कॉलेज के दिनों में हमारा एक मित्र किफायत उल्ला अंसारी जब ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल’ गाकर अव्वल आ जाया करता था तो मुझे लगता था कि यह 2 अक्टूबर गांधी जयंती के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम का एक गीत मात्र है जिसे लिखने वाले का हमें पता ही नहीं था। पर एक दिन ऐसा भी आया कि गीत के रचयिता, महाकवि प्रदीप के घर में उनका सशर्त साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त हुआ। कवि प्रदीप ने कहा, “पुष्पा भारती जी मेरा इंटरव्यू लेने वाली हैं। पहले उनका लेख छपेगा फिर आपका।” मैंने कहा, “तो फिर मैं इंटरव्यू बाद में कर लेता हूँ, बस चाय पी कर चला जाऊंगा।” दरअसल कवि प्रदीप के घर पर बनी चाय का आनंद तो सुर सामग्री लता मंगेशकर ने भी लिया है। कवि प्रदीप ने लता जी से कहा, “एक बार अगर आपने मेरी पत्नी भद्रा जी के हाथों की चाय पी ली तो आप दोबारा भी चाय पीकर जाएंगी।” लता जी ने उसी दिन दोबारा चाय पी कर इस बात पर मुहर लगा दी कि भद्रा जी जैसी चाय कोई बना ही नहीं सकता।
मुद्दा चाय का नहीं है, मुद्दा है उस समर्पण का जो कवि प्रदीप के जीवन काल तक उनकी शक्ति बनकर कदम बा कदम उनके साथ खड़ा रहा। भद्रा जी के हाथ का बना खाना श्रेष्ठ गायिका आशा जी को बहुत पसंद रहा है, जब भी आतीं भोजन जरूर करतीं। यह था उनका भद्रा जी के प्रति असीमित प्यार का छोटा सा उदाहरण।
भद्रा जी सुशिक्षित तो थीं ही, गुणवान भी बहुत थीं। एक तरफ लाठी चलाने में निपुण, दूसरी कूची चलाने में भी महारत हासिल। रोज शाम को डायरी लेकर पूरी दिनचर्या की विस्तृत जानकारी लिखना और फिर कूची लेकर पेपर हो या कपड़ा हो उस पर पेंटिंग करना, उनका शौक से कहीं ज्यादा जुनून बन चुका था। अद्भुत बात तो यह है कि पेंटिंग की इस कला को उनके बाद उनकी बेटी मितुल प्रदीप ने भी विरासत के तौर पर जारी रखा।
मितुल ने बताया कि लता जी जब पहली बार घर पर आईं तो वह भद्रा जी के लिए, दो शानदार साड़ी लेकर आईं। आज भी वह साड़ी बहुत संभाल कर मितुल जी ने रखी है और कभी- कभी उसे पहनकर बहुत गर्व महसूस करती हैं। अमानत को सहेजकर रखना, उनके स्वभाव में तो है ही, यह उनका आदर प्रकट करने का तरीका भी है।
यह वह दौर था जब किसी गीतकार के घर म्यूजिक की सिटिंग पर म्यूजिक डायरेक्टर से लेकर गायक, हीरो, हीरोइन सभी लोग बेझिझक आया जाया करते थे। कवि प्रदीप के घर पर मोहम्मद रफी का अक्सर आना-जाना होता था। दिलीप कुमार वैजयंती माला सभी लोग आ जाया करते थे। इन सारे लोगों की देख रेख और तीमारदारी में भद्रा जी तन्मयता के साथ जुटी रहती थीं। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह कभी भी फिल्मी कार्यक्रम या प्रीमियर हो, तो उससे स्वयं को तथा पूरे परिवार को बहुत दूर रखती थीं। यहां तक कि जब कवि प्रदीप दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू के साथ कार्यक्रम में शामिल हुए, तब भी वह दिल्ली नहीं गई। बच्चों को भी कार्यक्रम में जाने की मनाही थी। फिल्मी चकाचौंध से हमेशा घर परिवार को अलग ही रखा। यही कारण है कि उनके नातेदार रिश्तेदार जब कभी भी फिल्मों के प्रीमियर पर जाने के लिए पास मांगते थे, तो वह मना कर देती थीं। सादगी की ऐसी मिसाल आपको कहीं सुनने को नहीं मिलेगी।
मितुल जी से जब मैंने प्रदीप जी और भद्रा जी के संघर्षों और विवाह के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़े सहज भाव से बताया कि पिताजी को हिमांशु राय की बांबे टाकीज से 200 रुपए मिलते थे, जो उस समय की एक बड़ी रकम हुआ करती थी। रहने के लिए उन्होंने पार्ले वेस्ट में एक मकान ढूंढ़ लिया था। दरअसल यह दो मंजिला मकान था। मकान मालिक गुजराती थे। उन्होंने एक दिन प्रदीप जी से पूछा कि आप मध्यप्रदेश के हिंदीभाषी ब्राम्हण है और मैं गुजरात का ब्राम्हण। मेरी बेटी अगर आप को पसंद हो तो…
बस बात बन गई। विवाह हो गया। नीचे ससुराल ऊपर जंवाई बाबू का घर।
बेटी दोनों जगह आबाद कर गई। यह था भद्रा जी की मुस्कराहट का कमाल। विवाह अरेंज था पर गृहस्थी में प्रेम का सैलाब जीवन पर्यन्त रहा।
कवि प्रदीप के न रहने पर भद्रा जी ने अपने जीवन में निराशा रूपी अंधेरा नहीं होने दिया। स्वयं को रंगों के हवाले कर दिया।कभी भी अकेलापन महसूस नहीं किया। जब भी तनहाई महसूस करतीं, कूची लेकर जुट पड़ती थीं, पन्ने को रंगने के लिए और शानदार कला चित्र बना देती थीं।
भद्रा, प्रदीप का शताब्दी वर्ष मना रही हैं उनकी बेटी मितुल प्रदीप, बहुत सारे बच्चों को पेंटिग सिखाकर। कवि प्रदीप को तो पूरा देश जानता है पर कम लोग जानते हैं कि उनके व्यक्तित्व को संवारने में भद्रा जी का भी योगदान रहा है। फिल्मी वातावरण में रहकर भी स्वयं को संयमित रखने का हुनर, आज के बच्चों को सीख देगी यही उम्मीद।