बैरिस्टर साहब
यह एक नाटक था, जिसमें एक नि:संतान बैरिस्टर के वारिस की तलाश चल रही थी। उसके हर अंदाज को उस किरदार में उतारा जा रहा था। काला कोट, चश्मा, सिगार। हू-ब-हू अभिनय करने वाले को वारिस चुना जाता।एक कलाकार सफल हुआ। यद्यपि वह बैरिस्टर नहीं था। इस कमी को बैरिस्टर साहब की किताबों के रैक आदि को ओट देकर लोकेशन बना कर पूरा किया गया।नाटक इतना सफल हुआ कि उस कलाकार का नाम ही बैरिस्टर साहब पड़ गया। नफासत से अब वह सिगार पीता। काला कोट और चश्मा पहनता और स्वांग करता। सिर्फ कानून नहीं जानता था। उसकी जरूरत भी नहीं थी, लोग उसे बैरिस्टर साहब ही कहते रहे…उसे भी लगता रहा वह बैरिस्टर है!,
एक समय बाद जब वह बूढ़ा होकर मरा, तो बहुत से लोगों ने इसे कानून के इतिहास में अपूरणीय क्षति कहा और यह भी कहा कि जब भी कानून की चर्चा होगी, बैरिस्टर साहब के योगदान को याद किया जाएगा।
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नज़रिया
वह आज फिर चौफेरिया कचहरी के पास एक वृक्ष के नीचे चबूतरे पर बैठा हुआ था। अपने खयालों में चौकन्ना सा।
किसी आदमी ने पूछा,”कैलू दास दस साल से यहीं एक जगह पागल की तरह क्यों बैठते हो? क्या खोज रहे हो?”
“बाबू दस साल पहले मेरी पोती गायब हुई थी इस जगह से “कैलू दास ने साफ-साफ कहा।
“मिली?” आदमी ने दुहराया।
“नहीं।” उसने धीरे से मरियल आवाज में कहा।
“फिर बैठने का मतलब?”
“मतलब है बाबू!” कैलू दास ने बाल खुजलाते हुए कहा,”मतलब नहीं होता, तो मैं यहाँ क्यों बैठता?”
“क्या मतलब है?” उस आदमी ने उपहास से कहा,” अब दस साल बाद क्या वह मिल जाएगी?”
“वह नहीं मिलेगी।” कैलू दास ने उदास होकर कहा,”मैं भी जानता हूँ, वह नहीं मिलेगी।”
“फिर?”
“कम से कम हर आने-जाने वाले को इतनी जानकारी तो देता हूँ बाबू कि यह इलाका कैसा है। आदमी को आगाह तो करता हूँ कि इस रास्ते को पार करते हुए उन्हें किन बातों का खयाल करना चाहिए। कम से कम जो गलती मुझसे हुई, उनसे नहीं हो…” उसने पलकों की कोर पर छलक आए आँसू पोंछ कर हवा में हाथ फटकारते हुए कहा।
आदमी उसकी बात सुन कर अवाक रह गया।