गाडुलिया लोहार
सदियों पहले हल्दीघाटी में खोया था
मैंने अपना पारस
भटक रहा हूं उसकी तलाश में अब तक
लोहा ओढ़े लोहा बिछाए
लोहा लेता जंग भरे जमाने से
लहू जलाता अपना
फिर भी बिखरता सा मेरा सपना
उन्हीं दिनों चुभी थी कील गहरी
मेरे कलेजे में
उसकी टीस ही अब मेरी ऊर्जा है
भीतर के लावे को
संकल्प के घण से कूट कूट कर
घड़ता हूं गरीब का चूल्हा
महकाता हूं अपने चमन को
अपने पसीने की गंध से
यह जो चल रहा है
इसे गाडुला मत समझना
यह सूर्यरथ है मेरा
जिसमें लदी है अकूत ऊष्मा
जलता रहता है यह
दिन रात चलता रहता है
रचता बसता है मेरा संसार
कभी इसके ऊपर
तो कभी इसके नीचे
मैं अपनी ही आग में
जलता हुआ दिनकर हूं
चारों दिशाओं को
अपने वामनी डग से नापता
सूफी यायावर हूं
अपने जमीर से बना
ब्रह्मा का औजार हूं
हां, मैं गाडुलिया लोहार हूं
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घी
तब दो गायें हुआ करती थी
हमारे घर
माँ के हाथों बिलौने से निकला घी
गर्म रोटी की महक पर उतर कर
माँ की ममता की तरह पिघलता था
हींग-छौंक की गर्म दाल पर तैरता
उसका तिरवाला
प्रेम द्रवित हो बतियाता था हमसे
कभी जब मेरे नथुनों में
टपकाती थी माँ
घी की गुनगुनी बूंदें
लगता था दे देना चाहती है वह
अपनी बची खुची श्वासें भी मुझे
रात में मेरा सिर सहलाते हुए
दूध भरी गिलास में
उड़ेल देती थी वह
घी के साथ
ढ़ेर सारी दुआएं भी
पड़ोस की कमली के प्रसव में
रेशमा के निकाह में
खाली कर देती थी वह
अपने घी की पीपी
बदल गया है वक्त
सुनाई देने लगी है अब
वक्त की भयानक पदचाप
अब घी केवल
आग भड़काने के काम आता है
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जो लिखता…
जो लिखता नाभि से लिखता
भीतर की खदबद को लिखता
आंखी सच से बातें कर मैं
कलम से टपकी पीड़ को लिखता
पका जो आखर मुखर हो लिखता
सब कह दे उस मौन को लिखता
सलीब पे लटका स्वर पूज कर
मां शारद मर्याद में लिखता
लपक रही लब सीने को
उस शैतानी तासीर पे लिखता
मर जाता पर चुप ना रहता
अपने होने को होना लिखता
जिन कोनों में तम के जाले
उन्हें बुहार जोत पर लिखता
आयत-मंत्र ताक पे रख कर
किलकारी की गूंज पे लिखता
ईद-दिवाली गले मिले
उस प्रेम की कोंपल पर लिखता
भूख से जो भी बिलख रहा
मैं उसके निवाले पर लिखता
आधे जगत को मादा समझे
उस सोच पे अग्नि नोक से लिखता
वो दुर्गा बने वो काली बने
लहू-खप्पर मसि से लिखता
जो लिखता नाभि से लिखता
भीतर की खदबद को लिखता
आंखी सच से बातें कर मैं
कलम से टपकी पीड़ को लिखता