मेरे कार्यालय में सश्रम कारावास वाले कैदियों की ड्यूटी लगाई जाती थी । मैं विगत कुछ वर्षों से आत्मकेंद्रित रहने लगी थी । बस कार्यालय जाती और घर चली आती ।पिछ्ले एक माह से मेरे कमरे की साफ सफाई एवं मदद हेतु एक कैदी की ड्यूटी लगा दी गई थी ।
देखने में निहायत शरीफ, बड़ी-बड़ी आँखों वाला वह कैदी, काम करते-करते जब थक जाता तब मेरे कमरे के बाहर आम के पेड़ के पास बैठ जाता और धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाता रहता। उसके सादगी से भरे हाव -भाव मन को आकर्षित करने लगते थे। मैंने देखा कि उसके शांत चेहरे पर सदैव एक भोली – सी मुस्कान थिरकी रहती थी।
एक बार वह मुझे अपने जीवन के बारे में अनायास ही बताने लगा तो उसकी बातें सुनकर मुझे लगा कि वह बहुत अच्छा खिलाड़ी था। जिमनास्टिक, जूडो-कराटे में भी बहुत कुछ सीखा था उसने।
यह सोचकर मैं भीतर तक काँप उठती थी कि परिस्थितियाँ इंसान को अनचाहे ही विवशता की ऐसी बेड़ियों में जकड़ देती हैं कि व्यक्ति शेष उम्र बस कसमसा कर बिताने को मजबूर हो जाता है।
एक बार अचानक मेरा एक सरकारी पत्र गायब हो गया और उसको ढूॅंढने में मुझे शिरीष यानि कि उस कैदी की मदद लेनी पड़ी। उसने बड़ी तल्लीनता और मेहनत से मेरी दराज सॅंवार दी, साथ ही साथ वह पत्र भी ढूढ़ कर मेरी मेज पर रख दिया।
अम्मा -बाऊजी के जाने के बाद से मैं बहुत एकान्त पसन्द तो हो ही गई थी साथ ही जीवन के कुछ कसैले अनुभवों ने मुझे तटस्थ भी बना डाला था। मैं न किसी से फालतू मिलना चाहती, न मित्रता करती, पर शिरीष के साथ काम करते-करते एक अनजाना- सा रिश्ता जुड़ गया था मेरा। वह मुझे मेरे जीवन का एक हिस्सा लगने लगा था। मेरे बिना कुछ कहे वह चाय, नाश्ता, लंच सब व्यवस्थित कर देता था। अक्सर वह अपनी कोई भी बात बता कर मेरी प्रतिक्रिया जानने हेतु मेरा चेहरा देखता। उसका अपलक मुझे देखना थोड़ा अजीब- सा लगता था। मैं सबकुछ सुनकर हाँ, हूँ कहकर हट जाती थी।
इधर कई दिनों से वह नहीं आ रहा था। मुझे पता चला था कि उसके आजीवन कारावास की सजा माफ कर दी गई है। मुझे थोड़ी उलझन लगने लगी थी। वह लगभग चालीस वर्ष का कैदी जाने क्यों मेरा मन विचलित कर गया था। मैं जब-तब उस आम के पेड़ के पास जाकर खड़ी हो जाती थी, उसके गुनगुनाने की गूँज मुझे उद्वेलित कर जाती थी। मैं अपनी बेचैनी से चकित थी। उसकी अनुपस्थिति मुझे अनमना कर रही थी।
कुछ दिन बाद मेरे पास एक कूरियर आया, तो सहसा मैं चौंक गई क्योंकि विगत दस वर्षों से मैं अपनी अकेली दुनिया में जी रही थी। पत्र-व्यवहार तो बड़ी दूर की बात थी, मैं लोगों से हाय, हैलो करने में भी गुरेज करती थी। मैंने लिफाफा खोला तो उसमें एक लम्बा- सा पत्र था। मैंने जिज्ञासावश उसको पढ़ना शुरू किया। पढ़ते-पढ़ते मैं थरथरा उठी। उसमें लिखा था …
क्या सम्बोधन दूँ प्रिय नूपुर जी!
मैंने स्वर्ण कुमार का मर्डर कर दिया है। उस दिन आपकी दराज़ साफ करते समय मैंने चुपके से आपकी डायरी पढ़ ली थी, मुझे पता चला था कि आप वही पुरानी ‘आकाशवाणी’ वाली कवयित्री ‘नूपुर जी’ हैं जिनके कार्यक्रमों ने मेरी दुनिया बदल दी थी। मुझे यह भी ज्ञात हुआ था कि आपकी रचनाऍं स्वर्ण कुमार ने चुरा ली थीं और आपको बेइज़्ज़त भी किया था। आपको इस घटना से इतना धक्का लगा था कि फिर आपका दो साल तक मानसिक रोग विभाग में इलाज भी चला था। तत्पश्चात आपने कविता से हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया था। पूरी घटना जानने के बाद मैं उस स्वर्ण कुमार को मारने के लिए तड़प उठा था।
आपसे मेरा जुड़ाव बहुत अनोखा था। एक बार मैं अनाथ आत्महत्या करने चल दिया था। लेकिन तभी एक आवाज सुनाई पड़ी-
“हारना मत… हारने का भय भी मन को तोड़ता है…!”
आपकी तिलिस्मी आवाज़ मेरे मन में गूँजने लगी। मैं वहीं बैठकर, अपने घुटनों पर सर रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आप बोलती जा रही थीं और मेरा आत्महत्या करने का विचार धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा था। जब मैं उठा और पीछे नजर डाली तो एक ‘आम का पना’ बनाने वाले के रेडियो में आपका प्रोग्राम आ रहा था। मैं तुरन्त उसके पास गया और उससे पूछा कि क्या यह कार्यक्रम तुम रोज सुनते हो भईया?
“हाँ भाई !” उसने बड़े स्नेह से उत्तर दिया था।
“यहाँ इनको सुनता हूँ तो पूरा जीवन बदल जाता है। हम ही नहीं, हमारा पूरा कुनबा, पूरा गाँव इनसे प्रेरणा लेता है।”
“सही कह रहे हो तुम।” कहकर मैं चला आया।
दूसरे दिन फिर वहीं पहुँच गया और फिर नियमित रूप से आपका कार्यक्रम सुनने लगा।
सच बताऊॅं तो मैं आपको प्यार करने लगा था! सच्चा प्यार, आत्मा वाला प्यार, क्योंकि मैंने आपको देखा तक नहीं था। परंतु आपके एक-एक शब्द मुझे जीवन देते थे। आप मुझ अनाथ के जीवन की प्रेरणा या यूँ कहूँ कि पूरा जीवन बन गई थीं।
फिर अचानक आपका कार्यक्रम आना बंद हो गया था। मैं चिंतित, थोड़ा पागल- सा हो गया था। बदहवास ‘आकाशवाणी’ कार्यालय जा पहुँचा था। वहाँ पता चला था कि आपके साथ कोई हादसा हो गया है, इसलिए आपको ‘आकाशवाणी’ से विदा लेनी पड़ी। मैं कई वर्षों तक खोजबीन करता रहा था।
मेरे प्यार की शक्ति ही थी कि मुझे सश्रम कारावास के कारण आपके कार्यालय में ड्यूटी करनी पड़ी और शायद यह भी मेरे सच्चे प्रेम का नतीजा था कि मैं आपके विभाग में ही काम करने लगा।
आपको तो पता है नूपुर जी, एक अनाथ इंसान असंख्य प्रश्नों से घिरा रहता है। अपमान के अनगिनत घूँट पिए होता है। ऐसे में यदि कोई भाव आत्मा को स्पर्श कर ले , तो उस अनाथ व्यक्ति का जीवन ही बदल जाता है। बस ऐसा ही मेरे साथ हुआ।
सच कहूँ तो करीब दस वर्षों से मैं आपके कार्यक्रम की प्रतीक्षा कर रहा हूँ | इसी वर्ष मुझे मेरी सजा से छूट भी मिल गई है।
आपको बताऊॅं , मुझे उम्रक़ैद की सजा में फर्जी फंसाया गया था नूपुर जी, क्योंकि मैंने एक बड़े साहब को उनकी आया के साथ बेडरूम में सोता हुआ देख लिया था |
बड़े साहब को पता था कि उनकी मैडम मुझ पर अंधविश्वास करती थीं। उन्होंने पता नहीं कौन -सी टेक्निक अपनाई कि उसी आया की हत्या में मुझे उम्रक़ैद की सजा हो गई।
नूपुर जी! आपकी मन: स्थिति से पूर्णतः अनभिज्ञ रहते हुए मैंने आपको सदैव बहुत प्यार किया है। मैं आपसे अनुरोध करना चाहूंगा कि आप आकाशवाणी में अपने काव्यपाठ की पुनः शुरुआत कर लीजिए। आपके निकट रहकर मैं अपने प्रेम के साथ न्याय नहीं कर पाऊँगा इसलिए आपके सानिध्य में बिताए अविस्मरणीय पलों की स्मृतियों को साथ लेकर मैं बहुत दूर, सात समंदर पार जा रहा हूॅं। शायद अब अगले जन्म में मुलाकात होगी!
आपका, शिरीष
( कैदी नम्बर ९)
पत्र पढ़कर पलभर को मैं स्तब्ध रह गई। और सहसा पत्र को कसकर सीने से लगाकर जोर-जोर से रोने लगी।