बात उस समय की है जब मैं हाईस्कूल के पेपर मार्च में देकर घर छुट्टियां बिता रहा था। आगे मेरे पढ़ने का विचार गांव में ही था, पर मेरे पिता जी मुझे रायबरेली के एक नामी स्कूल G.S.V.M. में पढ़ाना चाहते थे। यहाँ तक तो ठीक था परन्तु जब वे मुझे उसी विद्यालय के छात्रावास में ठहरने के लिए प्रेरित करने लगे, तब मुझे अहसास हुआ कि अब मैं गहरे संकट में फंसने वाला हूँ। इसकी एक वजह यह थी कि मेरे पिताजी के दोस्त के दोस्त, जो उस विद्यालय के काफी करीबी थे, और दूसरा कारण मेरे गांव के दो विद्यार्थी आकाश कुमार मौर्य व हेमन्त द्विवेदी थे। चूंकि हेमन्त अभी-अभी वहाँ से पढ़ाई पूरी करके आये थे, इसलिए वह मेरे पिता को मुझे वहाँ पढ़ाने के लिए प्रेरित किया करते थे। पर मैं हमेशा अपना हाथ खींच लिया करता था। फिर एक दिन वह दुर्भाग्यशाली दिन आया, जिसका वर्णन करते नही बनता। मैं अपने पुराने घर से सड़क वाले पर घर पर भोजन करने के लिए आया था और पापा का फोन आ गया। वह बोले तुम्हें हेमन्त के साथ आज रायबरेली G.S.V.M. विद्यालय देखने जाना है। मैं घबराहट के कारण अपने भोजन का स्वाद तक नहीं ले सका। खैर! कैसे भी रायबरेली पहुंचकर हेमन्त भाई के साथ विद्यालय के अन्दर कदम रखा । मुझे हेमन्त भाई ने बताया कि यहाँ पर अध्यापक मारते बहुत हैं। मैं यह सुनने के बाद अपनी स्थिति का वर्णन शब्दों में नहीं कर सकता!
कैसे भी कर के, काफी कहा सुनी के बाद मेरा प्रवेश G.S.V.M. मे हो गया। प्रवेश परीक्षा में मेरा 25 वां स्थान आया, पर मुझे ये आशा तक नहीं थी कि मैं परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊंगा। वह तारीख मुझे आज भी अच्छी तरीके से याद है जब 12/07/2012 को मुझे हॉस्टल एलॉट हुआ था। अंततः वह महान और भाग्यशाली जब मेरी घर से विदाई हो रही थी। मैं और मेरी मॉं अत्यंत दुखी थी। मैं, पिताजी और मेरे पिताजी के दोस्त, उन सब लोगों ने हॉस्टल शिफ्ट करवाने से पहले; गद्दा, किताबें, ड्रेस आदि चीजें खरीद दीं और हम सब उसे लेकर हॉस्टल गेट तक आ गये। हॉस्टल पहली मंजिल पर था और भूतल पर कक्षा 1 – 5 तक वाला सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल चलता था। हॉस्टल के द्वार से जब हम लोग सीढ़ियों के सहारे पहली मंजिल की तरफ जाने लगे, तो सीढ़ियाँ चढ़ते हुए शुरु में ही जीने के दांयी तरफ एक बोर्ड लगा था, जिसकी लंबाई चौड़ाई भी मुझे अच्छे से याद है। उस पर लिखा था – ‘प्रथम तल जाने का मार्ग’ । मैं इस बोर्ड को देखे जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि मानो दुनिया ठहर सी गयी हो। समय रुक सा गया हो। कैसी बदहवासी छा गई थी। मुझे अच्छे से याद है कि कुल सीढ़ियां 27 थीं। और वो सत्ताइस की सत्ताइसों सीढ़ियां मुझे 27 तरह की घुटन का अनुभव दे रहीं थी।
फिर वहां के जूनियर आचार्य जी मुझे दो बार दाहिने मुड़ते हुए कमरा नंबर 10 में, बेड नं. 3 पर पहुंचाकर चले गये। मेरे पिताजी व उनके अजीज दोस्त जो कि मेरे बचपर के अभूतपूर्व शिक्षक भी रहे हैं। वह सब भी थोड़ी ही देर में सामान व्यवस्थित कराकर वहां से चले गये। मैं भी अपनी कॉपियों में अखबार चढ़ाता रहा। उनके जाने का उस समय अहसास उतना नहीं हुआ। मुझे ये एहसास भी नहीं हुआ कि मैं अब रायबरेली शहर के G.S.V.M. कालेज के हॉस्टल में अब बिल्कुल अकेला हूं। थोड़ी ही देर में उस रुम नं. 10 के बाकी पार्टनर्स भी, जो कि मेरी तरह नये ही थे वह भी आ गए। धीरे-धीरे शाम होने को आई। मैं थोड़ी देर घूमता रहा पूरे हॉस्टल में। फिर मैं घूम कर कमरे में आ गया। मुझे मेरे अपनों की याद आने लगी। अपनी मां के उन आंसुओं की भी याद आ रही थी, जब मैं घर से हॉस्टल के लिए घर से निकल रहा था। उसके बाद अगले कुछ दिन तक मैं सिर्फ शायरी ही लिखता रहता था। मुझे अपने उस दशा पर ये कुछ फ़िल्मीं पंक्तियां याद आया करती थी –
“तड़प ये इश्क की दिल से कभी नहीं जाती, जान दे के भी दीवानगी नहीं जाती
न जाने कौन सी दुनिया है,वो मेरे रब्बा,
जहां से लौट के कोई सदा वापस नहीं आती।”
फिर जब उस दिन के शाम के 8:00 बजे, मुझे भोजन प्राप्त करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। उस समय अचानक मेरे आंसू निकल पड़े। मुझे उस दिन का स्मरण याद आने लगा जब मां एक बार नहीं बल्कि हजारों बार भोजन के लिए पुकारा करती थीं। यदि मैं सो भी जाता, तब भी वो मुझे, मेरे लाख मना करने के बावजूद भोजन के लिए ले जाती थीं, और यहां, सीटी बजने पर चूक गये तो चूके ही रहोगे। वो ‘मनोज मुंतशिर’ का शेर है ना – “निवाले मां खिलाती थी तो सौ नखरे दिखाते थे,… दूर हैं मां से तो सारी आनाकानी छोड़ दी हमने।” यही सेम स्थिति होती थी मेरी, जब परिवार का कोई सदस्य, यूं ही अचानक याद आ जाता था। अगले दिन जब मैं प्रातः सो कर उठा तो लाइट जा चुकी थी। बल्ब, रेडियम की तरह थोड़ा-थोड़ा चमक रहा था। आंखों को मींजते हुए मुझे लगा कि मैं घर पर ही हूं, और अभी मां आती ही होंगी, पर थोड़ी देर में महसूस हुआ कि ऐसे सपने, अब सपने ही रहेंगे। सौभाग्य से अगले दिन विद्यालय में अवकाश था और विद्यालय का जीवन कैसा रहा, ये फिर कभी बताऊंगा। फिलहाल हॉस्टल लाइफ की ही बात करते हैं।
जब कभी भी मैं छात्रावास से घर के लिए जाता, तब-तब ‘प्रथम तल पर जाने का मार्ग’ वाला वो साइन-बोर्ड मुझे ‘प्रथम तल से जाने का मार्ग’ की तरह प्रतीत होता और एक ठंडी राहत देता; पर जब फिर से मैं घर से वापस आता और उसको देखता, तो मुझे यही लगता कि ये एक ऐसी वस्तु है, जो संसार में सिर्फ दुख प्रदान करती है बस!! किसी का मशहूर शेर है –
“दर्द-ए-हिजरत के सताए हुए लोगों को कहीं,
साया-ए-दर भी नज़र आए तो घर लगता है।”
जिंदगी ऐसी ही चलती रही कभी प्रात: स्मरण के लिए न उठने की सजा मिलती, तो कभी सीटी न सुनने की वजह से भोजन न मिलता। कभी अपने रुम-मेट से झगड़ा करने के लिए डंडे पड़ते , तो कभी कीपैड मोबाइल यूज करने के लिए एवरग्रीन मुर्गा पनिशमेंट। ये सब चलता रहा और महीने अल्ताफ राजा के उस गाने की तरह चलते और गुजरते रहे जिसमें –
‘जब तुमसे इत्तिफाकन मेरी नजर मिली थी अब याद आ रहा है, शायद वो जनवरी थी। तुम यूं मिली दोबारा फिर माहे फरवरी में ………अब आ गया दिसंबर जज़्बात मर चुके थे, मौसम था सर्द उसमें अरमा बिखर चुके थे।’
जनवरी से लेकर दिसंबर ऐसे ही गुजरते चले जाते थे, और फिर से नये साल की जनवरी आ जाती थी। उन सब अभावों के बीच, जो सबसे उज्ज्वल पहलू था, वो थे मेरे चारों रुम-मेट – अंकित, दीपक, प्रशांत और इंदल। वो इतना उज्जवल पहलू था कि अब पोस्ट-ग्रेजुएशन के बाद भी जो कुछ खास मित्र हैं, उनमें आप सब सबसे ऊपर हैं, और बाकी बाद वाले तो कॉलेज और यूनिवर्सिटी तक ही रहते हैं । बहुत सारी बुराइयों के बाद जो एक अच्छाई थी हॉस्टल लाइफ की, वो थी आप सब की मित्रता जो कि आजतक है।