मिर्च ख़ासी तीख़ी ही होनी चाहिए
तांत की साड़ी रखे-रखे
तहों से टूट रही है
उस पर लंकिनी की निगाहों का साया है
मुलमुल और रेशम
दोनों के किनारे पकड़े हुए मैं
मुलमुल के मोह में मर रही हूँ क़रीने से
कि…
कोकून से शापित रही
नहीं भाता किसी का रेशमी एतबार
जानती हूँ कि
बातूनी नहीं थे हम फिर भी क़रीब थे
प्रेम हमारे बीच से ख़त्म नहीं हुआ
कहानियां हैं कि ख़त्म सी है
हर बार की तरह
वसंत एक लड़की की
तितली बनने की कहानी लेकर तो आता है
पर चला भी जाता है
सावन में
एक बार और प्रेम में डूबने की ज़िद
रेशम को नहीं
खुरदरे टाट को ख़ास मुक़ाम पर ले जा सकती है
जाओ मन.. कि अब कहीं ठौर नहीं
गहरे प्यार और गहरी ऊब में दिए गए
किसी लांछन पर मत रोना
मुस्कराना कि….
आज मसालों की लिस्ट मुकम्मल हो गई है
और……..
मिर्च ख़ासी तीख़ी ही होनी चाहिए….!!!
*********************
तुम्हारे न रहने पर
सारी लड़कियों के दिल सिकुड़ जाते हैं
जब पिता नहीं रहते
कुछ बरसों बाद माँ नहीं रहती
बड़ी बहनें भाइयों की माँ बन जाती हैं
बड़ा भाई रौबीला पिता
छोटियों के पैदा होते ही
जिनके नहीं हैं बड़े भाई तो..
छोटे भाई पिता नहीं बन सकते क्या ?
बड़ी क्या, छोटी क्या
बहनों के तो एक से दुःख
भाई भी तो बहन में बहन को नहीं
माँ को ढूंढ़ रहे आजकल
सावन के गीत कानों में कहाँ पहुँच रहे
दिल में शोर ज़्यादा है इस बार
कलाई सूनी नहीं रहेगी
बस…….मायका सूना है
तुम्हें बने रहना चाहिए था …
इस बार सलूने नहीं काढ़े किसी ने दरवाजे पर……..!!!
***********************
चन्दा मेरे शरद के
उदास दिल की बातें भी रोचक होंगी
झाँकने वाले की आँख बन्द न हों तो
मैं बन्द नहीं करती अपनी महबूब आँखें
याद रखती हूँ एक उम्र तक का ख़ालीपन
मोहब्बतें एक पड़ाव पर ठहराए रहती हूँ
सिनेमाघरों से निकलते ही
सुखद अंत का अंत महसूस नहीं करती
रूखे ढर्रे पर प्रेम की बलि सिर्फ तुम्हारे कारण चढ़ाती हूँ
जिस्म की हरारत का जश्न
बेवज़ह मुस्करा कर मुरझा जाना
नहीं भाया कभी भी
खिलखिला कर किया अचम्भित
चाँदनी सा टूटी डाली के फूल ने
पता है
फ़लक पर गाँव है तुम्हारा
और… मैं गर्दन में मरोड़ आने तक
तकती हूँ तुम्हें ….
दागों से भरे दागिना हो
शायद इसलिए मेरा
आकर्षण कम नहीं होता
नाम नहीं लेती मैं
पर नायक तो तुम्हीं हो
रूखे कमज़ोर पलों में ही रची है
एक रोमांचक कविता और
तुम पर ही निसार सारे प्रेमगीत
चुप्पी साधकर छुपे हो किसी बादल के पीछे
तुम….लुत्फ़ क्यों नहीं उठाते
यह सब जानकर
सुनकर तुम भी उदास दिल क्यों हो.. ?
क्या इसकी वजह कहीं हमारा कभी न मिल पाना तो नहीं
चंदा मेरे शरद के……!!!
**************************
लोकतंत्र
मैं कितना भी
पांव-पांव चल कर
तुम्हारे क़रीब पहुँच जाऊँ
तुम्हारी तरफ से दूरियाँ ख़त्म नहीं होतीं
मैं कितना भी जाग जाग कर
निहारूँ तुम्हें
तुम्हारी स्वप्निल बोझिल आँखें
उनींदी ही रहीं
मेरी प्यास-प्यास चकोर हुई
तुम चाँदनी को समेटे
आकाश के अकेले यात्री रहे
हवाओं की मंद मंद शीतलता
बाहों की गर्मी चाही
इंतज़ार की लौ जलाई
एक तुम दुशाला ओढ़े चिढ़ाते रहे
एक चुम्बन जो मुझे
मेरे माथे पर चाहिए था
वो तुमने
एक फूल की नाक पर रख दिया
मैं कली कली खिलने की सोचती रही
तुम सींचना ही भूले बैठे
मैं मनुष्यत्व की दासी
श्रद्धा से सिर झुकाए-झुकाए
नवीं रही
तुम गर्व से हठीले राजनायक रहे
सारे गीत-अगीत
हर उदास शाम की निशानी भर रहे
संगीत का निष्ठुर पक्ष यूँ मेरे हिस्से रहा…….
प्रेमलोक में
एक की चुप पड़ी क्रांति
सदियों से बस यूँ ही
खेल- खेल में
लोकतंत्र बहाल किए हुए है ……..!!!