लघुकथा
महीनों से चल रही उसकी गंभीर बीमारी के इलाज का सुखद परिणाम अब नज़र आने लगा था। पूर्णतः ठीक होने की आशा उसके मन में घर करती जा रही थी। चेहरे का खोया हुआ नूर और लुप्त होने की कगार पर पहुँची मुस्कान अब दिखने लगी थी। नीरव अब चिंताजनक स्थिति से उबर रहा था। तभी किसी परिचित ने सलाह दी कि शीशम के पत्तों का रस पियो, लाभदायी रहेगा। डूबते को तिनके का सहारा मानकर प्रतिदिन वह शीशम के पत्तों का रस पीने लगा। दवा और दुआ के साथ – साथ उसे यह भी लग रहा था कि यह रस उसके लिए महा औषधि है। धीरे धीरे सब कुछ पहले जैसा होने लगा। उसकी पत्नी निशा के चेहरे पर भी रौनक आ गई। मौत को मात देना क्या कोई छोटी बात है? नीरव का नया जीवन फिर शुरू हुआ। नौकरी आते- जाते वह शीशम के पेड़ की घनी छाँव में रुक जाता और उसके हरे- भरे पत्तों को कृतज्ञ भाव से देखता किंतु जीवन की संध्या उसके भाग्य में समय से पूर्व लिखी थी।
वह फिर बीमार रहने लगा। दूसरी ओर वह शीशम का पेड़ भी धीरे-धीरे सूखने लगा, पत्ते नदारद हो गए। वह सोचने लगा कि सूखते शीशम के पेड़ के साथ- साथ उसकी कृश काया भी सूख जाएगी। वह खुद को अंत के करीब देखने लगा। उसे लग रहा था मानो हरे-भरे शीशम के पेड़ की झूमती शाखाओं के साथ उसका जीवन भी कुछ समय लहराया परंतु अब उसकी सूखती डालियाँ और पत्तियाँ उसके अंत की ओर इशारा कर रही थीं।
नीरव अब नहीं है। उसके जाने के कुछ दिन बाद उसकी पत्नी निशा का ध्यान अचानक उस शीशम के पेड़ पर गया जिसकी पत्तियां तोड़कर वह रस निकाला करती थी और सदा उसके हरे-भरे रहने की कामना करती थी। वह कुछ देर के लिए ठहर गई। एक लंबे अरसे से दबी उसकी जबान बोल पड़ी– तुम अब तक हरे-भरे हो।