उसका असली नाम शायद ही कोई जानता हो। पूरा गाँव उसे कनखजूरे के नाम से ही बुलाता था। लम्बे-लम्बे उलझे बालों को खुजलाते हुए वो अक्सर कानों में उंगली डालता रहता। शायद उसकी इसी आदत के कारण उसका नाम कनखजूरा पड़ गया था। मैली सी टी-शर्ट, ढीला-ढाला बरमूडा, हवाई चप्पल, पहने गलियों को अपनी छलांगों से नापता हुआ वो अक्सर ही दिख जाता। लम्बा कद, गेहूंआ रंग, बङ़ी बङ़ी गोल आंखें, थोङे आगे की ओर निकले हुए दांत, छोटी छोटी मूंछों वाला गबरु जवान था पर तीस- पैंतीस की उम्र में भी बच्चों सा व्यवहार था उसका। गांव के बाहर हनुमान मंदिर में स्थाई, रूप से रहता था । बरसों से वहीं रहता था। कब, कहां से आया कोई नहीं जानता। पंडित जी भी कहते हैं कोई आठ-दस साल का था जब यहां आया, कई दिनों तक मां-बाप की खोज चलती रही पर जब नहीं मिले तो मंदिर ही आसरा बन गया उसका। खाना, कपड़ा गांव में कहीं से किसी के घर से मिल ही जाता था।
किसी के भी घर कोई काम हो रोटी सट्टे मजदूर बन जाता था कनखजूरा…., कपड़े भी ही मिल जाते कहीं न कहीं से, बस नहीं मिलता तो वो था प्यार….। बिना मां बाप का बच्चा झिड़कियां खाते ही बड़ा हुआ था वो। अब तो उसकी आदत में शुमार हो गया था। एक कान से सुनता, दूसरे से निकाल देता…. कोई कितना भी झिड़क दे, डांट डपट दे, वो हँसकर ही बोलता था। कभी-कभी जब पेट नहीं भरता तो पंडित जी दया से या प्यार से जो कुछ भी कह लो पर वे पेट भर देते उसका। मंदिर की साफ-सफाई वो अपना धर्म समझता था सो बिना नागा किए दोनों बखत कर ही देता था। कोई भी काम हो पंडित जी की एक आवाज पर हाजिर हो जाता।
लोग उसे आधा पागल समझते थे और अक्सर उसको बेवजह की छेड़छाड़ का सामना करना पङ़ता। वो गुस्सा करता और लोग ठहाके लगाते, वो मारने के लिए दौड़ता और लोग उसे एक टॉफी पकड़ा देते। टॉफी पकड़ते ही उसका गुस्सा काफूर हो जाता। मीठा उसकी कमजोरी थी। शादी, सगाई या फिर किसी भी समारोह में सिर्फ मिठाई के लालच में हाड़ तोड़ काम करता देखा जा सकता था। दादी तो अक्सर उसके लिए मिठाई संभाल के रखती थी। जब आता तो पहले डबल चीनी वाली चाय पिलाती जिसे वो सुड़क-सुड़क कर एक अजीब सी आवाज के साथ पीता, दूसरी फिर मांगता और दूसरी चाय पीकर ही काम पर लगता। दादी कहती – लौटा भर चाय पीकर ही काम पे लगता भुख्खड़…पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था। चाय में उसकी जान बसती थी। चाय के बाद दादी जाने क्या-क्या काम करवाती। मसलन गायों के खूर काटना, बरसात के मौसम में घास को खूले से हटाकर बाड़े वाले कमरे में डालना, खेजड़े से सांगरी तोड़ना, फिर उसे मोटी-महीन के क्रम से छांटना, लकड़ियों के भारे बनाना जाने कितने ऐसे उबाऊ और मेहनत वाले काम थे जिनको कनखजूरा बिना ना-नुकर किए मिठाई के लालच में निपटा जाता।
कभी-कभी दादी को लाड आ जाता कनखजूरे पर….तब समझती- “थोड़े लखन सुधार तेरे कनखजूरे….कब तक लोगों की दया पर जीता रहेगा…..हट्टा-कट्टा नौजवान है…. पैंतीस का हो गया पर चार पैसे नहीं हैं तेरे पास में…..काम के बदले पैसे लिया कर…. ऐसे आवारा घूमेगा तो कौन लड़की शादी करेंगी तेरे साथ…. कैसे घर बसेगा तेरा….”।इस पर कनखजूरा ठठा कर दादी के गले में बाहें डाल कर हंसता…. पैसे….कौन देगा मुझे पैसे….तू देगी दादी….चल आज से ही शुरू करते हैं। कितना काम किया आज मैनें। तेरी लकड़ियों को तोड़ा….घर के पिछवाड़े की पूरी घास खोदी….. बरसात में चूने वाली छत की दरारों में सीमेंट भरी….आज के कितने पैसे हुए दादी….चल निकाल ना दादी…. कहते हुए अपनी हथेली आगे कर देता….।
चल हट करमजले….., मेरी बिल्ली मुझे ही म्याऊं…. पैसे लेगा मुझसे…. बड़ा आया पैसे लेने वाला….यूं तो दादी-दादी करेगा और जरा सा काम किया नहीं कि पैसे मांगने लगा….. बदमाश कहीं का….चल बाजार….आज तुझे जलेबी-समोसा खिलाती हूं…. कहते हुए दादी अपनी कमर पर पैसों की पोटली खोंस लेती।
मेरे बहाने तू भी तो खाएगी मेरी प्यारी चटोरी दादी….कहते हुए जोर से हंसकर दांत निपोरने लगता वो और दादी मुस्करा कर उसके कान मरोड़ते हुए उसे आंगन से बाहर का रास्ता दिखाती।
कनखजूरा और दादी दोनों में गजब की घुटती थी। पूरे गाँव की खबरें दादी को बताने के बाद ही उसका पेट दर्द ठीक होता और दादी के कानों को भी तृप्ति मिल जाती।
एक अजीब सी आदत थी उसकी। कोई भी आते-जाते एक पत्थर उठाता और ये कहकर किसी भी जगह रख देता और कहता – देख कनखजूरे तेरी बीबी के सर पर पत्थर….बस इतना सुनते ही कनखजूरे के पांवों में पहिए लग जाते थे, भागकर जाता और पत्थर को उठाकर फेंकता, एक के बाद एक…. ऐसा कई बार होता पर कनखजूरा नहीं थकता…. उसकी शादी भी नहीं हुई पर जाने कौन सी ग्रंथि थी उसके मन में कि बीबी के काल्पनिक सर पर रखा गया हर पत्थर फेंकने के बाद ही उसे चैन मिलता था। ये क्रम दिन में कई-कई बार होता….कनखजूरे की इस गतिविधि पर लोगों को हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाते…. लोगों के लिए मुफ्त के मनोरंजन का साधन था वो।
दिन,महीने, साल बीतने के साथ बच्चे जवान हो गये, लड़कियां ससुराल चली गई, लड़के पढ़-लिख कर कमाने….पर कनखजूरा वैसा का वैसा ही रहा। न मोटा हुआ न पतला….न बाल उड़े न दांत गिरे…. इतना मीठा खाने के बाद भी शुगर….कोलेस्ट्रॉल….वीपी जैसी कोई बीमारी नहीं…. वही बात-बात पर हंसना …..सबका काम करना….मुफ्त का मनोरंजन करना…..ढीठ बनकर मिठाई की मांगना…..किसी बच्चे जैसा निश्छल मन और जीवन उसका….।
पर आज अचानक जो सुना तो सुनकर समझ नहीं आया कि ये कनखजूरे का कौन सा रूप है। दादी ने बताया – चार दिन पहले कनखजूरा हमेशा की तरह मंदिर में सो रहा था। अचानक किसी चीख से उसकी नींद खुली, भागकर देखा तो मंदिर के पीछे की झाड़ियों में तीन-चार लड़को ने एक लड़की को बुरी तरह जकड़ रखा था। लड़की उनकी गिरफ्त से निकलने की असफल कोशिश कर रही थी पर लड़कों की बलवान भुजाओं से निकल नहीं पा रही थी। लड़की के कपड़े आधे से ज्यादा फट चुके थे।कनखजूरे ने देखा तो चिल्लाया- “छोड़ दो इसे, वर्ना मैं शोर मचा दूंगा….”।
“अच्छा…. शोर मचाएगा….मचा के देख….हम भी तो देखें कौन आता है तेरी आवाज पर…. आस-पास कौनसी बस्ती है कि लोग चले आएंगे…. वाह कनखजूरे वाह….आ जा , आज तुझे भी जन्नत की सैर करवाते हैं…. हमारे बाद तुम मजे कर लेना इस हूर के साथ.. तू भी क्या याद रखेगा….” कहते हुए एक लड़के ने शराब की बोतल कनखजूरे की ओर बढ़ाई।
“भाग जाओ तुम लोग, वर्ना….”कनखजूरा दहाड़ा।
“वर्ना क्या कर लेगा बे…. ” कहते हुए दूसरे ने धक्का दे दिया।
पता नहीं ये कौन सा अवतार था कनखजूरे का उसने पास ही पड़ी मिट्टी खोदने की कुदाली उठाई और लड़के के सर पर दे मारी। लड़के के सर पर लगते-लगते रह गई। अब तक मसखरी करने वाले लड़के अचानक आए इस तूफान सकपका गये। पर संभलते ही एकजुट होकर कनखजूरे पर टूट पङ़े। कनखजूरे को काफी चोट आई पर उसने अपनी जान की परवाह नहीं की और लड़कों को खदेड़ दिया। रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। लड़की को साथ लेकर कनखजूरा सीधा पंडित जी के घर पहूंचा। सारी घटना सुनकर पंडित जी भी हतप्रभ रह गए। सुबह होते-होते बात जंगल में आग की तरह पूरे गांव में फ़ैल गई। लड़की के घर वाले अपनी विधवा बेटी को लेने के लिए आये तो उसने साफ इंकार कर दिया। कहा – इस लड़के ने मेरी इज्जत बचाई है मैं इसके साथ शादी करना चाहती हूं। सभी ने समझाया इस पागल के साथ तुझे क्या सुख मिलेगा….? पर लड़की नहीं मानी तो पंडित जी ने इसे ईश्वर की मर्जी कहकर दोनों का रिश्ता पक्का कर दिया और कल कनखजूरे की शादी उसी विधवा लड़की के साथ हो गई। दादी बता रही थी- “जानती हो जानवी , इसी को कहते हैं “दोनों घर बधावणा” विधवा का जीवन भी संवर जाएगा और कनखजूरे का घर भी बस जाएगा। पूरा गाँव शामिल हुआ उसके विवाह में और इतने उपहार आये कि कनखजूरे का पूरा घर भर गया”।
“घर….पर घर कहां था उसके पास” मैंने प्रश्न किया।
“अरे पंडित जी ने मंदिर के पीछे बना कमरा और रसोई उसके नाम कर दी और ये घोषणा भी की कि मंदिर में आने वाली चढ़ावे की राशि पर सिर्फ कनखजूरे का अधिकार होगा”। उन्होंने कहा- “मेरा घर तो पूजा-पाठ, हवन , यजमानों की दया दृष्टि, दक्षिणा से आराम से चल जाएगा पर कनखजूरे की व्यवस्था करना जरूरी है”।
“अच्छा… दूसरों की दया पर जीने वाला आपका कानखजूरा तो रातों रात लखपति हो गया” मैंने दादी की चुटकी ली।
“हां मेरी लाडो , भगवान के घर देर है अंधेर नहीं….” कहते-कहते दादी सुबक पड़ी थी। मैं समझ सकती थी कि ये दादी के खुशी के आँसू हैं।
” अरे हां, वो जो बीवी के सर से पत्थर उठाता उसका क्या हुआ” मैंने अतीत को याद करते हुए शरारत से पूछा।
“चल हट ,करमजली…. मैं ही मिली तुझे मसखरी के लिए….अब कनखजूरे के अच्छे दिन आये हैं। अब बीबी है उसके साथ वो क्यों पत्थर उठाने लगा। जल्दी ही बाल बच्चों वाला हो जायेगा मेरा बच्चा….। भगवान उसे सब सुख दे…. ” दादी की आवाज में अनजानी खुशी थी जो मुझे उसके अंतर्मन से आती प्रतीत हो रही थी।
” फिर तो मुझे तेरे कनखजूरा से मिलने आना पड़ेगा दादी” ।
“कब आ रही है ,मरजाणी …. इसी बहाने अपनी बूढ़ी दादी से भी मिल लेना” दादी ने चहक कर कहा।
बहुत जल्दी दादी, कहते हुए मैंने फोन रख दिया और गाँव जाने की तारीख पर विचार करने लगी।