संस्मरण – 6 (अंतिम भाग)
मार्च 2021 का अंत होते-होते भोपाल में कोरोना बहुत बुरी तरह अपने पैर पसार चुका था। क़रीब-क़रीब रोज़ ही सभी टीवी चैनल्स भोपाल की डरावनी व बुरी ख़बर सुना रहे थे। इसी बीच ज़हीर सर की वेबसाइट लांच के 10 दिन बाद (31 मार्च के आसपास) चंदेरी से कॉल करके ज़हीर सर ने मुझे बताया कि वे भोपाल वापस आना चाहते हैं। मैंने उनको कोरोना का हवाला देकर भोपाल आने से रोका। वे एक ही बार में मेरी बात मान गए। फिर कुछ एक सप्ताह बाद, 7 अप्रैल की बातचीत में वे फिर भोपाल आने की बात करने लगे। मैंने उनको फिर समझाया कि चंदेरी छोटी जगह है वहां कोरोना के केस नहीं के बराबर हैं, आप वहां ज़्यादा सुरक्षित हैं, अतः वहीं रहें। इस बार उन्होंने भोपाल आने का तर्क दिया कि उनकी क़िताबें – पत्रिकाएं डाक द्वारा आकर वापस चली जा रही हैं। मैने इसका भी रास्ता बताया कि डाकिया को बोल दीजिए पड़ोसी के यहां रख दिया करे, आप तो अपने मुहल्ले के डाकिया को जानते होंगे तब उन्होंने बताया कि नया डाकिया आया है वो न मुझे जानता है न मैं उसे। पुराने वाले रिटायर हो गए हैं। मतलब वो किसी भी क़ीमत पर भोपाल आना चाहते थे। मैंने फिर भी उनको समझाया, वे फिर से मान गए। उन्होंने मुझे 9 अप्रैल को कॉल किया। इस बार वे भोपाल आने की कोई बात न करते हुए इतना बताया, “मेरी नयी क़िताब “हिंदी ग़ज़ल की अवधारणा” प्रकाशित होकर आ गयी है पर इस बार चंदेरी में होने के कारण मैं आपको नहीं दे पाऊंगा (सर मुझे अपनी सारी क़िताबें उपहार स्वरूप देते थे जिस पर उनके हाथों से लिखा होता था “अत्यन्त प्रिय मनीष को स्नेहवश – ज़हीर कुरेशी” और साथ में दिनाँक) पर किताब बहुत अच्छी है, आप प्रकाशक से बात करके, उनको मेरा संदर्भ देते हुए ऑनलाइन मँगा कर पढ़िए”। उन्होंने मुझे “समन्वय प्रकाशन”, ग़ाज़ियाबाद के मालिक का नाम और मोबाइल नंबर बताया। मैंने इसे नोट न करके मोबाइल में वॉइस रिकॉर्ड कर लिया (अभी भी उनकी आवाज़ मोबाइल में दर्ज़ है)। हमने क़रीब 25 मिनट बातें कीं। फिर 13 अप्रैल को मैंने कॉल किया तो उन्होंने बताया कि बेटा समीर के साथ वे और आंटी कार से कल भोपाल वापस आ गए हैं। मैं चौंक गया। मैंने पूछा, “सर क्यों आ गए , आप तो नहीं आ रहे थे”? उन्होंने कहा, “अब वहां मन नहीं लग रहा था, यहाँ अपने घर आ गया हूँ तो अच्छा लग रहा है।” (जबकि चंदेरी भी उनका अपना, मगर नया मकान था, मगर कहते हैं न कि अपने बिस्तर और तकिए पर ही अच्छी नींद आती है, शायद उस नये घर से कुछ दिन के बाद उनको उनका पुराना बिस्तर भोपाल खींच लाया हो या शायद नियति…) मैंनें कहा, कोई बात नहीं, आ गए हैं तो सावधानीपूर्वक रहिएगा और कोई आवश्यकता हो तो बताइएगा। उन्होंने बताया कि हम सभी को (वो स्वयं, आंटी, बेटा समीर और बेटी तबस्सुम) थोड़ा बुखार और खांसी हो गई है पर चिन्ता की बात नहीं है, बेटी और दामाद दोनों ही डॉक्टर हैं, सब ठीक हो जाएगा। फिर फ़ोन रख दिया गया। मैंने फ़ोन रखते ही रविन्द्र शर्मा जी (समन्वय प्रकाशन के मालिक) को कॉल करके पुस्तक का आर्डर कर दिया। पुनः सभी का हाल जानने के लिए मैंने 15 अप्रैल को फ़ोन किया तो सर ने बताया कि उनका बुख़ार तो ठीक है पर खांसी अभी भी है और बताया कि बाक़ी सभी की तबीयत में भी सुधार है। मैं निश्चिंत हुआ।
17 अप्रैल की सुबह 10 बजे मुझे पता चला कि मेरे बड़े भाई तुल्य प्रवीण श्रीवास्तव भैया, जो एक बहुत अच्छे पत्रकार और कवि के साथ एक आला दर्ज़े के इंसान भी थे, का किडनी की बीमारी से लड़ते-लड़ते भोपाल में ही मात्र 52 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया है। उस दिन और अगले दिन मैं बहुत दुःखी और परेशान था और ज़हीर सर को कॉल करके उनका हाल नहीं ले पाया।
तभी दिनाँक 19 अप्रैल को दोपहर 3 बजे डाकिया ने मेरी किताब “हिंदी ग़ज़ल की अवधारणा” मेरे घर पर पहुंचा दी। मैंने दो घंटे में सरसरी तौर पर क़िताब को पढ़ा। सुखद आश्चर्य तब हुआ जब देखा कि इसके पृष्ठ 88 पर मेरे ऑफ़िस और मेरे नाम का भी उल्लेख है। ज़हीर सर की क़िताब में मेरा उल्लेख होना मुझे रोमांचित कर रहा था। दो दिन की उदासी के बाद आज चेहरे पर थोड़ी मुस्कान थी।
मैंने सोचा दो दिन से सर से उनकी तबीयत के बारे में बात भी नहीं कर पाया। अभी कॉल कर के हालचाल भी ले लूँ, मुझे क़िताब मिल जाने की जानकारी भी दे दूँ और क़िताब में मेरा उल्लेख करने के लिए उनको धन्यवाद भी प्रेषित कर दूँ। मैंने 6 बजे उनको कॉल किया। इतने वर्षों में पहली बार उनका फ़ोन उन्होंने नहीं उठाया बल्कि बेटी तबस्सुम जी ने उठाया उन्होंने बताया, “पापा की तबीयत अच्छी नहीं है, उनको साँस लेने में समस्या आ रही थी, ऑक्सीजन लेवल बहुत कम 60-70 पर आ गया था मैं उनको लेकर अपने पति के पास बुरहानपुर (बुरहानपुर, भोपाल से ट्रेन से 6 घंटे की दूरी पर है, जहां उनके पति सिविल सर्जन हैं) अभी 4 बजे आ गई हूँ। भोपाल में बेड ओर ऑक्सीजन की किल्लत थी। अभी उनका इलाज चल रहा है”। पहले तो ऑक्सीजन लेवल सुनकर मैं बहुत डरा। फिर ख़ुद पर संयम रखते हुए मैंने कहा, “चलिए, ये अच्छा है कि आप भी डॉक्टर हैं, आपके हसबैंड वहां सिविल सर्जन हैं ही, अब कोई चिंता की बात नहीं है, सब अच्छा होगा। भोपाल से अच्छा था कि आप वहां पहुंच गए। कम से कम अस्पताल की सारी सुविधाएं अच्छे से मिलेंगी और ऑक्सीजन की किल्लत तो नहीं होगी”। उनको सकारात्मक रहने और सर के कुछ ठीक होने पर मुझसे बात कराने की बात कह कर मैंने फ़ोन रख दिया। फ़ोन रखते ही अगले एक मिनट में ही मैंने सारे भगवान को याद कर लिया और सोच रहा था कि सर को क़िताब मिल जाने की बात भी नहीं बता पाया न ही उनको धन्यवाद बोल पाया। मन बेचैन था। ऐसा लग रहा था कि अब शायद 2-3 दिन के बाद ही सर से बात हो पाएगी। तभी दो घंटे बाद रात 8 बजकर 10 मिनट पर सर के नंबर से कॉल आयी। मैन उठाया तो बेटी तबस्सुम जी का ही आवाज़ थी। उन्होंने कहा, “भईया, लीजिए पापा बात करना चाहते हैं” ..मैं इसके पहले बोलूं कि अभी तो उनको आराम करना चाहिए तब तक उधर से सर की आवाज़ आयी, “मनीष”। मैंने प्रणाम करते हुए उनकी तबीयत का पूछा। उन्होंने कुछ कहा जो मुझे साफ सुनाई नहीं दिया। मुझे लगा कि उनकी साँस बहुत फूल रही है और वे हाँफ रहे हैं। आवाज़ साफ नहीं आ रही थी। वो कुछ कह रहे थे। मैंने उनको समझाने की कोशिश की कि सर आपकी तबीयत अभी ठीक नहीं है, आप बाद में बात कीजिएगा। पर वो बोले जा रहे थे। तब मैंने बात को ध्यान से सुनना ज़रूरी समझा। मैंने ईयरफ़ोन हटाकर मोबाइल को कान से चिपका लिया। ध्यान से सुनने पर सुनाई दिया, “मनीष , मेरी तबीयत ठीक नहीं है। आप यह बात व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक पर डाल दीजिए। सबको बता दीजिए कि मैं चंदेरी से भोपाल आ गया था। भोपाल में तबीयत ख़राब हो गयी फिर मैं बुरहानपुर में इलाज के लिए आ गया हूँ”। मैंने एक पल को सोचा कि ज़हीर सर जो व्हाट्सऐप और फ़ेसबुक पसंद नहीं करते थे, वहाँ मुझे ये सब पोस्ट करने के लिए क्यों कह रहे हैं?(अभी लगता है शायद उन्होंने नियति को पढ़ लिया था)। मैंने उनको समझाने की कोशिश की कि सर अगर आप वहाँ ये सूचना डलवाएंगे तो लोग परेशान होकर आपको कॉल करने लगेंगे। इससे आपको परेशानी होंगी। उन्होनें कहा ,”में कह रहा हूँ, आप सूचना पोस्ट कर दें”। मैंने उनकी इच्छा समझकर उनक़ी बात मान ली और उनसे कहा कि आप अभी आराम कीजिए, और बातें बाद में करेंगे। इस आठ मिनट की बात में इस बार भी उनको क़िताब मिल जाने की बात नहीं बता पाया न ही धन्यवाद बोल पाया।
मैंने सोचा ये सूचना रात में डालूंगा तो उनको चाहने वाले परेशान होंगे। अतः सुबह पोस्ट करने के निर्णय लिया। पोस्ट डालने से पहले मैंने उनके बेटे समीर जी को भी सुबह कॉल करके सर के तबीयत ख़राब होने की जानकारी सोशल मीडिया पर डालने की बात बताई और सर का हाल पूछा। यहाँ बताना चाहूंगा कि आंटी (सर की पत्नी) और बेटे की भी तबीयत तभी से ख़राब चल रही थी इसलिए ये दोनों लोग बुरहानपुर नहीं जाकर भोपाल में ही थे। समीर जी ने बताया, ” पापा की तबीयत क्रिटिकल है और तबस्सुम ने मुझे भी तुरंत बुरहानपुर बुलाया है। मैं निकल रहा हूँ और शाम चार बजे तक वहां पहुंच कर आपको पापा का हाल बताता हूँ”। मैंने उनको सांत्वना दिया और फ़ोन रखने के साथ व्हाट्सऎप और फ़ेसबुक पर सर की बीमारी की ख़बर डाल दी। सभी जगह उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की दुआएं आने लगीं। मन बेचैन था। दोपहर में दो बार सर को कॉल किया, दोनों बार उनका फ़ोन स्विच ऑफ था। शाम 5 बजे मैंने अपना फ़ोन उठाकर व्हाट्सऎप स्टेटस चेक किया। समीर जी का 4 बजकर 50 मिनट पर मैसेज था,”पापा नहीं रहे”..मैसेज पढ़ते ही मेरी चीख निकल गयी।15 मिनट में ख़ुद को संभालते हुए मैंने समीर जी को कॉल किया। उन्होंने बताया, “पापा का इंतकाल सुबह 9 बजकर 10 मिनट पर (मुझसे बात करने के ठीक 13 घंटे बाद) ही हो गया था पर मुझे भी अभी ही पता चला”।
इस ग़म के माहौल में समीर जी को पुनः ढांढस बंधाते हुए, ख़ुद को समझाते हुए मैंने फ़ोन रखा। आँखों के सामने अंधेरा था। विश्वास करना मुश्किल था कि जिनसे 13 घंटे पहले बात हुई हो, जिनको चार दिन पहले अपनी ग़ज़ल सुनाई हो वो अब हमारे साथ नहीं हैं। सब झूठ लग रहा था।
मैंने उचित समझ कर सोशल मीडिया पर यह दुःखद जानकारी डाल दी।
अगले दिन सुबह तबस्सुम जी ने मुझे कॉल कर 19-20 अप्रैल की रात्रि का पूरा घटनाक्रम बताया और ये भी बताया, “उन्होंने फ़ोन पर आख़िरी बार आपसे ही बात की, वो आपको बहुत स्नेह करते थे”। ये सुनते ही आँखों में बहुत मुश्किल से रोका हुआ सैलाब बह निकला।