इन उम्मीदों में कटती है रातें,
काश, सुबह की सुर्खियों में न हों अब युद्ध की बातें
चाहता कौन है युद्ध?
बैसाख की चिलचिलाती धूप में पिघली
डामर की सड़कों के किनारे
मटमैले कपड़ों पर
सब्जी भाजी लेकर बेचने वाले स्त्री पुरुष और बच्चे?
या ठेले और खोमचे पर छतरी लगाए गोलगप्पे खिला रहे भैया जी?
कौन चाहता है युद्ध?
माइनस पचास से कम तापमान में
बंदूकों का भार लिए खड़े नौजवान
जिनके ज़हन में होते हैं मां बाप, बीवी और बच्चे
रोज आ आकर सपनों में झांकते हैं,
क्या वे युद्ध चाहते हैं?
नव माह पूर्ण कर चुकी
किसी बंकर में छुपी गर्भवती महिला
कड़ाके की ठंड में ठिठुर कर
जब जनती है किसी अभागे बच्चे को
जिसकी नाल काटने को
न कोई दाई है न कोई डॉक्टर
या, कई दिनों से भूखी मां
जिसके सीने से लिपटा है दूध के लिए बिलखता बच्चा
क्या युद्ध चाहती है?
नहीं!
तो फिर कौन चाहता है?
तुम?
हम?
कतई नहीं!
बस बेबस हो चुके हैं हम,
सुन्न मस्तिष्क में, खिन्न भावनाओं को लिए
स्थितप्रज्ञ स्थिति में
अपने वातानुकूलित दीवान खंड में
टेलीविजन के पर्दे पर
देखते हैं, सुनते हैं
कुछ महासत्ताओं द्वारा
मुर्दों पर राजनीति करते हुए
शांति मंत्रणाओं को नकारते हुए
और कहते हुए
युद्ध नहीं होगा,
बशर्ते
परमाणु हथियार खरीदे जाएं
मगर हमीं से!
और हम सर से पांव तक सिहरे हुए
सोचते हैं
अब कभी पैदा न हो
कोई अदनान खशोगी
रुक जाए हथियारों की खरीद-बिक्री और दलाली
बहुत कंठस्थ कर लीं
अतीत में विद्यार्थियों ने इतिहास की पढ़ाई करते हुए
प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध से
होने वाली तबाही की तारीखें
काश, इतिहास में दर्ज न हो पाए,
तृतीय विश्वयुद्ध की भयानक तबाही
काश,
धर्म हो मगर युद्ध नहीं
और न ही लिखी जाए
अब कोई नई रामायण या महाभारत
किसी होमर को न करनी पड़े अब रचना इलियाड की
तो अनगिनत एन फ्रेंक की डायरियों में पढ़ने को न मिले
युद्ध की विभीषिका की दहशत और वेदना
काश! गोले बारूदों की बौछारें बंद हों
इन के धुंए से धुंधलाया आसमान साफ हो
और खुले आंगन में
बगल में सोए हुए बच्चे को
मां दिखा सके, साफ नजर आती आकाशगंगा
और वह गिन सके सप्तऋषि के तारों को