कोरोना काल ने हिन्दी सिनेमा वालों को ख़ास तौर पर कई कहानियाँ दीं। कुछ ही समय पहले गुजर चुकी इस त्रासदी ने मानव जाति को बदल कर रख दिया, ऐसा कहा जा रहा था। हालांकि चंद ही सालों में हमने इसे भुला भी दिया। पर आज चार सालों बाद भी कोई इसका जिक्र करता है तो पूरा कोरोना का समय याद आ जाता है। इस समय में आम लोगों ने जो समस्याएं झेली उन्होंने फिल्म बनाने वालों को कहानियाँ दे दीं फिल्माने के लिए।
‘कुसुम का बियाह’ भी इसी कोराेना काल से निकली एक सच्ची कहानी है। पूर्वोत्तर भारत का एक गाँव जहाँ कुसुम की शादी तय हुई है। शादी की तारीख से कुछ पहले प्रधानमंत्री ने देशभर में लॉकडाउन लगा दिया। अब जिस दिन ब्याह है उसी दिन से लॉकडाउन शुरू हुआ है। कम बारातियों के साथ शादी तो हो गई लेकिन विदाई नहीं हो पाई। झारखंड से आई यह बारात बिहार से झारखंड वापस नहीं जा सकी और एक नदी के पुल पर अटक गई।
अब क्या करेंगे बाराती? क्या होगा दूल्हा और दुल्हन के घर में? कैसे जाएगी बारात या अटकी रहेगी पुल पर लॉकडाउन खत्म होने तक? यही कहानी है इस फिल्म की। करीब एक घंटा 40 मिनट लंबी यह फिल्म कई फिल्म समारोहों में भी सराही जा चुकी है।
फिल्म में सरकारों की नाकामियां, अच्छाइयां और माओवादियों की झलक भी कहानी के रूप में देखने को मिलती है। बेहद साधारण सी फिल्म की कहानी भी साधारण सी है लेकिन कोरोना काल की असामयिक घटना, पशोपेश और उलझन में डालने वाली सत्य घटना पर बनी यह फिल्म काफी प्यारी लगती है।
हालांकि इसमें बीच-बीच में दो-एक जगह दो-एक पात्रों का अभिनय जरूर आपको अखरता है फिर बाकी सभी कलाकारों का काम आपको जरूर अच्छा लगता है।
विकास दुबे, संदीप दूबे की लिखी कहानी और पटकथा जितनी अच्छी है उतना ही इसके लिए सौरव बनर्जी का छायांकन। सबसे प्यारी कोई चीज फिल्म में है तो वह इसका संगीत जो भानू प्रताप सिंह ने दिया है और इसका साउंड शुभेंदु राज घोष के द्वारा और बैकग्राउंड स्कोर बॉब एस एन द्वारा।
एडिटर राज सिंह सिधु, कला निर्देशक उम्मत, प्रोसेंजित और कॉस्ट्यूम देबजानी घोष के साथ मिलकर कलरिंग अभिषेक मेहता ने संतोषजनक की है। आज के दौर में बेहूदा संवादों, अतिशय अश्लीलता वाली फिल्मों से दूर रहकर कुछ अच्छा देखने वालों के लायक है यह फिल्म। बाकी कचरा देखने वाले, भौंडे संगीत और कहानियों को पसंद करने वाले लोग ऐसी फ़िल्मों को देखना तो क्या उनका नाम सुनकर ही दूर भागने लगें, जो कि लाजमी भी है।
सरकारी आदेशों के बीच पिसती इस फिल्म में एक मात्र गाना जो कानों में रस घोलने और भारतीय भाषा परिषद जैसी संस्थाओं के सहयोग के साथ मिलकर निर्देशक शुभेंदु राज घोष ने दर्शकों को स्वस्थ मनोरंजन परोसा है। स्वस्थ सिनेमा के पर्याप्त मसाला से यह फिल्म देखने में मनभावन लगती है ठीक शादी-ब्याह के उस लड्डू की तरह जिसे खाने वाला भी पछता रहा है और ना खाने वाला भी।
सुजाना दार्जी, लवकेश गर्ग, राजा सरकार, सुहानी बिस्वास, प्रदीप चोपड़ा, पुण्य दर्शन गुप्ता, रोज़ी रॉय आदि के मनभावन अभिनय के साथ यू सर्टिफिकेट से पास हुई है यह फ़िल्म। इसे इसलिए भी देखना चाहिए क्योंकि ऐसे स्वस्थ मनोरंजन वाली फिल्में कब आकर चली जाती हैं आपको पता भी नहीं चलता। फिर आप शिकायतें करते रहते हैं कि “अच्छा सिनेमा नहीं बन रहा, सिनेमा वाले भांड हैं सारे के सारे।” आपका यह भ्रम भी दूर हो जाएगा।