कभी सोचा न था कि आदरणीय ज़हीर कुरेशी सर के साथ बिताए हुए सुन्दर लम्हें और उनसे जुड़ी तमाम बातें इतनी जल्दी मुझे “संस्मरण” के रूप में लिखनी पड़ेंगी। आज ज़हीर सर हमारे बीच नहीं हैं, पर मेरा मन इस कटु सत्य को मानने को तैयार नहीं हो रहा है। जिनसे एवरेज दिन में दो बार बात होती हो, अगर किसी बार बात करने में दो दिन का गैप हो जाय तो जिनका कॉल ये कहते हुए आ जाये, “कहाँ हो मनीष, बहुत दिनों से बात ही नहीं हुई” ऐसे मुझे स्नेह देने वाले एक बेमिसाल शख़्सियत का साथ छोड़ जाना साहित्य और साहित्य जगत के लिए भारी नुक़सान तो है ही, साथ ही मेरी व्यक्तिगत हार है, हानि है। अभी भी लगता है, ज़हीर सर को कॉल कर लूं, कुछ दिनों से बात नहीं हुई। अभी भी मेरा मोबाइल बजता है तो जैसे लगता है उसके स्क्रीन पर डिस्प्ले होगा – “ज़हीर कुरेशी सर”..उनका यह स्नेह अंत तक मेरे साथ था। उनकी बेटी डॉ तबस्सुम ने उनके इंतकाल के अगले दिन मुझे बताया, “उनकी मोबाइल पर अंतिम बात आपसे ही रात 8 बजे हुई…
ज़हीर सर से मेरी पहली मुलाक़ात से लेकर उनके अंतिम दिनों को मैं “संस्मरण” के रूप में लिखता रहूँगा ताकि आप सब भी उनके सादगी भरे व्यक्तित्व को और अच्छे से जान सकें ..
संस्मरण – 1
—————
बात 15 जनवरी , 2016, दिन शुक्रवार की है जब मेरे ग़ज़ल के पहले गुरू और हिंदी ग़ज़ल के उस्ताद शायर जनाब मेयार सनेही साहब जो मेरे गृह नगर बनारस उर्फ़ वाराणसी उर्फ़ काशी में ही रहते थे (जिनका इंतकाल भी इसी वर्ष 15 जनवरी को ही 86 वर्ष में हुआ ) ने मुझे कॉल करके बताया कि ज़हीर कुरेशी साहब नौकरी से रिटायर हो गए हैं और ग्वालियर से भोपाल शिफ़्ट हो गए हैं और उनका मोबाइल नंबर दिया। साथ ही कहा कि उनसे बात करके, मेरा संदर्भ देते हुए जाकर उनसे मिल लें। मैं ज़हीर साहब को हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में ‘एक बहुत बड़ा नाम’ के तौर पर जानता था। उनके कुछ किस्से मेयार साहब ने बताये थे, कुछ मैंने अलग-अलग पत्रिकाओं में पढ़े थे।
मैं मेयार साहब का बहुत ही प्रिय विद्यार्थी था फिर भी ज़हीर सर को फ़ोन करने में कुछ डर लग रहा था कि मालूम नहीं वो कैसा रिस्पांस दें, मन में कुछ संकोच भी था। फिर भी उनको तुरंत कॉल कर ही लिया। उनके “हैलो” बोलते ही मैंने लगभग घबराते हुए, मेयार साहब का संदर्भ देते हुए अपना परिचय दे डाला। मेयार साहब का नाम सुनकर ज़हीर सर बहुत ख़ुश हुए। उनका कुशल क्षेम पूछा। उनकी सादगी का मैं एक पल में ही कायल हो गया जब उन्होंने मुझे स्वयं ही अपने घर आमंत्रित कर लिया। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। पुराने भोपाल में रेलवे स्टेशन के बहुत पास में ही त्रिलोचन टावर में आपका फ्लैट था। उनसे समय तय कर मैं अगले दिन, 16 जनवरी, शनिवार को ही उनके घर पहुंच गया। मेरे कॉलबेल बजाते ही दरवाज़ा खुला और दरवाज़ा खुलते ही उन्होंने कहा, “आइए मनीष”। जैसे वो मुझे बहुत पहले से जानते हों। मैंने उनके चरण स्पर्श किये और आदेश मिलते ही सोफे पर बैठ गया। घर में ज़हीर सर और उनकी पत्नी, जिनको मैंने “आँटी” कहना ज़्यादा उचित समझा, ही मुझे दिखे।
मैंने पहली बार देखा और जाना कि ज़हीर सर को बचपन से ही एक पैर में पोलियो की समस्या है। मुझे इस बात ने भी बहुत प्रभावित किया कि उन्होंने इस समस्या को कभी भी अपने जीवन में बाधा नहीं माना। वो अपना व्यक्तिगत और घर का सारा काम स्वयं ही करते थे। बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाई। बेटा, समीर एक आर्किटेक्ट इंजीनियर हैं वहीं बेटी, तबस्सुम, एक डॉक्टर, दामाद भी डॉक्टर। पहली मुलाक़ात में ही हमनें कई विषय पर बातें कीं, मसलन, घर-परिवार, ग़ज़ल लिखने में समस्याएं, मेयार साहब में बारे में, ज़हीर सर की साहित्यिक यात्रा आदि-आदि। इस बीच आँटी ने चाय-नाश्ता कराया और साथ मे बैठकर वो भी बातें करती रहीं। उन्होंने मेरी एक-दो ग़ज़लें भी सुनीं और अपनी सुनाईं भी। मेरी इस ग़ज़ल के मतले पर उन्होंने दिल खोलकर तारीफ़ की-
“अक़ल की जब भी सुनता हूँ, मेरा दिल रूठ जाता है,
लिखूँ जो हू-ब-हू अहसास, मीटर छूट जाता है”
और कहा कि ये शे’र तो दुनिया के हर शायर पर लागू होता है। ज़हीर सर की सादगी का आलम इतना कि पहली मुलाक़ात में ही उन्होंने कहा कि “आप अपनी साठ-सत्तर ग़ज़लों की पांडुलिपि मुझे दीजिये, मैं उनको दुरुस्त करने की कोशिश करूंगा”। मैंने उनको आदर पूर्वक कहा, ” सर, मैं आपके संग कुछ समय बिताऊंगा तो आपसे सीखकर स्वयं ही अपनी ग़ज़लों को दुरुस्त कर लूँगा, आपको परेशान नहीं करना चाहता”। दरअसल ज़्यादातर लोग उनके पास इसी काम के लिए जाते थे और वो बड़े भोलेपन से उनकी ग़ज़लों को दुरुस्त कर दिया करते थे। उनको मेरा ये आदर पूर्वक मना करना शायद अच्छा लगा। इन सब चर्चाओं के दौरान क़रीब तीन घंटे का समय कब बीत गया, मुझे पता ही नहीं चला। निकलते-निकलते उन्होंने मुझे अपनी पुस्तक “ज़हीर कुरेशी : महत्व और मूल्यांकन, जिसका संपादन श्री विनय ने किया है, भेंट स्वरूप दिया।
हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर बैठे व्यक्ति का एक अदने से ग़ज़लगो को उनके स्वयं के द्वारा एवं आँटी द्वारा इतना स्नेह मिलना, वो भी पहली मुलाक़ात में, मुझे अचंभित भी कर रहा था और मुझे बहुत कुछ सिखा भी रहा था। ये कहावत जो मैं जो बचपन से पढ़ता आया हूँ कि जिस पेड़ में जितने फल लगे होते हैं वो उतना ही झुका होता है, आज उसको चरितार्थ होते देख रहा था।
*******************
संस्मरण -2
अगस्त, 2017 में मैने वोडाफ़ोन टेलीकॉम कंपनी से त्याग पत्र देकर अपना निजी व्यवसाय शुरू कर दिया। नए व्यवसाय की व्यस्तता के कारण इस बार ज़हीर सर से मुलाक़ात में गैप ज़्यादा दिन का हो गया परंतु मोबाइल पर लगातार बात होती रही।
दिनाँक 10 अप्रैल 2018 …. एक बार फिर मैं ज़हीर सर के घर गया। सबसे पहले मेरे नए बिज़नेस पर उन्होंने चर्चा की और अन्य विषयों के साथ-साथ ग़ज़ल पर भी बातें हुईं। ग़ज़ल को लेकर मेरी कुछ शंकाओं का भी उन्होंने समाधान किया। चूंकि में वर्किंग डे के बीच मे ही उनके घर पहुंच गया था, ये मुलाक़ात छोटी थी, शायद एक घंटे की, पर मैं उनसे ग़ज़लें सुने बिना कैसे वापस जा सकता था। आपको बताना चाहूंगा कि ज़हीर सर गीत, ग़ज़लों को बाक़ायदा तरन्नुम से पढ़ते थे और उनके खुले गले से निकलने वाली आवाज़ बहुत बुलंद होती थी जो ग़ज़ल की ख़ूबसूरती में और चार चाँद लगाती थी। मेरे निवेदन पर उन्होंने दो ग़ज़लें मुझको सुनाईं। पहली ग़ज़ल का मतला यूँ रहा –
चिल्लर को गुल्लकों में बचाने के दिन गए,
धरती में बूँद-बूँद समाने के दिन गए
और दूसरी ग़ज़ल का मतला और कुछ शे’र यूँ रहे-
दृश्य उड़ते विमान से देखा
बाढ़ को इत्मीनान से देखा
मेरी आँखें चली गईं जबसे
मैंने दुनिया को कान से देखा
मैंने दिन भर की उसकी मेहनत को
रात भर की थकान से देखा
इन शे’रों को सुन कर मैं स्तब्ध था। कितनी गहरी बातें, कितने आसान और कम शब्दों में। अद्भुत। उन्होंने मुझे भी कुछ सुनाने के लिए बोला। मैं सोच में पड़ गया कि इतने अच्छे शे’रों को सुनने के बाद मैं क्या सुनाऊं। ख़ैर, संकोच के साथ मैने अपनी एक ग़ज़ल सुनाई, जिसकी तारीफ़ के साथ-साथ एक-दो सुधार भी उन्होंने बताए।
घर से निकलते वक़्त उन्होंने बताया कि ओबीओ (ओपन बुक्स ऑनलाइन) नाम की एक बहुत अच्छी साहित्यिक संस्था है जिसकी वार्षिक साहित्यिक गोष्ठी भोपाल के ही हिंदी भवन के महादेवी वर्मा कक्ष में कुछ दिन बाद दिनाँक 15 अप्रैल, रविवार को सुबह 10 बजे से होने जा रही है। उन्होंने मुझे भी उसमें आमंत्रित किया। यहां बताना चाहूंगा कि मैं मई 2009 से भोपाल में निवासरत था परंतु एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर पद की ऑफ़िशियल व्यस्तता के कारण, तत्पश्चात अपने नए व्यवसाय के कारण मई, 2009 से 14 अप्रैल 2018 तक किसी भी साहित्यिक गोष्ठी में नहीं जा पाया था। मैं न ही भोपाल या मध्यप्रदेश के किसी भी क़लमकार को व्यक्तिगत रूप से जानता था, न ही कोई क़लमकार मुझे जानता था (ज़हीर सर को छोड़कर)।
चूंकि मैं 15 अप्रैल की सुबह ही नागपुर से भोपाल आया था, गोष्ठी में एक घंटा विलंब से, 11 बजे पहुंचा। विलंब से आने की सूचना मैं ज़हीर सर को पहले ही दे चुका था। कार्यक्रम शुरू हो चुका था जिसकी अध्यक्षता वे ही कर रहे थे। वहां उपस्थित उन क़रीब 70-80 चेहरों में मैं उनके अलावा किसी को नहीं पहचानता था। उन्होंने दूर से मुझे देख लिया और बैठने का इशारा किया। मैं एक से बढ़कर एक रचनाकर, जो देश के अलग-अलग राज्यों से भी आये थे, के गीत, ग़ज़ल का आनंद ले ही रहा था कि लंच ब्रेक हो गया। मैं मंच पर जाकर सर से मिलने में संकोच कर रहा था। वहां बहुत से लोग उनको घेर कर उनसे बातें कर रहे थे। मैं किनारे खड़ा था। उन्होंने भीड़ में भी मुझे देख लिया, स्वयं मेरे पास आये, मैने चरण स्पर्श किया। उन्होंने आशीर्वाद देते हुए मेरा हाल-चाल लिया। एक स्तरीय गोष्ठी में मुझे आमंत्रित करने के लिए मैंने उनको धन्यवाद दिया। फिर हमनें साथ मे ही लंच किया। लंच के साथ-साथ ही वो मेरा परिचय एक ग़ज़लगो के रूप में सामने आ रहे साहित्यकारों से कराते भी जा रहे थे।
थोड़ी ही देर में लंच के बाद का सेशन शुरू हुआ।मैं पुनः रचनाओं का आनंद ले ही रहा था कि मैंने देखा ज़हीर सर ने मंच संचालक श्री बलराम धाकड़ जी को (जिनसे उस समय तक मेरी कोई पहचान नहीं थी पर बाद में हम अच्छे मित्र हुए) अपने पास बुलाकर उनके कानों में कुछ कहा। थोड़ी ही देर में कुछ रचनाकारों के रचना पाठ के बाद बलराम जी ने मेरा नाम लेकर और मेरे संक्षिप्त परिचय के साथ मुझे मंच पर रचनापाठ के लिए आमंत्रित कर लिया। मैं थोड़ा घबराया क्योंकि तैयारी बिल्कुल नहीं थी। फिर भी मैंने एक ग़ज़ल सुनाईं और लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। ग़ज़ल का मतला और एक शे’र यूँ रहा –
दो मिसरों में जीवन का मैं सार लिख रहा हूँ
सँग अपनों के ग़ैरों को भी प्यार लिख रहा हूँ
सीधी सच्ची सोच है मेरी, सीधे से अशआर
दो और दो को मैं हरदम ही चार लिख रहा हूँ
इन चार मिसरों ने तालियां बटोरीं और थोड़ी देर बाद दूसरा ब्रेक (टी ब्रेक) हुआ। इस टी ब्रेक में मैं सर के पास गया। उन्होंने मेरी ग़ज़ल की तारीफ़ की। ईस बार अन्य बहुत से लोग स्वयं ही मेरे पास आये, मेरा पूरा परिचय लिया, अन्य बातें हुईं, दोस्ती की शुरुआत हुई और मोबाइल नम्बरों का आदान-प्रदान हुआ।
इस तरह ज़हीर सर के सहयोग से मुझे भोपाल की किसी साहित्यिक गोष्ठी में पहली बार अपनी ग़ज़ल सुनाने का सुअवसर मिला और मुझे कुछ साहित्यिक मित्र, कुछ अग्रज कुछ अनुज मिले जो मुझे अन्य काव्य गोष्ठियों में आमंत्रित करने लगे। इस प्रकार एक मल्टीनेशनल टेलीकॉम कंपनी के रिटेल हेड तत्पश्चात एक बिज़नेसमैन की साहित्यिक यात्रा का भोपाल में शुभारंभ हुआ।