यह आँख बीती कहानी है। उस आदमी की कहानी है जो बाईक पर पीछे बैठता है। कहानी में यह नायक नहीं है – नायक में यह कहानी है। यह किसी एक बाईक पर बैठे एक आदमी की कहानी नहीं है, यह हर बाईक पर बैठे हर आदमी की कहानी। बाईक अलग अलग हो सकती है, बैठा आदमी अलग हो सकता है, समय और स्थान अलग हो सकता है लेकिन कहानी सम्मान पत्र की तरह एक ही जैसी होती है।
यह वह आदमी है जो बहुत से चौकन्ना रहने के अवसर पर चौकन्ना नहीं रहता लेकिन किसी की बाईक पर पीछे बैठते ही चौकन्ना हो जाता है। वह पीछे बैठ कर सामने वाले को बताता है देखो कार आ रही है, ऑटो आ रहा है, मेटाडोर आ रही है, स्पीड ब्रेकर है, ब्रेक मारो, हार्न बजाओ, देख कर, संभाल कर, आहिस्ता से। बाईक का ब्रेक, एक्सीलेटर, हार्न ये चालक के हाथ में नहीं पीछे बैठे आदमी के मुंह में होते है। पीछे वाले आगे वाले को कभी स्वीकारते नहीं है उन्हें यही बात सताती रहती है कि आगे वाला आगे क्यों है? बाईक पर पीछे बैठा आदमी विपक्ष में बैठे नेता की तरह होता है।
दूर से देखने वालो को ऐसा लगता है पीछे बैठने वाला आदमी मुशायरे की सदारत कर रहा है जबकि वह बहुत व्यस्त होता है। यह समय अपनी सक्रियता को ज़ाहिर करने का, अपने ज्ञान को बिखेरने का, अपने अनुभव को साझा करने का महत्वपूर्ण समय होता है। हेलमेट का महत्व वही जानते है जो किसी को पीछे बैठा कर ले जाते है।
यह दुर्लभ प्रजाति का मानुस होता है। यह थोड़े को व्यापक कर सकता है, सूखे को निचोड़ सकता है, चादर को रुमाल साबित कर सकता है। पंद्रह बीस मिनट की यात्रा में यह भक्ति और चाटुकारिता की अदभुद मिसाल पेश करता है। पीछे बैठा आदमी आगे बैठे आदमी के कान में जितना घुस सकता है उतना तो घुस ही जाता है फिर भी थोड़ा और का प्रयास जारी रहता है। यह आदमी बैठने से ज़्यादा उचकता है और मुड़ने के आधा किलो मीटर पहले से ही हाथ दिखाना शुरू कर देता है।
पीछे बैठा आदमी आगे बैठे आदमी को राह दिखा कर उसका ध्यान भटकाता है। बाईक के माध्यम से निकला यह वाक्य हर क्षेत्र में लागू होता है। पीछे बैठा आदमी कभी आगे बैठने की कोशिश नहीं करता क्योकि किसी भी क्षेत्र में पीछे बैठ कर जो खुराफात की जाती है वह आगे बैठ कर संभव नहीं है। पीछे बैठे आदमी के पास खबरे बहुत होती है, जो घटा है उससे ज़्यादा विश्वास के साथ उसे सुनाता है जो नहीं घटा है। यह खबरों का वाचक ही नहीं उसका निर्माता भी होता है। नियमित लिखने वालों से अधिक अच्छी इनकी कहानी होती है इनसे पूछो की यह कला आपने कहां सीखी तो कहते है – यह कला मेरे को मेरे पिता जी से विरासत में मिली है वे बहुत अच्छे साहित्यकार थे लेकिन तारसप्तक और धर्मयुग में नहीं छपे इसलिये उन्हें मान्यता नहीं मिली। यह लगातार बोलता है और सामने वाला पल भर के लिये भी पीछे गर्दन घुमाता है तो कहता है सामने देख भाई।
लिफ्ट मांगने वाले इन प्रतिभा संपन्न लोगो में गजब की संभावनाये होती है। इनके पास रेत माफ़िया से लेकर रेत समाधि तक की जानकारियां होती है, ये रामविलास पासवान से लेकर रामविलास शर्मा तक पर बोल सकते है, वेट और फेट लास की उम्दा तकनीक इन्हें मुखाग्र होती है फिर भी इनकी हालत युद्ध के विरुद्ध कविता की तरह होती है जिसे न युद्ध वाले पढ़ते है न बुद्ध वाले पढ़ते है। काबलियत होने के बावजूद भी ये लेखक नहीं हो पाये क्योकि इन्होने लिखने को अनिवार्य नहीं समझा।
बाईक में किसी को लिफ्ट देना शत्रु से प्रेम करने के समान कार्य है। संवेदनशील व्यक्ति से ही यह संभव है, इसके लिये तन और मन दोनों स्वस्थ होना ज़रूरी है। अब ऐसे लोग धीरे धीरे कविता में से छंद की तरह गायब होते जा रहे है।
ख़ुदा बैठाने वालों को सलामत रखे बैठने वालों की कमी नहीं है। बाईक की सबसे ख़ास बात यह है कि इस पर विपरीत विचारधारा वाले भी एक साथ बैठ सकते है क्योकि इसमें एक दूसरे का मुंह नहीं दिखता है। पीछे बैठे आदमी का बाईक से रिश्ता प्यास का पानी से रिश्ता जैसा रिश्ता है। बाईक चलाने का आनंद तभी है जब कोई पीछे बैठा हो, अगर कोई पीछे न बैठा हो तो भीड़ भाड़ और चकाचौध से भरा बाज़ार भी कबीर की इन पंक्ति सा लगता है – साधो ई मुर्दन कै गांव।