हाथ से सलामी के अंदाज़ में उनका अभिनन्दन करके उत्साहित क़दमों से अपनी गाड़ी की ओर चल दी सुलक्षणा।