नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीन्हा
दूर से आती हुई ठुमरी की आवाज, ढ़ोलक की थाप और घुँघरूओं की आवाज अम्मा को सोने न हीं दे रही थी। दो बार तो थूककर आ गयीं।
इन रांड- रडँकुलियों ने यहाँ ड़ेरा बसा रखा है। क्या सोचकर अनिरूद्ध ने यहाँ घर लिया होगा। क्या उसे पता नहीं था कि घर से थोड़ी ही दूर चकलाघर चलता है।
‘मुझे तो भाई गाँव छोड़ आ, मुझ से सहन नहीं होते ये रोजरोज के ठुमरीठप्पे‘
‘अम्मा तुम इतना कान लगाकर सुनती ही क्यों हो? हमें तो कुछ सुनायी नहीं देता’
‘फिर घर से एक किलोमिटर की दूरी पर क्या चल रहा है, तुम क्यों परवाह करती हो’
शहर से दूर जब अनिरूद्ध ने यह बँगला लिया था, तब वह भी कहाँ जानता था कि कुछ ही दूरी पर इन गानेवालियों की बस्ती शुरू हो जाती है। कभी कभी रात के सन्नाटे को चीरकर उसके और माधवी के कानों में भी शलाका घुसेड़ चुकी हैं ये आवाजें।आँख ,कान बन्द करके बैठे थे दोनों, पर जब से गाँव से अम्मा आयी हैं, जीना दूभर कर दिया है उन्होंने। रात – दिन बस एक ही रट, ‘ये घर बदल, या मुझे गाँव छोड़कर आ।’
दोनों ही बात सम्भव नहीं है, अम्मा इतनी बूढ़ी हो चुकी हैं कि अब उन्हें गाँव में अकेली रखना सम्भव नहीं है और घर लिये हुए अभी दो महीने भी नहीं हुए कैसे बदले एकदम घर। किराये का होता तो बदल भी लेता, ये तो उसका अपना घर है।
कितने अरमानों से उसने ये घर खरीदा था, उसका अपना घर, अपनी कमाई से लिया हुआ घर।काश माँ – बाबूजी ज़िन्दा होते।बचपन में ही दोनों की मृत्यु हो चुकी थी, दादीजि से वह अम्मा कहता था, उन्हों ने ही उसे पाला था।पढ़ने के लिए शहर ,हॉस्टल में भेजा था। उसने भी पढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी आज वह जाना माना आर्किटेक्ट है।छुट्टियों में जब गाँव जाता तो अम्मा पूछती, ‘पढ़ लिख कर क्या बनेगा मेरा राजा बेटा’
‘आर्किटेक्ट’
‘वो क्या होता है’
‘घर बनाऊँगा’
‘घर बनायेगा? मजदूरी करेगा’
उसे हँसी आ जाती। भोली दादी को कैसे समझाये।
‘घरों के डिजाइन बनाऊँगा’
‘अफ़सर बनेगा’
‘हाँ’कहकर वह चला जाता पड़ोस में, जहाँ उसकी हम उम्र रिया रहती थी।
बचपन के बेफिक्र दिन।दौड़ते- भागते से दिन।प्रकृति से भरपूर गाँव, चारों तरफ हरियाली, बहती हुई नदी, नदी के किनारे कितने ही घंटो तक खेलते रहते, रेत पर पड़े रेतकणों के जैसे झिलमिलाते दिन, ओढ़नी में टँके सितारों जैसी टिमटिमाती ठंडी रातें।
अचानक सब कुछ शान्त हो गया। नदी का बहता पानी स्थिर हो गया, झिलमिलाते हुए रेतकण निस्तेज हो गये, ओढ़नी में टँके सितारे धूमिल हो गये।
वह एक काली साँझ थी, जब रिया गाँव से गायब हो गयी। तेरह साल की बच्ची जब रात गये तक घर नहीं लौटी, सारे गाँव में हाहाकार मच गया। वह गाँव की बेटी थी, सब की साँझी। उस रात किसी के घर में चूल्हा ना जला। बहुत ढूँढा, पुलिस आयी पर ना पता लगना था ना लगा। छुट्टियाँ खत्म हुईं, अनिरूद्ध हॉस्टल आ गया। देखते ही देखते सालों बीत गये। आज भी कभी कभी रिया धीरे से आकर मन मस्तिष्क में दस्तक दे जाती है।
देखते ही देखते छ: महीने बीत गये। इतने दिनों से अम्मा चुप थीं ,आज गाने की आवाज सुनते ही फिर उनका माथा सनक गया।
‘मुझे कल सुबह गाँव छोड़कर नहीं आया तो कुँए में कूद कर जान दे दूँगी। मुझ से नहीं सहन हो ती ये बेशर्मी भरी आवाजें’
‘कौन से कुएं में? यहाँ तो कोई कुँआ है ही नहीं अम्मा’ उसे हँसी आ गयी।
उसकी हँसी ने जैसे आग में घी का काम कर दिया। मुँह पर साड़ी का पल्लू रखकर वह रोने लगी। वह हतप्रभ रह गया। अभी उन्हें मनाने की कोशिश कर ताकि बस्ती की तरफ़ से जोर – जोर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। बाहर निकल कर देखा तो बस्ती धू-धू कर जल रही थी। सब औरतें, बच्चे, आदमी भागकर उनके घरों की तरफ भागने लगे। सहम कर उसने दरवाजा बन्द कर दिया। एक भी अन्दर आ गयी तो कुँए में तो नहीं, अम्मा छत से जरूर छलाँग लगा देंगी। जल्दी से जा कर वह अपने कमरे में घुस गया और माधवी को सख्त हिदायत दे दी , अम्मा को जीवित देखना चाहती हो तो भूल कर भी दरवाजा मत खोलना। बड़ी घृणित नजरों से माधवी ने उसे घूरा।
जोर जोर से गेट बजाने की आवाज़ आ रही थी। दर्द दिल में समेटे वह चुपचाप बैठा रहा। अचानक गेट खुलने की आवाज आयी, वह तो ताला लगा कर आया था, बाल्कनी में से उसने देखा, अम्मा गेट खोल रहीं थीं। गेट खुलते ही ढ़ेरों बच्चे, औरतें आ कर लॉन में बिखर गये। आदमी बाहर खड़े रहे। कई औरतों के कपड़े आग में से भागते हुए जल चुके थे, बच्चे घबराये हुए रोये जा रहे थे। और अम्मा !अम्मा उन बच्चों को गले लगा कर चुप करा रहीं थीं। दूर से आती हुई जिस ध्वनि से भी जिसे नफरत थी, आज वह उन्हें मुसीबत में देखकर साक्षात जगदम्बा बन चुकी थी। अब माधुरी और अनिरूद्ध भी नीचे आ गये थे। सब को पानी पिलाया और लॉन में सोन को कह दिया। सभी औरतें और लड़कियाँ बड़ी कृतार्थ नजरों से उन तीनों को देख रही थीं।
सबसे अलग – थलग कोने में बैठी वह लड़की , इतनी चुपचाप सी क्यों है और इतनी पहचानी सी क्यों लग रही है और वह भी क्यों इतना घूर घूर कर उसे और अम्मा को देख रही है। उसने अपने विचारों को झटका और सोने चला गया। वह कैसे ऐसी लड़की को जान सकता है? हो सकता है किसी से चेहरा मिलता हो। वह जा कर सो गया। सुबह सब को जाने के लिए कहेगा। सुबह हुई और उसे किसी को जाने के लिए नहीं कहना पड़ा। सब पहले ही उठकर जा चुके थे।
बस्ती उजड़ चुकी थी , जहाँ से कभी हवा के साथ –साथ बहती हुई घुँघरूओं की आवाज चली आती थी, वहाँ से कुत्तों के समवेतरूदन की आवाज आती है, ऐसा लगता है सब एक साथ बैठकर मर्सिया पढ़ रहे हों। रह रह कर वह लड़की क्यों याद आ जाती है।
एक दिन सिग्नल पर जब उसकी कार रूकी हुई थी, उसने देखा वह लड़की भीख माँग रही थी। लगता है आग के साथ धंधा पानी भी स्वाहा हो गया। भीख माँगते हुए वह उसके कार का काँच खटखटाने लगी। अनिरूद्ध ने कार किनारे लगायी और उसे अपने पास आने का इशारा किया। उसके पास आते ही उसने पूछा , लगता है तुम्हें कहीं देखा है, उस दिन घर पर भी तुम्हें देख कर ऐसा लगा था।क्या तुम मुझे जानती हो?
अनिरूद्ध कुछ और पूछे या सोचे, इस से पहले तो वह फूट फूट कर रोने लगी।
‘मैं आपकी कार में बैठ जाऊँ’
अनिरूद्ध को थोड़ी हिचक हुई। इतने गन्दे कपड़े, भिखारन और उस से भी पहले देहव्यापार। किसी ने देख लिया तो उसकी तो इज्जत मटियामेट।
‘जानती थी’ कोई बात नहीं, कह कर वह चलने को हुई कि अनिरूद्ध ने कहा ‘पीछे की सीट पर बैठ जाओ’
बैठते ही वह बोली, ‘अनिया’
‘अनिया’? इस नाम से उसे बुलाने वाली तो बस एक ही थी। जो ना जाने कहाँ खो गयी।
‘मैं वही हूँ, जिसके बारे में सोच रहे हो, रिया
अनिरूद्ध को लगा, वह चक्कर खाकर गिर जायेगा। रिया और ….
‘उस दिन जब थोड़ा थोड़ा अँधेरा छा रहा था और मैं घर की तरफ जा रही थी, किसी ने मुझे झाड़ियों में खींच कर मेरा मुँह बन्द कर दिया और बेहोशी की दवा सुँघाकर कार में बिठाकर कहीं ले गये। आगे की कहानी ना तुम सुन सकोगे ना मैं सुना सकूँगी। इधर से उधर बेची जाती रही। उस दिन जब आग लगी और तुम्हारे घर आसरा मिला, मैं अम्मा को पहचान गयी थी। एक बार मन हुआ बता दूँ’मैं रिया हूँ अम्मा’पर जानती थी ये लोग छोड़ेंगे नहीं। पर आग में सब जल जाने के बाद किसी का कोई ठिकाना ना रहा सब भीख माँगने में लग गये। रात के सड़क के किनारे सो जाती हूँ। कई बार पुलिसवाले अपने साथ ले जाते हैं।
‘मेरी माँ बाबू कैसे हैं अनिरूद्ध’
अनिरूद्ध का मन भर आया। अपनी बचपन की सखी को गले लगाने को उसका मन तड़प उठा।
‘मेरे साथ घर चल। ‘अम्मा तुझे देखकर बहुत खुश होंगी।’
वह हँसी, क्या था उस हँसी में, व्यथा, दुख, दर्द ,पीड़ा।
‘संसार की कोई अम्मा अब मुझे देखकर खुश नहीं हो सकती’
जाने दो मुझे ,अब ये ही मेरी नियति है। वह दरवाजा खोल कर उतरती, उससे पहले ही अनिरूद्ध ने कार स्टार्ट कर दी। उसकी सोच के विपरित अम्मा ने उसे गले लगा लिया। गाँव में अब उसका कुछ भी नहीं बचा था, उसके खोने के कुछ महीनों बाद ही माँ चल बसी थी, फिर पिता भी।भाई- बहन कोई थे नहीं। अनिरूद्ध ने उसे एक जगह काम दिलवा दिया। वहीं उसकी मुलाकात रोहन से हुई। सब कुछ जान कर भी रोहन उस से विवाह करने को तैयार हो गया।
आज रिया का विवाह है। जिन पैरों में कभी नियति ने घुँघरू ड़ाल दिये थे आज रोहन ने प्यार से पायल पहना दी है। जिन कलाईयों को कितने ही लोग निर्ममता से मरोड़ देते थे, उन कलाईयों में रोहन के नाम की लाल हरी चूड़ियां हैं . दिप दिप करता हुआ माथे पर बड़ा सा टीका, माँग में सिंदूर है। फेरे खत्म हुए और रिया ने अपने बाल सखा के पैर छू लिए। आँखों में से झरते हुए आँसुओं ने बिना बोले बहुत कुछ कह दिया।