खेती अब परती है
अब खेती क्या है
दुखों की पेटी है
देह को दुहने वाली मरखन्नी गाय है
और कोई उपाय नहीं खेती
क्या? नदी की बेटी
नहीं नहीं
खेती
अब परती है
जहां गेहूं नाम की बाली कम
कृषक की हड्डी-गुड्डी
अधिक मिलती है।
क्या?देह की बरबादी नहीं है?
तो देश के गांव गिरांव घुम देखिए
जिनकी कमाई है सलाना
मात्र तेरह से बीस हजार
उसके पासबुक में
नहीं कोई गांधी हैं
न ही अंत है कोई
पूस की रात का
सूखा और बाढ़ का
हाय और बिपत का
करजा और शुध ब्याज का
नहीं कोई अंत है
वही हल की लकड़ी है
वही खुरपी है
वही कुदाल है
और हाड़ तोड़ खटते खटते
देह हुई कृषक से कृषकाय है
न साधन है
न व्यवस्था है
यहां हर एक छोटे किसान की जान
बहुत सस्ता है
और कोई रास्ता नहीं है
क्या करें
कहां जाकर
गुलामी खटें
क्या करें
किस जन्म तक
गिरवी रखें खुद के दुख को
दिन के दो सौ पगार से भी क्या होगा
मजूर जीवन भी
न यहां का होगा
न वहां का होगा।
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बसरा की लाइब्रेरियन की तरह
बसरा की लाइब्रेरियन की तरह
मैं खेतों को बचाऊंगा
खेतों को बचाऊंगा जैसे अपने
बेटी-बेटों को बचाऊंगा
टन टन टन टन बजा बजाकर टीना
मैं खेतों को बचाऊंगा।
जब सांय सांय
झींगुर बोलेंगे रातों को
हम मिलकर लुकाड़ जलाएंगे खेतों में
जब दहाड़ दहाड़ कर
हाथी चिंघड़ेंगे
जब हमारा कलेजा धक धक धक करेगा
हम आवाज देंगे गला फाड़ फाड़ कर।
हम पहरा देंगे रात भर नदी किनार
जंगल के इस पार
हम दिन दिन भर बिजुका बनाएंगे
हम बनाकर पोस्टर खेतों में खतरा का
चिपका आएंगे
हम खोद कर मिट्टी बांस धंसा देंगे
हम तार घेरेंगे
हम नदी किनारे ढूंढा करेंगे सूखी लकड़ी
और जलावन ठंडी में आग के लिए।
जब समुंदरों में तेल, मछली और पानी के लिए छपाछप युद्ध चलेगा
यहां हल्ला हुप्पाड़ मचेगा
उसी बीच बचायेंगे हम खेत को
हम अपने हिस्से लेकर रहेंगे शब्दों के खेत
क्योंकि हमारा भी है हक
हमारा भी है पेट
श्रम के भाग में है भूख।
हम रोपकर वनफूल-पेड़
खेत बचाएंगे
हम तोड़ कर सारा गेट
खेत बचाएंगे
हम काटकर सारा मेड़
खेत बचाएंगे
खेत बचाएंगे मतलब सारा देश बचाएंगे
बचाने दो जो बचाएंगे धर्मग्रंथ लद्दाख लेह
हम नष्ट कर अपना देह
खेत बचाएंगे
हम कुदाल बचाएंगे कि आने वाली पीढ़ियां
इसी से कविता लिखती रहें और बच जाएंगे
जब खेत
वहां रोपेंगे उम्मीद नाम की फसल
बोयेंगे प्रेम बीज
उगेंगे गन्ने की आंखों की तरह
हां रोएंगे मेहनत के आंसू
लेकिन इस तरह का जीवन
हम नहीं जिएंगे।