आराधना का पैंतीसवां जन्मदिन था। वो रात भर की नींद में सो कर, सुबह उठी थी। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो वो एक बड़े अंतराल के बाद, लंबे अरसे के बाद, चार साल के लंबे अरसे के बाद किसी दिवास्वप्न से जागी हो। सब कुछ चिर- परिचित होते हुए भी अन्जाना सा क्यों लग रहा था उसका अपना घर, अपना बेडरूम, अपने कमरे के परदे, उसे ऐसा क्यों लग रहा था, जैसे वो कई साल बाद घर लौटी हो? वो कहीं भी तो नही गयी थी! वो यही पर थी,यहीं, इसी देश में जिसमे वो पिछले पन्द्रह साल से अपनी प्यारी सी गृहस्थी में सुख-चैन का जीवन व्यतीत कर रही थी। कोई कमी न थी, धन की, दौलत की, प्यार की, विश्वास की। अत्यंत प्रेमी पति, उसे बेहद प्यार करता था। विवाह पश्चात जब वो उसे न्यूजीलैंड ले कर आया था तब,कहीं वो अकेलेपन से घबरा न जाये,उसने उसके लिए तमाम भारतीय मित्रों की मण्डली दिन रात बिठा कर रखी थी। ढेरों हिंदी फिल्मों के वी.सी.डी,फिल्मी, अफिल्मी गीतों व गजलों के सी.डी, भारतीय खाने- पीने का पूरा इन्तजाम करके रक्खा था। दिल्ली की अत्याधुनिक एवं धनी परिवार की जिस बेटी को वो जिस परिवेश से ले कर गया था, उस परिवार में हर दिन दोपहर शाम व रात कुछ न कुछ घटता ही रहता था। क्लब,पार्टीज़, ऑउटिंग्स, शादियाँ आदि किसी न किसी प्रोग्राम के असंख्य निमन्त्रण पत्रों की भीड़ उनके यहाँ में नित्यप्रति लगी रहती थी। वहाँ की हलचल और यहाँ की सुनसान सी जिंदगी, क्या आराधना रह पायेगीं? शादी से पहले ही उस से पूछा था, “मेरा इरादा न्यूजीलैंड में ही बसने का है,वहाँ दिल्ली जैसी रौनक नहीं है तुम सोच समझ कर देख लो।”
आराधना को तो अरविन्द बहुत पसंद आ गया था। वो वहाँ की मानी हुई लॉ-फर्म में काम करता था। अच्छी खासी तनख्वाह पाता था। यही नही उसकी पर्सनैलिटी बहुत आकर्षक थी, एकदम फिल्मी हीरो के जैसी। छह फुट तीन इंच की लम्बाई गठीला बदन, तराशे हुए नैन नक्श, रौबीली चाल-ढाल ,बात- चीत करने का विनम्र तरीका, कल्चर्ड मैनर्स, कुल मिला कर वो हर तरह से परफेक्ट था। वास्तव में आराधना इतनी खूबसूरत नही थी। औसतन जैसी भारतीय लड़कियाँ होती हैं, उसी में एक और, हाँ उसे पहनने–ओढने का शौक था। वो हमेशा थोड़ा सा मेकअप किए रहती थी। सुन्दर सलीके दार कपडे, पैरों में ब्रांडेड सैंडल, जूते और कलाई में स्मार्ट घडी, कानों व गले में नाजुक गहने। साधारण सी सूरत होने के बावजूद वो अनेकों सुंदरियों के बीच अनूठी व अलग लगती थी। उसमे एक अलग ही तरह का ग्रेस था। उसकी माँ उसे स्वीटपीज़ के फूल के समान मानती थी; “यह भी कोई उपमा है!”
आराधना की सबसे पक्की सहेली, सहपाठिनी व बिलकुल बगल वाले बंगले की निवासिनी, पल्लवी ने, उसकी मम्मी की उपमा पर एतराज जताते हुए कहा था। “माति का सर्वप्रिय फूल जो है, और मैं उनकी सर्वप्रिय संतान!” गर्वीला सा उत्तर दिया था।
स्वीट पीज़ के सामान शालीन, सभ्य व गरीमामयी आराधना गजब का गाती थी, उसके मुँह के बोल सुन कर राहगीर ठगे से रह जाये, ऐसा था उसके स्वरों का जादू। और वो ईश्वर प्रदत था कोई बनावटी नहीं।
न्यूजीलैंड आ कर आराधना वहीं की हो कर रह गई। उसने फिलॉसफी से एमए.किया था। पी .एचडी करने की चाह थी, किन्तु पाँच वर्षों में दो बच्चों की माँ बन गयी थी। बच्चे उसने ऐसे पाले थे जैसे कोई चिर्रया अपने छोटे- छोटे बच्चों के मुहँ में दाना डालती हो, डाल- डाल पर उड़ना सिखाती हो। राघव और रेशमा ही अब उसका समूचा संसार थे। साल में दो बार वो इन्ड्या का चक्कर मार लेती थी और उसके मम्मी पापा भी आ जाते थे,कभी बर्थडे पर तो कभी होली दीवाली पर। ईश्वर की इतनी असीम अनुकम्पा क्या किसी पर हो सकती? फिर, फिर भी, वो रास्ता कैसे और क्यों भटक गई? लाख चाहने पर भी उसे इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाया था।
बिस्तर से उठ कर बाथरूम की ओर जाने लगी तो बाहर लिविंग रूम से, “हैपी बर्थडे टू यू” का संगीत गूँज उठा। अरविन्द की कंठावली के साथ राघव ओर रेशमा संगत दे रहे थे, रेशमा पियानो बजा रही थी और राघव सेक्सोफोन। उसके कमरे से कान सटाए उसके उठने उसके उठने की प्रतीक्षा कर रहे। उसके उठने की प्रथम आहट मिलते ही, चहक उठे। तन मन भींग उठा शीघ्रतापूर्वक बाहर निकली, तीनों ने उसे घेर लिया। हैप्पी फैमिली वाला सीन सजीव हो गया, फोटो खिचीं, केक कटा, मित्रगण आए। अनेकों उपहार मिले उसके पेरेंट्स ने कंप्यूटर पर लाइव टेलीकास्ट देखा।
अरविन्द तो ऐसे बर्ताव कर रहा था मानो कुछ हुआ ही नहीं। मानो वो सब इतना साधारण था, कि महत्व देने लायक न हो! कितना अजीब था! उसके चेहरे पर एक भी सिलवट नही थी, उसकी हग में कोई हिचक नहीं थी, वो बाँहें जो उसे विश कर रही थी उसमे वो ही गरमाहट वो ही निकटता थी। उसकी आँखों में लेशमात्र का संदेह नही था, न कोई वेदना, न क्षोभ, न क्रोध, न ही कोई उदासीनता! आराधना की आँखें उन चिह्नों को ढूंढ रही थी, जो अनिवार्य रूप से उसके पति के व्यक्तित्व पर झलकनी चाहिए थी, किन्तु नहीं, आराधना का कन्फेशन सुन कर अरविन्द इतना सहज कैसे हो सकता था। क्या कोई छोटी- मोटी बात थी ? आराधना की ‘गलती’ क्या इतनी हल्की- फुल्की थी? गलती,दोष,पारंपरिक रूप से देखा जाए तो उस कृत्य को अपराध ही कहेंगे,अपराध वो भी अक्षम्य! जिस “अपराध” का भयंकर परिणाम हो सकता तो, जो कम से कम तलाक और मर्डर तक जा सकता था, उस कृत्य का प्रतिउत्तर, इतना ठंडा, इतना तटस्थ, इतना सहज,मानो कुछ भी न हुआ हो। उसकी जीवन रुपी सरिता के पानी के नीचे की समतल सतह पर मोटी खाई खुद गयी थी, वहाँ गर्म ज्वालामुखी फूट पड़ा था,किन्तु सरिता का जल न तो जला, न सरिता खाई में गिरी, न ही रास्ता बदली, वो तो उसी निरंतर गति से बहती रही।
बर्थडे के सारे रंग एन्जॉय करने के बाद, दिन सिमट गया सूर्य अस्त हो गया. आराधना बाहर डैक पर आकर बैठ गयी। “चलो सोना नही है क्या आज?”
स्नेहपूर्वक अरविन्द ने उसके पास आकर पूछा। पूरा घर सहेज दिया था,उसने तमाम क्रॉकरी,कटलरी संगवा कर डिश वॉशर में लगा कर ऑन कर दी थी, बच्चों को मग में दूध थमा कर बेड में पटक कर आया था,अपने सोने का उपक्रम करने से पूर्व आराधना को खोजते हुए बाहर आया था,उसकी ओर तीखी नजर से देखते हुए वो बोली,“ मैं तुम्हारा यह व्यवहार और अधिक सहन नही कर सकती।”
आवेश भरे स्वर में उसने कहा, उसकी वाणीं की संगत उसकी आँखों से बह आये आँसू कर रहे थे। छाती पर मन भर बोझ पड़ा था,उसे सांस लेना भी भारी लग रहा था।
“ कैसा व्यवहार?” सादगी से अरविन्द ने पूछा, ऊंचे बार स्टूल पर बैठ गया। वाइन की बोतल खोली, दो ग्लासो में ढाली, और एक उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला। आराधना ने जोर से ग्लास फर्श पर दे मारा, उसका दम घुट रहा था वो कुछ आवाजें सुनना चाहती थी, पति की तरफ से उसकी कुछ नाराजगी, उसका क्रोध,उसकी गाली,यहाँ तक कि वो उसे थप्पड़ मारे, कुछ भी, वो उसे उकसा रही थी, किन्तु वो था किसी हिमालय की तरह अविचल।
“तुम नाराज नही हो?”
“नही।”
“तुमने मुझे माफ़ कर दिया?”
“तुमने कोई अपराध नही किया। तो माफ़ी कैसी।”
“अरविन्द मैंने तुम्हें किसी फिल्म की कहानी नहीं सुनाई, मैं तुम्हे, अपने और पीटर के अफेयर के बारे में बता रही हूँ।”
“मैंने कब कहा कि, तुम कहानी सुना रही हो।”
“ तुम्हें कोई फर्क नही पड़ता कि तुम्हारी बीवी किसी गैर मर्द से पिछले चार साल से अफेयर चला रही है तुम्हे पता भी है कि पीटर चाहता था, कि मैं तुम्हें तलाक दे दूँ। वो भी अपनी पत्नी को छोड़ने के लिए तैयार था?”
आराधना का पूरा शरीर कांप रहा था। उसकी आँखे लाल हो गयी थी,चहरे का एक –एक ब्लड सैल क्षोभित था। उसका जिस्मानी तापमान बोइलिंग-पॉइंट से भी अधिक हो गया था।
“हाँ, तुम मुझे बता चुकी हो।”
उसी सहजता से अरविन्द ने उत्तर दिया, जिस सहजता से उसने उसकी पूरी बात सुनी थी। तीन दिन पहले ज़ू के पास वाले रेस्टोरेंट में आराधना ने अरविन्द को बुलाया था और सब कुछ, बता दिया था। पिछले बीस दिनों से उसने पीटर से मिलना, यहाँ तक कि फोन पर भी बात करना बंद कर दिया था, उसके फोन का उत्तर भी नही दिया था, कम से कम पचास फोन काटे, पच्चीस बार रास्ता बदला, पीटर से फाइनली कह दिया था कि “नहीं, नही! मैं तुम्हारे साथ नही आ सकती।”
“परन्तु क्यों? वी लव ईच अदर। डोंट वी?”
उसके सवाल का जवाब उसने दिया नहीं, जवाब उसके पास था भी नहीं। उन बीस दिनों में उसने अपने को टटोलना शुरू कर दिया था। अपनी अन्तरंग सहेली पल्लवी को दिल्ली फोन किया, जिस पल्लवी से वो सब कुछ शेयर करती थी, यहाँ तक कि, अरविन्द के साथ गुजारी रातों को बताने में नहीं कतराई। उस पल्लवी से पीटर के साथ चल रहे अफेयर के चार साल में से पहले दो साल कुछ नहीं बताया था। पीटर के बारे में पल्लवी को इंडिया में ही बताया था, उसका पी.एचडी. में एनरोलमैंट हो गया था, वो अक्सर दोपहर में यूनिवर्सिटी जाती थी और शोध कार्य करती थी। तभी इंग्लिश में पी- एचडी करने इंग्लॅण्ड से पीटर आया था। वो दोनों सामने –आमने बैठे ही थे,कि वो अचानक से एक दूसरे की ओर आकर्षित हो गए। ऐसे लगा जैसे कोई चुम्बक उनके शरीर से हो कर गुजरा और मैग्नेट की तरह उन्हें एक दूसरे की तरफ खींच रहा हो। अपने तन मन पर उनका कंट्रोल नही रहा, कब और कैसे वो दो अजनबी नजदीक आ गए, समय ठहर गया, वजनविहीन हो कर वो जैसे स्पेस में भ्रमण कर रहे हो। इन्द्रधनुष के सारे रंग गडमड हो गए। उन्हें स्वयं नही पता था कि उनके बीच क्या चल रहा था। जो चल रहा था वो क्या था,बस इतना पता था कि, उन्हें एक दूसरे के साथ बैठ कर देर तक पढ़ना अच्छा लगता था। पढ़ते-पढ़ते ब्रेक लेना, कॉफी पीना या फिर लेक के किनारे घंटो घूमना अच्छा लगता था।
पीटर कभी- कभी वायलिन बजाता। आराधना गाना गाती,एक दूसरे के साथ से वो कभी नही थकते थे, उन्हें न भूख सताती थी न प्यास,न नींद न अनीन्द। दुनियादारी से बेखबर, ठीक व गलत के पैमानों से अलमस्त, समाज परिवार की सीमायो से असीम, उनका मेलजोल, उनका रिश्ता, उनका संग साथ क्या था क्यों था वो दोनों इस सबसे अनभिज्ञ थे। एक साल तक तो वो यूँ ही दूर से मित्र रहे। दूसरे वर्ष शारीरिक समीपता बढ़ी किन्तु इस समीपता ने उन्हें दूर नही किया, हो सकता था कि, विवाहित आराधना और विवाहित पीटर अपराध भाव से भर कर अपनी मर्यादाए लांघने पर लज्जित हो जाते और कुछ कमजोर पलों का वास्ता दे कर एक दूसरे से दूर चले जाते, परन्तु ऐसा नही हुआ,जितना प्यारा मेलजोल उनका पहले था, उतना ही खूबसूरत स्पर्श के बाद भी हुआ। उन्हें न कोई अपराध बोझ सताता था न कोई कष्ट प्रतीत होता था।
“बड़ा मुश्किल है तुझे समझाना।” पल्लवी के सामने अपने इस नए अनुभव को शेयर करते हुए उसने कहा था।
“अरविन्द तुझे इतना प्यार करते है, और तू और तू …..?” पल्लवी आशंकित हो कर बोली, “ तू ये क्या कह रही है?”
अनमनी सी होकर आराधना बडबडाई, “प्यार? जो वो करते है क्या उसे प्यार कहते” कहते- कहते रुक गई, फिर बुदबुदाई, “ एक रात भी वो अलग नहीं रह सकते, रात में तीन चार बार उनकी भूख जागती है, मैं बहुत -बहुत थक जाती हूँ। ही हैज अ ह्यूज़ अपीटाईट, परन्तु पीटर के साथ ऐसा नहीं होता। हम बहुत कम सीमाए लांघते है। बस हमें एक दूसरे का साथ अच्छा लगता है।”
“आराधना तू ये क्या कर रही है? मत कर ऐसा, जिस दिन अरविन्द को पता चलेगा उस दिन तू क्या करेगी?”
आराधना की शुभचिंतक पल्लवी उसी तरह रिएक्ट कर रही थी जैसे साधारणतया लोग करते हैं। वो उसके लिए डर रही थी। उसे सचेत करने की कोशिश कर रही थी, पर आराधना उसे भोली सी हँसी में टाल देती। कोई नसीहत, कोई हिदायत, कोई भविष्य के खतरे की आशंका उस पर असर नहीं करती थी।
“तू पागल हो गई है।”
“नही मैं अपने पूरे होश में हूँ।”
“तेरी बसी बसाई गृहस्थी बर्बाद हो जायेगी, अरविन्द और बच्चों को पता चला तब तू क्या करेगी?”
“पता नहीं!”
लगता है पीटर तुझे यूज़ कर रहा है, तेरे भोलेपन का फायदा उठा रहा है।” पल्लवी ने उसे उनके अफेयर के तीसरे वर्ष पीटर की निंदा करते हुए कहा था।
“क्या पता मैं उसे यूज़ कर रही हूं।” आराधना के स्वर में एक अजीब सी खुमारी थी, “एक दूसरे को यूज़ करना,पाना- खोना,फायदा –नुक्सान, धोखा –ईमानदारी, हमारे बीच ये सारे शब्द व सिद्धांत बेमानी हैं, खोखले हैं। हमें ये न सुनाई देते है, न हमें इनका मतलब पता है, कल क्या होगा क्या नहीं होगा, हमारे रिश्ते का क्या भविष्य है हमें पता ही नहीं।”
“कैसे पता नहीं?” पल्लवी को आराधना पर क्रोध आने लगा था।
“ पता नहीं, कैसे पता नहीं?”
“क्या अरविन्द मनुष्य नहीं। तू और अरविन्द पति -पत्नी नहीं है। बेकार की बेतुकी बातें मत कर, तू क्या इस समाज से परे है ,समाज की नहीं अपने स्वयं के घर की, रिश्ते की फ़िक्र नहीं है। क्यों अपनी शादी –शुदा जिंदगी को बर्बाद कर रही है?”
पल्लवी ने एक बार नहीं, कई बार सोचा कि उसके पेरेंट्स को कॉन्फिडेंस में ले कर सब बता डाले परन्तु हिम्मत नही पड़ी। चौथे वर्ष में पल्लवी उससे नाराज रहने लगी।
पीटर भी उस भविष्यहीन रिश्ते का भविष्य सँवारने लगा। पिछले तीन वर्षों से वो दोनों जिस डगर पर दिशा हीन कभी इधर तो कभी उधर लुढक रहे थे, अचानक हाईवे पर आ खड़े हुए थे। उनके रिश्ते ने रोड- मैप के दर्शन किए, तो दोनों सहम गए, तरह- तरह की दिशा पट्टियाँ सामने आ खडी हुई। राइट – ओर पर लिखा था,“ कहाँ?”
लेफ्ट पट्टी- पर, “ कैसे?”
ऊपर -“क्यों?”
नीचे,– “ अब आगे क्या?”
कल के बारे में सवालों ने उन्हें घेर लिया। यदि एक ओर जाते थे तो दूसरी पगडंडी छोड़नी पड़ती थी और इसी उलझन में फंस कर वो एक ही स्थान पर खड़े रह गए। जड़वत .!!!
आराधना ने तय किया कि वो पीटर से नही मिलेगी। तड़प उठे वो दोनों। समाज के बनाए नियम उनके समक्ष सख्त मुद्रा में आ खड़े हुए। एक अनुशासन प्रिय कड़क पिता की तरह जीवन उन्हें हथेली पर फुट रूलर की तरह पीटने लगा। पीटर को दिशा मिल गयी उसने स्पष्ट शब्दों में अपना निर्णय सुना दिया, “मै जेनिस को डिवोर्स दे दूँगा।“
“किन्तु मै ऐसा कभी नही करूँगीं।”
आराधना को पीटर के साथ उस मार्ग पर जाने से डर लग रहा था और उसके बगैर रहने की कल्पना से उसका दिल तार तार हो रहा था, पीटर के बिना जीवन की कल्पना से भी वो बेहाल थी ।
पल्लवी ने उसे साफ़ – साफ़ शब्दों में डांट लगाईं, “यू आर -अ -कन्फ्यूज्ड –गर्ल। नथिंग एल्स। आखिर तू चाहती क्या है? देख तू दो –दो नावों पर पैर रख कर चल रही है, मरेगी, तू डूब कर मरेगी।”
आज तक, जो आराधना खुशी और सिर्फ खुशी में फूली समाई रहती थी, अब वो बात बात पर रोने लगी थी। जिसके साथ ने उसे हल्का फुल्का करके उड़ना सिखाया था वो ही आज उसके सीने को भारी पत्थर से दबा रहा था। ऐसा नहीं कि सिर्फ आराधना का ये हाल था, पीटर के जीवन से भी सारी खुशी छू मंतर हो गयी थी,वो उदास था,और ये भी, उसकी सजीली सुन्दर आँखों में बदली छाई रहती थी। संगीत लयहीन व ताल विहीन हो गया, करीने से कपडे पहनने वाली,ऊट पटाँग,नॉन- मैचिंग कपड़े पहनने लगी। मेकअप करना, सजना संवरना सब छोड़ दिया।
“तुम्हारी तबियत ठीक नही है।” अरविन्द ने आराधना से कहा। भाव विहीन वो शून्य में ताकती रही। अरविन्द उसे डाक्टर के पास ले गया। ब्लडप्रेशर, शुगर, हार्ट आदि सब टैस्ट करवाए कहीं कुछ भी तो असमान्य नही निकला। उसकी बीमारी को पकड़ पाता ऐसा कोई डॉक्टर था ही नहीं। उसकी बीमारी पकड़ पाई तो स्वयं उसकी अपनी परछाई, जो उसे हाथ पकड़ कर अपने घर के दरवाजे पर छोड़ आयी थी। आराधना को दिशा मिल गयी थी। किन्तु घर के भीतर घुस पाना क्या इतना सरल था? पूरे दो महीने तक उसकी परछाई, घर के चारों तरफ मंडराती रही। पहले पीटर से मिलना बंद किया। ऐसा करने में उसे,पहले कुछ दिन, फिर हफ्ता, दो हफ्ता फिर पन्द्रह दिन, और फिर महीना, फोनी सिलसिला तोडना शुरू किया। जो रिश्ता चार साल में एक मजबूत दीवार की तरह बन गया था उसे हथौडो की मार सहनी पड़ी। प्रत्येक वार के बाद वो दोनों रो पड़ते। अन्ततः पिछले हफ्ते पीटर लन्दन वापिस चला गया।
“यहाँ रहता तो न्यूजीलैंड के सफ़ेद सी- बीचेस के रेत पर उसके पैरों के निशान, आराधना को ढूँढ ही लेते।”
र फिर आराधना ने अरविन्द से सब कुछ कह दिया। सब कुछ!!
आराधना ने कोई सफाई नही दी, अरविन्द ने माँगी भी नहीं। जू, के पास वाले रेस्टोरेंट में वो लगभग तीन चार घंटे बैठे रहे। आराधना की हालत कच्चे केले के पेड़ की डाली सी हो रही थी। वो टूट रही थी। उसका शरीर अपना भार उठा पाने में अशक्त था, अरविन्द ने उसकी कमर में अपने सबल सशक्त बाँहें डाली और उसे घर ले गया। इतना ही नही अरविन्द ने आराधना की पहले से भी अधिक केयर करनी शुरू कर दी और उस दिन तो आराधना के आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा, जिस दिन उसने उसे उसके पैंतीसवें जन्मदिन का उपहार भेंट किया। पल्लवी को अब वो पल- पल की जानकारी देने लगी थी, उपहार के बारे में बताया, “अरविन्द मेरे लिए मर्सिडीज लाए है। वो भी मेरे मनपसंद रंग की, मिडनाइट ब्लू रंग की!” सुन कर पल्लवी हक्की- बक्की रह गयी थी।
आराधना के फेंके हुए वाइन ग्लास के टुकटे एकत्रित करने के बाद उसने एक और ग्लास उठाया और उसमें वाइन डाली, आराधना की ओर बढ़ाई। आराधना ने ग्लास नहीं पकड़ा। उसके कानो में पल्लवी के शब्द शोर मचा रहे थे, कार की चाबी उसे मथानी की तरह दल रही थी। उसके शब्द कानों के पर्दों से टकरा रहे थे; “यदि अरविन्द तेरे से कोई सवाल नही कर रहा, न वो क्रोधित है, न उदास, वो उलटे तुझे मर्सडीज़ गिफ्ट कर रहा है। मनुष्य तो मनुष्य ऋषि भी रियक्ट करेंगे, करते आये है, और तुझे क्या लगता है अरविन्द तुझे बहुत प्यार करते है? या वो बहुत सहनशील है? नो वे। मुझे तो लगता है ———————|
कहते -कहते पल्लवी रुक गयी।
“क्या लगता है? बता ना।” अत्यंत अधीर हो कर आराधना ने पूछा।
“चोर की दाढ़ी में तिनका।”
“दाढ़ी में तिनका, मायने?” लगभग चीखते हुए आराधना बोली। पल्लवी एक- एक शब्द संभाल कर बोल रही थी, “ मुझे लगता है, कि अरविन्द फ्रौड है। वो तुझसे प्यार करने का ढोंग कर रहा है। तुझे हारा मान कर अपनी विजय पर इतरा रहा है। सहनशीलता का नाटक कर रहा है। जिससे तू उस पर शक न करे।”
“तेरे कहने का क्या मतलब है। मैं कुछ समझी नहीं।” आराधना के स्वर में बेबस सी शंका उठ खडी हुई|
“देख आराधना कोई पति इतना महान नही हो सकता, जब तक कि उसका भी अपना कोई अफ्येर नही चल रहा हो, वो न तो पकड़ा गया न उसने तुझे बताया। निश्चय ही तुझसे अलग उसकी अपनी पर्सनल लाइफ है, तुझ से अलग एरिया है या फिर पहले कभी रहा होगा।”
आराधना को पल्लवी की बातों में दम लगा, अपनी बड़ी बड़ी आखें अरविन्द पर गड़ा दी, उसे अपनी ओर घूरता हुया देख कर, अरविन्द कुछ क्षण ठिठका, धीमे से मुस्कुराया। आराधना स्टूल पर जम कर बैठ गयी। ग्लास हाथ में लेकर गोल- गोल घुमाने लगी। बड़े संयमित शब्दों में उसने कहा, “अरविन्द क्या तुम्हारा?” उसके गले से बात क्यों नहीं निकल रही थी। कंठ अवरुद्ध क्यों हो रहा था? कहीं वो,’ उलटा चोर कोतवाल को डांटे,’ वाली कहावत चरितार्थ तो नहीं करने जा रही थी?
“मेरा क्या? –क्या आराधना?” अरविन्द उसके और समीप आकर बैठ गया। आराधना ने उसकी ओर अपलक देखा। पिछले पन्द्रह वर्षों में अरविन्द और भी हैंडसम हो गया था। आठ घंटे काम करता, जिम जाता, पूरे छह पैक वाली बौडी बना ली थी उसने। घर व बच्चों का भी पूरा ध्यान रखता था। कोई कमी कोई शिकायत का मौक़ा नही दिया उसने। अरविन्द ने एक और नयी वाइन की बोतल हाथ में उठा ली थी और उसे हाथो में लिटा के उसका लेबल देख रहा था। वाइन पीने का ही नही उसे देश विदेश से वाइन लाकर कलेक्शन का शौक था। जब भी कोई नयी बोतल खोलता तो पहले उसे बड़े लाड़ चाव से घुमाता। उसका रंग और लावण्य निहारता, बड़े जतन उसका विवरण पढता, मानो वो कोई खूबसूरत मूर्ति हो, वीनस की मूर्ति, और वो स्वयं भी हो कोई ग्रीक गॉड। परफेक्ट! पूर्ण।
“क्या कहना है बोलो।”स्नेहासिक्त स्वर में उसने पूछा। आराधना ने आखें बंद कर ली और बिना उसकी ओर देखे सरपट एक सांस में जल्दी- जल्दी सब कुछ उगल दिया। “अरविन्द क्या तुम्हारा कोई अफेयर चल रहा है? या चल रहा था? क्या तुम किसी और को चाह …ते —— ——-“ आदि- आदि,वो बोलती जा रही थी कि उसकी बातों की श्रंखला अचानक किसी जोरदार विस्फोट की आवाज़ से टकरा कर थम गयी। आँखें खोल कर देखा तो पाया कि, अरविन्द, वो अरविन्द जो हमेशा शांत रहता था। वो अरविन्द जिसने अपनी पत्नी के अफेयर की बात सुन कर भी कोई प्रतिक्रिया नही दी थी, वो अरविन्द उठ कर खडा हो गया था और वाइन की बोतल को एक फास्ट बॉलर की तरह हवा में तेजी से घुमा कर दूर बहुत दू————–र फेंक कर मारा था। बोतल पन्द्रह फुट दूर बनी दीवार से जा टकराई। कांच तोड़ने की बारी अब अरविन्द की थी। एक नहीं पूरे आधा दर्जन वाइन की बोतलें घुमा- घुमा कर फेंक मारी थी, मानो वो वाइन की बोतल न हो कर क्रिकट की बॉलें हों और वो, वो हो, दुनिया का सबसे तेज गेंदबाज!!!
पुनश्च जब तक स्त्री दुर्बल, अपराधिन व असहाय थी। रो, गिड़गिड़ा रही थी, तब तक पुरुष उसे कन्धे पर बिठा कर हनुमान बना रहा। परन्तु जैसे ही आकाश मार्ग की ओर जाते हुए, भरत रूपी आराधना ने तीर चलाया तो वो क्षति ग्रस्त हो कर उसे भीतर तक बींध गया, क्यों? पल्लवी ने उपरोक्त सत्य कथा सर्व घोषित कर दी है। आराधना व अरविन्द आप पाठकों के निर्णय की प्रतीक्षा में हैं।