अभी कुछ दिनों पहले की बात है, मैं दिल्ली से वापस अहमदाबाद आ रही थी। फ्लाइट नियत समय पर पहुँच गई। एयरपोर्ट से निकलते ही मैने अपने लिए एक कैब बुक की। पांच मिनिट में ही कैब सामने थी और देवर्षि हमारे घर तक की साथी। मैं अकेली ही थी इसलिए ज्यादा समान नहीं था। मैंने अपना एक छोटा सूटकेस सामने की सीट पर ही रख दिया। देवर्षि ने ओटीपी मांगा और कार को गति दे दी।
कुछ देर के मौन के पश्चात देवर्षि ने पूछा, “मैडम आप गाने सुनते हो?” मैंने हाँ में जवाब दिया। देवर्षि ने कहा, “चलो आज मैं आपको अपने गानों का कलेक्शन सुनाती हूँ” और देवर्षि ने प्ले लिस्ट चालू कर दी। मैं मंत्रमुग्ध सी सारे गाने सुनती रही और हर बार उसकी लाजवाब पसंद को दाद देती रही। वैसे तो हमारे शहर में कभी रात नही होती, रोशनी व चहलपहल हर समय रहती है, उस पर मनभावन गाने, मेरी बंद आँखें इस आनन्द को बखूबी महसूस कर रहीं थीं। गानों में आये शब्दों के एहसास बहुत खूबसूरत थे, न जाने कितने भीतर तक समाते गए।
तभी कैब धीरे-धीरे होती किनारे में रुक गई। शायद एक टायर पंचर हो गया था। देवर्षि ने फुर्ती से अपना टूल किट निकाला और तुरत-फुरत टायर बदल कर पुनः ड्राइविंग सीट पर बैठ गई। कैब फिर से सड़क पर दौड़ने लगी। मैं देवर्षि की कार्यकुशलता की कायल हो चुकी थी।
सोच रही थी, ये औरतें कहां कोई काम रुकने देतीं हैं। सब कुछ तो कर लेतीं हैं। एक वर्चस्व को तोड़कर मिसाल बनी हैं ये, इन्होंने स्वयं कोमलांगी की छवि को तोड़ हर परिस्थिति से हाथ मिलाया है। इन्हें सब कुछ तो आता है तो फिर ये दृष्टि में क्यों आंकी जातीं हैं?
मैं यह सब सोच ही रही थी कि देवर्षि का फोन बज उठा। उसने मुझसे इजाज़त लेते हुए फोन को स्पीक फोन पर डाल दिया। फोन पुलिस स्टेशन से था। उधर से रौबीली आवाज गूंजी, “तुम्हारा पति मोबाइल चुराते हुए पकड़ा गया है।“ कुछ देर की चुप्पी के बाद देवर्षि ने उत्तर दिया, “इस बार मेरे पति को आप ही रख लो साहेब, अब मैंने बीहड़ में भी गाड़ी चलाना सीख लिया है।“ इतना कह उसने फ़ोन काट दिया। गाने फिर से बजने लगे।
मेरी आँखें देवर्षि की पीठ थपथपा रहीं थी और हाथ आकाश नापने की कोशिश कर रहे थे।
मैं देख रही थी एक सशक्त स्त्री, आत्मनिर्भर स्त्री, सीमित कार्यों को असीमित करती स्त्री, चौपाइयों में लिखी पंक्तियों को नकारती स्त्री, हर दिन को महिला दिवस बनाती स्त्री।
मेरी पचास मिनिट की वो खूबसूरत राइड यादगार रही, जिसने बताया स्त्री के एक नहीं, कई हाथ हैं। मेरे एहसासों को थामे वो सारे गाने अभी भी गूंज रहें हैं।
चंद लोग, कुछ जादुई अल्फ़ाज़, कुछ यात्राएं व यात्रा के बीच मिले कुछ लोग हर उम्र में जादुई हैं। ताउम्र साथ रहतें है, कभी अनुभव बन कभी स्मृतियाँ बन। शुक्रिया, देवर्षि!