‘एथनिक’ दिखना, अपनी मौलिक व सांस्कृतिक विशेषतांए दिखाना आज का सब से ऊंचा ‘फैशन’ है. यह फैशन वस्त्राभूषण, गृहसज्जा, भोजन आदि से लेकर विवाह समारोह तक में फैल चुका है. खासतौर पर विदेशों मे बसे भारतीया विदेशी धनदौलत और पाश्चात्य खोखलेपन से ऊब कर ‘भारतीयत’ के रंग में रगंने की हठधर्मिता ठान बैठे हैं ‘हम विवाह भारतीय परंपरागत रीति से कराएंगे’ की घोषणा खूब हो रही है. ऐसी ही एक घोषणा के पालन की प्रत्यक्षदर्शी मैं अभी हाल ही में बनी.
हुआ कुछ इस प्रकार कि अमरीका जा बसे नजदीकी रिश्ते का एक परिवार अपनी कन्या की इच्छा पूरी करने के लिए परंपरागत शैली में भारतीय विवाह रचाने की खातिर वरपक्ष सहित भारत आ गया. फिर क्या था, जोरशोर से तैयारियां शुरू हो गया. कुलफी पर चांदी के वरक लगे. भारतीय स्वादों को कैद करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी गईं. गेंदे के फूलों की सजावट, मेंहदी की रस्में, बहुमूल्य जरीगोटे का लहंगा, रूपहली चमचमाती किरणों का दुपट्टा शुद्ध भारतीय शैली के जेवरों से दुल्हन सजी, और सजे पूरे घराती व बाराती.
हल्दी लगी, वरमाला पड़ी और अंगरेजी में अनुवाद करते पंडितजी ने वरवधु के फेरे भर फिरवाए. इतने सब ठाटबाट के बाद भी यह विवाह उतना ही बनावटी लग रहा था, जितना कि भारत महोत्सव में लोक नर्तकों का नाच अथवा सजी हुई ढपली पर उन की थाप.
यों तो विवाह के अनुरूप ही मेहमान भी थे, जो बडे़बड़े मनमोहक गुलदस्ते भेंट कर रहे थे. हरेभरे लान में कहीं विदेशी मदिरा तो कहीं ठंडी पेय अथवा काफी का दौर चल रहा था.
सफेद कलफ लगी वरदी में लपकज्ञपक कर सेवा कर बैरे बड़े बडे़ चांदी के थालों में व्यंजन मेहमानों तक पहुंचाते और भारी सिल्क की साड़ियो व रानी हारों से लदी मेहमान महिलाएं उसे मुसकरा.मुसकरा कर ग्रहण करती. उन के चेहरों पर चिपकी मुसकान भी उतनी ही उधारी थी, जो अभीअभी किसी महंगे ब्यूटीपार्लर से अवतरित हुआ था.
बेटी के विवाह के हर्षोल्लास में सदैव यह सोच कर चित्त पर एक उदासी सी छाई रहती है कि वह नन्ही सी बच्ची जो घर आंगन में इतने हक से होहल्ला मचाती थी, कभी रूठती, कभी प्यार जताती थी, आज एकाएक जिम्मेदार पत्नी व बहु बन कर विदा हो जाएगी. कुछ खो देने की टीस मां के हृदय में विषाद और पिता मे मन में चिंता उत्पन्न कर देती है.
परंतु आज की मां, मां सी कहां लग रही थी. वह तो स्वयं बेटी से भी अधिक सुंदर व सजीधजी तितली की तरह पूरे भद्र समाज में आकार्षण का केंद्रबिंदु बनी थी लोग बढ़बढ़ कर कह रहे थे, ‘‘आप तो गजब ढा रही हैं…….कौन कहेगा, बेटी का ब्याह कर रहीं हैं…..और भोंडेपन से सस्ती हंसी हसंते ये उच्च वर्ग के लोग शरारतपूर्ण ढंग से उस का हलका सा आिंलंगन लेने में नही चूकते थें.
अनायास ही स्मृतिपटल पर कुछ वर्षो पहले का चित्र उभर आया, जिस में भावविह्वल मां की अविरल अश्रुधारा आंखो का कजरा धो रही थी. उसे न केशसज्जा की सुध थी, न मुख पर लगे मेकअप की.
शादीब्याह की हलकीफुलकी रस्में, जैसे छंद कहलवाना, कंगना खुलवाना, पलंग पुजवाना आदि भी जैट स्टाइल से रफादफा कर दी गईं और जूता चुराने वाली रस्म में तो छोटी बहना ने सिर्फ 20 डालर का ‘नेग’ लेने वाली भूमिका ही अदा की.
हमारे आधुनिक बच्चे बतौर परंपरा दादादादी, नानानानी, बूआ, मौसी व जीजा के रिश्ते से क्याक्या मिलना चाहिए, यह खूब जानते हैं. शायद आप और हम भी इस एकतरफा ज्ञान से अवगत नहीं है, क्योंकी हमारी शिक्षा ने हमें कर्तव्य बोध का बोझ ही भेंट किया है.
विवाहोपरांत मन को प्रश्नों ने घेर लिया. यह कैसी परंपरा, कैसी भारतीयता कैसी रीतिरिवाज. क्या मात्र मांग भर लेना, बिंदी, टीका लगा लेना या मेहंदी रचा लेना ही भारतीय विवाह की गरिमा है. भारतीय विवाह की हर रीति के पीछे छिपा उस का गहरा अर्थ, परंपरागत रिश्ते, उन के दायित्व व बंधन, मां की ममता, बहन का स्नेह, भाई की आंखों में उमड़ता प्यार कुछ भी तो इस विवाह में नहीं था. वहां बस था तो ढेर सारा भारतीय लिबास, देसी खाना, कीमती जेवर और मिठास रहित रूसी सलाद.