नज़्म
मूल लेखिका: इरम रहमान, लाहौर
अनुवाद: प्रा. खान हसनैन आक़िब
प्यारी अमृता
तुम्हारे नाम के तीन अक्षर
मेरे नाम की तकमील के लिए काफ़ी हैं
और मेरा प्रीतम भी
तुम्हारे देस का वासी है
तुम्हारी और मेरी उम्रों में
ना जाने कितने बरसों का है फर्क
लेकिन हम में फिर भी कितनी बातें हैं सांझी
तुम भी पंजाब के पानियों को चखने वाली
मुझ जैसी शिद्दत जज़्बों में रखने वाली
तुम ने भी शब्दों को अभिव्यक्ति का साधन बनाया
एक साहिर को अपना प्यार बनाया
जब तुम ने दुनिया से मुँह मोड़ा था
या शायद मेरे आने का रस्ता छोड़ा था
लेकिन तुम्हें उस वक़्त कैसे इल्म हो सकता था
तुम्हारे बाद भी कोई तुम जैसा हो सकता था
कि तुम्हें सोचने वाली
हूबहू तुम जैसी होगी
उसकी उंगलियों में ज़ोर तुम्हारे क़लम का होगा
रूह तुम्हारी आन बसेगी उस में
लेकिन बज़ाहिर वुजूद इरम का होगा
उसे भी किसी साहिर की तलाश होगी
उस ने भी आंखों ही आंखों में
अपने साहिर की जुस्तजू की होगी
तुम ने साहिर को ढूंढ लिया था
इश्क़ का एक नया इतिहास लिखा था
त्याग के सारी दुनिया
इश्क़ के लिए संन्यास लिखा था
तुम ने भी मन ही मन में
सिर्फ़ साहिर को चाहा था
अपने दिल की सुनी थी बेशक
लेकिन किसी और को हमसफ़र बनाया था
तुम हम दोनों के लिए
राब्ते की वजह हो
चाहत की शिद्दत से लबरेज़
वास्ते की वजह हो
वो मुझे अमृता कहता है
मैं उसे प्रीतम मानती हूं
क्या था साहिर तुम्हारे लिए
मैं वो सब जानती हूं
तारीख़ ख़ुद को दोहराएगी
मुझ को भी लहू रुलाएगी
मगर मुझे भी तुम जैसा ही पाएगी
जन्म लिया है शायद तुम ने मेरे अन्दर
इस लिए मैं अमृता हूं उस के लिए
और वो मेरे लिए साहिर!