कलाकार: पंकज त्रिपाठी, एम मोनल गुज्जर, मीता वशिष्ठ, नेहा चौहान, संदीपा धर, ब्रिजेंद्र काला और सतीश कौशिक
पटकथा और संवाद: इम्तियाज हुसैन
निर्देशक: सतीश कौशिक
रेटिंग: 4 स्टार
फ़िल्म की शुरुआत और अंत काग़ज़ फ़िल्म के मूल भावों को समेटती हुई कविता या कहें पंक्तियों से होती हैं। जिन्हें हम सलमान खान की आवाज़ में सुनते हैं और वे पंक्तियाँ हैं- कुछ नहीं है मगर है सबकुछ भी। क्या अजब चीज है ये काग़ज़, बारिशों में है नाव काग़ज़ की। सर्दियों में अलाव काग़ज़ की। आसमां में पतंग काग़ज़ की। सारी दुनिया में जंग काग़ज़ की। काग़ज़ कभी अख़बार कभी खत काग़ज़। रोजमर्रा की ज़रूरत काग़ज़। आने-जाने की सहूलत काग़ज़। जीने मरने की इजाज़त काग़ज़, प्यार की चिठ्ठियाँ भी काग़ज़ की। काम की अर्जियाँ भी काग़ज़ की।
ख़ैर काग़ज़ पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी कुछ कुछ मुसद्दीलाल जैसी ही है। लेकिन इसके बावजूद इसमें काफी कुछ अंतर-जंतर है।
कहानी है उत्तरप्रदेश के भरत लाल की। असल मायने में इस फ़िल्म की कहानी सत्य घटना से प्रेरित है, जिसके बारे में आप गूगल कर सकते हैं। फ़िल्म की कहानी यह है कि भरत लाल जो बैंड बाजा बजाता है। उसकी एक छोटी-सी दुकान है। एक दिन उसकी पत्नी दुकान बड़ी करने के लिए पंडित जी की सलाह मानकर अपने पति से कहती है कि वह लोन लेकर दुकान बड़ी कर ले। आराम से अपना जीवन बसर कर रहे भरत लाल को जब पत्नी की बात के आगे झुकना पड़ता है तो उसे लोन लेने के लिए ज़मीन, जायदाद के काग़ज़ों की आवश्यकता पड़ती है। वह लेने के लिए वो अपने भाईयों के पास जाता है वहां जाकर उसे पता चलता है कि वह तो दस साल पहले ही कागजों में मृतक घोषित कर दिया गया है। अब भला मरे हुए आदमी को लोन कहाँ से मिले? इसके बाद शुरू होता है संघर्ष। वह पहले तो चिठ्ठियां लिखता है। नीचे से लेकर सिस्टम में ऊपर बैठे प्रधानमंत्री तक। लेकिन उसकी कोई सुनवाई नहीं होती। हर कोई उसे लेखपाल के पास जाने के लिए कहता है। हार कर वह एम एल ए बनी मीता वशिष्ठ के पास जाता है। इसके बाद उसके अखबारों में चित्र और कहानियाँ छपने लगती है। संघर्ष से उपजी यह कहानी उसे अपने मुक़ाम तक पहुंचाने में कामयाब हो ही जाती है।
फ़िल्म काफी अच्छी बनी है। कहानी, सिनेमेटोग्राफी, अभिनय सब उत्तम दर्जे का है। लेकिन एक लॉजिक समझ नहीं आता कि जब वह भृष्टाचार की तख्ती लेकर बैठता है जिस पर लिखा है मैं जिंदा हूँ तो उसके बाद अखबार में उसकी वही फोटो छपने के बाद जब इसे छापने वाली पत्रकार उससे मिलने आती है तो वह डरकर भागता क्यों है?
सत्य घटना से प्रेरित इस कहानी के असल नायक ने अठ्ठारह साल लम्बा संघर्ष किया था। इस फ़िल्म की कहानी 1977 से शुरू होती है। जब देश में आपातकाल था। आज बीस हजार से ज्यादा लोग मृतक संघ के साथ जुड़े हुए हैं। जो अपने हक और अपने लिए न्याय मांग रहे हैं। हालांकि लाल बिहारी जिसने यह संघर्ष किया था उसे 25 करोड़ का अनुदान या कहें मुआवजा भी सरकार द्वारा दिया गया था खबरों की माने तो। आज वे उन रुपए से स्कूल भी चला रहे हैं। अच्छा है पैडमैन जैसी फिल्मों के बाद इस तरह की सच्ची घटनाओं और संघर्षों से उपजी कहानियां फिल्मी पर्दे पर आती रहनी चाहिए। जिससे देश और समाज को सीख मिलती रहे।
ये कहानी है एक कॉमन मैन की। सिनेमा से कॉमन मैन आज हाशिये पर पहुंचा दिया गया है। लेकिन इस तरह बीच-बीच में आने वाली फिल्में हमें और सिनेमा को जिंदा बनाए रखने में कामयाब है। फिल्म में बयां की गई कहानी के असली किरदार लाल बिहारी ‘मृतक’ तथा उनके साथी मित्रों के साथ बैठकर की गई हफ्तों की शोध का असर फिल्म की बुनावट और बनावट पर साफ दिखाई पड़ता है। कुछ संवाद फिल्म के आखिर तक कानों में गूंजते रह जाते हैं, ‘कर्ज लेना कुत्ता पालने जैसा है। रोज रोटी देना पड़ता है। रोज उसका भौंकना सुनना पड़ता है और कभी कभी रोटी न दो तो वह काटने भी दौड़ता है।’ या फिर ‘ अरे रुक्मिणी तुम्हारी आँखों का फिक्स्ड डिपॉजिट बहुत है। नहीं चाहिए हमको कर्ज़ा।’
फिल्म देखते हुए कई बार आँखें भी भर आती हैं। एक सीन तो कलेजा तक चीर जाता है जिसमें उसकी पत्नी मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र लटकाए विधवा पेंशन फॉर्म भरने पहुंच जाती है। पत्नी के किरदार में मोनल ने उम्दा अभिनय किया है। साथ ही नेहा चौहान, मीता वशिष्ठ और ब्रिजेंद्र काला ने भी खूब साथ दिया है। बाकी पंकज त्रिपाठी का तो नाम ही काफी है। वे हर फिल्म में अपने किरदार को जीते नजर आते हैं वही इस फ़िल्म में भी उन्होंने किया है। हां, संदीपा धर की एक्टिंग और उनका कथित आइटम गाना फिल्म में नहीं होता तो भी चल जाता।
इस फ़िल्म को देखते हुए किसी की लिखी पंक्ति याद आती है कि जिंदा हो तो जिंदा नज़र आना भी जरूरी है।