गाने में जैसा दोहा – खाने में वैसा पोहा। साहित्यिक सामग्री में जो स्थान दोहे का है खाद्य सामग्री में वही स्थान पोहे का है। लोहे से ज्यादा रिटर्न पोहे में हैं। लड़कियों की कमी के चलते अब उन्ही लड़कों की शादी हो रही है जो या तो डाक्टर इंजीनियर है या फिर पोहा बेचते है।
पोहा की लोकप्रियता में आई उछाल से विशेषज्ञ भी हैरान है। गाँव गाँव शहर शहर पोहा की धूम मची है, चारो दिशाओं में पोहा लहर चल रही है। ऐसा लगता हैं वर्तमान सदी पोहा सदी के नाम से जानी जाएगी। यूक्रेन – रूस युद्ध खत्म न होने का प्रमुख कारण यह है कि पुतिन पोहा नहीं खाते है। बस एक बार पुतिन एक प्लेट पोहा खा ले तो फिर ज़ेलेंस्की से मुस्कुराते हुए पूछेगे – केम छो भाई? जिनके मुंह पोहा लग गया फिर उनके मुंह से प्रेम की भाषा ही निकलती है।
हर शहर का अपना एक पोहा कल्चर होता है। प्रगतिशील समाज में पोहा परंपरा और पोहा संस्कृति की महत्ता को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। आपसी प्रेम और सदभावना की एक ख़ास जगह है पोहा की दुकान। यहां जाति भेद, रंग भेद, छोटे बड़े जैसी कोई समस्या नहीं होती। यहाँ सब एक ही सफ़ में खड़े रहते है न कोई बंदा है न कोई बंदानवाज़।
पोहा खाकर लौटे आदमी के चेहरे पर विजय के भाव देखे जा सकते है। लोग अपनी मूछ और दाढ़ी पर पोहे का दाना लगा रहने देते है ताकि देखने वाले जान सके कि हम पोहा खाकर आ रहे है। पोहे की दुकान पर अजब नज़ारा देखने को मिलता है जो खाकर जा चुके है वो खाने के लिये दोबारा आ जाते है और कहते है भड़काए मेरी भूख को चटनी तेरी। पोहा में चना चटनी और तली हुई हरी मिर्च वाली प्लेट लोग हाथ में ऐसे पकड़ते है जैसे जुआड़ी के हाथ में तीन इक्के हों। जब तक आदमी के हाथ में पोहा की प्लेट नहीं आ जाती तब तक वह चुप रहता है लेकिन जैसे ही उसके हाथ में पोहा की प्लेट आ जाती है वह प्रापर्टी, शेयर बाज़ार और गोल्ड में इन्वेस्टमेंट की बात करने लगता है। पोहा आदमी की क्षमता को बढ़ाता है और दबी प्रतिभा को उजागर करता है।
बिल्डर, ज्वेलर्स और ट्रांसपोर्ट सेक्टर को छोड़ अब आयकर विभाग की नज़र पोहा विक्रेताओं पर है विभाग का दावा है कि पोहा के नीचे खज़ाना दबा है। पोहा की लोकप्रियता को देखते हुए हिंदी उर्दू के एक विद्धान पुरुष ने अपने बेटे का नाम पोहा अली खान रख दिया। मैंने शंका ज़ाहिर किया कि यह नाम नहीं चलेगा तो बोले जब फ़िल्मी दुनियां में सोहा अली खान चल सकता है तो ईल्मी दुनियां में पोहा अली खान क्यों नहीं चलेगा?
स्वामी जी भक्तों को उपदेश दे रहे थे कि ज़रूरतमंद की मदद करो, बुज़ुर्गो की सेवा करो, दान दक्षिणा करो ताकि स्वर्ग में जा सको। अगर अत्याचार करोंगे, नफ़रत की भाषा बोलेगे, हिंसा करोगे तो नर्क में डाल दिये जाओगे और याद रखो नर्क वह भयानक जगह है जहां पोहा नहीं मिलता हैं।
शहर के निर्माण में लोहे और शहर की पहचान में पोहे के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। पहले शहर नदी, पहाड़ो और इमारतों के लिये जाने जाते थे अब पोहे के लिये जाने जाते है। मम्मी के लाख समझाने पर भी बच्चों ने मामा घर जाने से इसलिये इंकार कर दिया क्योकि जैसा पोहा दादा के शहर में मिलता है वैसा नाना नगर में नहीं मिलता। पोहा मानव को दी गई भगवान की अनुपम भेंट है। डाक्टर ने आज तक किसी मरीज़ को पोहा खाने से मना नहीं किया।
आलोचक कहते है पोहे में ताकत नहीं होती। महोदय यह पोहे की ही ताकत है कि वह बाज़ार में अकेले अपने दम पर बिरयानी को टक्कर दे रहा है। यह पोहे की ही ताकत है जो आलसी आदमी को भी सुबह सुबह बिस्तर से उठा कर सड़क पर ले आता है। अलसुबह सड़को पर यह नज़ारा देखा जा सकता है कि सैकड़ो लोग उस दिशा में दौड़ते हुए जा रहे है जहां पोहे की दुकान है। किसी से पूछो कि आप सुबह कितनी दूर तक दौड़ते है तो वह कहता है – घर से पोहा की दुकान तक। पोहे की दुकान ही सब का टारगेट है।
इन सब के बावजूद भी आज तक पोहे का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है, इस पर विमर्श होना बाकी है फिर भी जनसमान्य के बीच पोहा की बढती लोकप्रियता को देखते हुए यह कहना चाहूंगा कि देश में किसी भी पार्टी की सरकार हो उसकी नीति पोहा नीति की तरह स्पष्ट होनी चाहिए, सुविधाए पोहा की तरह सुलभ हो, योजनाओं का लाभ आम आदमी तक पोहा की तरह पहुचे, नेता और अफ़सर का व्यवहार और स्वभाव पोहे की तरह नरम, सुगंधित और दिलकश हो।