विजया की जिंदगी अचानक से एक अप्रत्याशित मोड़ पर आकर ठहर गई। पति की असामयिक मृत्यु से उसकी हंसती खेलती जिंदगी पल में उजड़ गई। वो सिंगल पेरेंट्स की पंक्ति में आ खड़ी हुई। पति के स्वर्ग सिधारते ही विजया सबके लिए सबला से अबला दिखने लगी। विजया का क्या होगा, बेटी को कैसे पालेगी! घर आये सभी रिश्तेदारों के मुंह पर यही शब्द थे।
पति की दिवंगत आत्मा की शांति के लिए मरण संस्कार की सभी रस्में रिश्तेदारों की मदद से पूर्ण हो गईं। एक एक करके सभी रिश्तेदार जाने लगे। भाई भाभी,जेठ जेठानी सबने विदा होते समय अफसोस जताते हुए कहा, “हमें अफसोस है केदार यूँ अचानक चला गया। चिंता की बात यह है कि तू कैसे जियेगी? पहाड़ सी जिंदगी अकेले कैसे कटेगी?” संबल और मनोबल देने की बजाय वे सभी हमदर्दी जताते हुए भविष्य की आशंकाओं को गिना कर चले गए। बेचारगी का तमगा पहना दिया। हौसला नहीं दिया। किसी ने यह नहीं कहा, “विजया घबराने की कोई बात नहीं है। तू उसी तरह से अपना व बेटी का ख्याल रख, जैसे केदार के रहते रखती थी। हम तेरे साथ हैं। तेरे जैसी बहुत सी औरतें हैं जो अकेले रह रही हैं।”
सामाजिक विधान को पालते हुए विजया एक माह बाद घर से निकली। आस पड़ोस वाले उसे सहानुभूति भरी नजरों से घूरते नजर आए। दबी जुबान से सब यही कह रहे थे, “बेचारी का क्या होगा?” विजया चौतरफ़ा मिली बेचारगी से खिन्न हो कर सोचने लगी। काश! कोई तो हो जो उसे हिम्मत दिलाये और कहे विजया, जीवन का नाम ही संघर्ष है। तुझे ये संग्राम हिम्मत से लड़ना है। एक मां के रूप में तेरी परीक्षा की घड़ियां शुरू हो गई हैं। हिम्मत पूर्वक पालन कर। तू कर सकती है ।
वह मायूस थी। आखिर कोई उसे हिम्मत क्यों नहीं दिलाता। उसे देखते ही क्यों सब निर्जीव चेहरे बना लेते हैं। बेटी को पिता की कमी का ताना देते हैं, “बेचारी बिना बाप की हो गई। अब क्या होगा?”वह जितना पति को खोने के गम से बाहर आना चाहती थी। पास- परिवेश उसे दर्द भरी बातों से खिन्न कर देता। वह इस मायूसी भरे माहौल से अपनी बेटी को ऐसी दुनिया में ले जाना चाहती थी, जहां उसे बेचारगी और सहानुभूति भरी नजरों का सामना न करना पड़े। बेटी को एक सशक्त इंसान बनाना चाहती थी। एक ऐसी जगह जहां खुशनुमा माहौल मिल सके। उसने निश्चय कर लिया था कि वह इस शहर को छोड़ कर कहीं दूर चली जायेगी। बेटी के साथ अपनी एक नई दुनिया बसाएगी।
विजया ने दस वर्षीय बेटी को अपना निर्णय सुनाया। बेटी ने पूछा, “मां हम दूसरे शहर क्यों जा रहे हैं?””बेटे, इस शहर में मित्र, रिश्तेदार सभी सहानुभूति जता कर हमें भावनात्मक रूप से कमजोर बनाते रहेंगे। दूसरे शहर में हम लोगों के लिए अनजान होंगे। वहां कोई हमारे कल को कुरेद कर निराश नहीं करेगा। लोग हमें हमारे आज में स्वीकार कर लेंगे।” विजया ने कहा। एक बारगी बेटी को अपने दोस्तों से बिछुड़ने का दुख हुआ था, किंतु दूसरे ही पल बेटी ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, “ठीक है मां! हम जायेंगे। मैं वहां नये दोस्त बना लूंगी।”
विजया की शादी मात्र बाईस बरस की उम्र में हो गई थी। केदार उसे देखने आये। दोनों की हां हुई, धूमधाम से शादी हो गई। दो साल बाद बेटी अनन्या आ गई। वह स्कूल जाने लगी। इस दौरान विजया ने हिंदी से एम.ए. कर लिया। अध्यापन के अवसर भी मिलने लगे थे। अब नौकरी का समय आ गया था। शिक्षिका के लिए आवेदन भरने लगी। किस्मत से पुणे में लड़कियों के स्कूल में उसे नौकरी मिल गई। रहने के लिए कैम्पस में घर भी मिल गया। अगली सुबह विजया एक नई दुनिया के नये सफर के लिए एक नई सशक्त मां बनकर बेटी का हाथ थामे चल पड़ी।