नितान्त अकेली पगडंडी, सब पीछे छूट गया। धुआंधार काले बादलों में से झांकती एक किरण, अदृश्य आवाजें, एक काली सी छाया उसकी ओर बढ़ रही है। मृत्यु से कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जीवन भर की घटनाएं एक एक कर आंखों के सामने आती हैं। समय की धुंध उन पर से बिल्कुल हट जाती है। रात का सन्नाटा है। असुरक्षित और आतंकित भविष्य से आत्मा त्रस्त है। अंधेरी रात में ना कोई गांव शेष है ना शहर। मन की अंधेरी घाटी में बार बार मृत्यु का भय छा जाता है। बुझते बुझते लौ एकदम से तेज हो जाती है।
माया बारह साल की है। माया मामा के घर आई है। गर्मियों की छुट्टियां हैं। पर आने का कारण छुट्टियां नहीं कुछ और भी है। माया के भाई या बहन आने वाला है। बारह साल के लंबे अंतराल के बाद बच्चा हो रहा है। केस कॉम्प्लिकेटेड हो चुका है। सभी के मन में एक अव्यक्त सा डर व्याप्त है। और एक दिन इस डर, आशंका ने सत्य का मूर्त रूप धारण कर लिया। अमावस की घोर काली रात को पुत्र जन्म हुआ और दो घंटे बाद ही माया की मां और उसका नन्हा सा भाई, उसे अकेला छोड़कर चले गए।
तेरहवीं के बाद जब पिता अपने साथ वापस ले जाने लगे तो निसंतान बड़े मामा ने हाथ जोड़कर माया को उनसे मांग लिया। अदालती कार्यवाही के बाद माया अब माया शर्मा से माया जोशी बन गई। अब वह मामा की भांजी नहीं बेटी थी और मामा उसके मामा नहीं पिता थे। तीन महीने बाद वह मामा मामी के साथ डेनमार्क आ गई।
बार बार माया का मन पीछे भाग रहा है। लगता है अनन्त में विलीन होने से पहले फिर से पूरा जीवन उलट देगी।
डेनमार्क की पहाड़ियों पर बैठी हुई माया ऐसी लग रही है जैसे कोई मत्स्यकन्या हो। कोई उसकी इस अनुपम छवि को आंखों ही आंखों में पी रहा है, इस बात से अनजान है वह। वह माया से कुछ कहना,कुछ पूछना चाह रहा था कि तभी वह उठकर चली गई।
आज माया का बीसवां जन्मदिन है। कलात्मक कांच वाली खिड़कियां, दीवारों पर रोमांटिक पेंटिंग्स, नफीस परदे, मेहमानों से गुलजार एक उन्मादित धीरे धीरे रात की ओर बढ़ती एक शाम, सॉफ्ट ड्रिंक से छलकते खनकते बेल्जियम कट के गिलास और बड़ा सा केक काटती माया। बड़े से कमरे में मद्धिम नीली रोशनी के बीच नृत्य आरंभ हुआ। डेनमार्क की जिस पहाड़ी पर मत्स्य कन्या को देख कर शांतनु अपने होश हवास खो बैठा था, उसे यहां देख कर विस्मय विमुग्ध है। उसे तो पता भी नहीं था कि वह जिसकी बर्थ डे पार्टी में जा रहा है, वह और कोई नहीं उसके सपनों की राजकुमारी है। उसने शिष्टतापूर्वक उसने माया को नृत्य के लिए आमंत्रण दिया। नृत्य करते हुए उसने माया से कहा,
‘मुझे तुम से कुछ कहना है’।
‘मुझ से’
‘जी हां’
‘कहिए’
‘यहां नहीं,मेरा मतलब है कहीं बाहर’।
माया उसे बाहर बगीचे में ले आई।नशीली हवाओं के हल्के हल्के झोंको से पूरा बगीचा महक रहा था।
‘कहो’
‘क्या तुम्हें कुछ भी याद नहीं माया ‘’
‘क्या? क्या याद नहीं’
‘रास्ते के वह सारे मोड़,वह सारी गलियां,बाग बगीचे ,मेरी यादों में अक्सर उभरते हैं। वह वृक्ष के साए जिनकी छांव तले हमने अपना बचपन बिताया। वह झरने,जिनकी फुहार आज भी मुझे अपनी रूह में महसूस होती है। अजीब अजीब रंगों वाले पक्षी, हवा हजार तरह की खुशबुओं से महका करती थी। धूप कितनी चमकीली हुआ करती थी,पतझड़ कितना उदास। बरसात का पानी, इंद्रधनुषी आसमान, शामों का सन्नाटा,रातों की निस्तब्धता,सब मुझे याद है माया। क्या तुम सब कुछ भूल गईं।’
कौन हो सकता है ये। अपनी स्मृति पर लाख सिर पटकने पर भी क्यों कुछ याद नहीं आ रहा।
‘कौन हो तुम’
‘तुम पहचानो’
‘अब बता भी दो’
फ्लाईट लेफ्टीनेंट शांतनु, शांतनु वशिष्ठ’
‘मैं आपसे पहले कभी नहीं मिली’
‘मिली कैसे नहीं? याद करो, अपने मामा का घर, मामा के घर के पास एक और घर और उसमें तुम्हारा बचपन का दोस्त सनी
अचानक जैसे कांच पर से धुंध को साफ कर दिया हो, माया का मानस भी वैसे ही धूल पोंछकर साफ़ हो गया। बचपन का बाल सखा ऐसे विदेश में मिल जाएगा, उसने सोचा भी न था। अचानक ही वह अपरिचित कितना परिचित लगने लगा था। शांतनु के काले घुंघराले बाल, रहस्यमय नीली पुतलियां, होटों के किनारे आहिस्ता से आती नशीली मुस्कान। माया देखती रह गई।
परिचय के पहले दिन ही दोनों एक दूसरे के दिलों में गहराई तक उतर चुके थे। वह शाम और फिर ना जाने कितनी शामें। दोनों की कभी न खत्म होने वाली अंतहीन बातें, रोमांचित कर देने वाले स्पर्श, अनंत सुख में डूबा मन। लगता था बस ये ही वह अनुभूति है जहां जीवन पूर्ण विराम पा जाता है। डेनमार्क की पहाड़ियां दोनों के प्रेम की साक्षी थीं।
शांतनु के भारत लौटने को समय नजदीक आता देख मामा ने दोनों की सगाई कर दी। माया उदासी के भंवर में डूबती जा रही है। शांतनु बार बार उसे विश्वास दिला रहा है, भारत पहुंचते ही सब से पहले विवाह का मुहूर्त निकलवाएगा और अपनी दुल्हनिया को अपने साथ ले जायेगा। एयरपोर्ट पर खड़ी हुई माया बादलों के बीच गुम होते हुए प्लेन को देखती हुई खुद भी कहीं गुम हो गई।
‘माया महा ठगिनि हम जानि’
आश्रम में कोई साधु गुनगुनाया। माया वर्तमान में लौट आई। सुबह के चार बज रहे हैं। आश्रम में कहीं दूर से आती भजन की धीमी सी स्वर लहरी कानों में अमृत सा घोल रही है। हवाएं बड़ी तेज चल रही हैं। आंखे बंद करती है कि यादें फिर से घेर लेती हैं।
शांतनु को गए तीन महीने बीत चुके थे। रोज फोन पर आने वाले दिनों के सपने बुने जाते। जहां परियां उनकी बांदी होती, आसमान के चांद तारे मित्र। सब कुछ निर्बाध गति से चल रहा था कि एक दिन शांतनु के पिता का फोन आया। शांतनु अपने मित्रों के साथ दीव घूमने गया था। अपने ही किसी मित्र की यॉट पर बर्थडे मनाने गया और फिर वापस नहीं आया। बहुत ढूंढा। गोताखोरों ने सारा समुद्र छान मारा पर कुछ पता ना चला। अंत में उसकी मृत्यु की घोषणा कर दी गई। आत्मिक रूप से माया उसी दिन शांतनु के साथ मर गई।
मौसम आते रहे, मौसम जाते रहे। डेनमार्क की पहाड़ियां वैसे ही निश्चल खड़ी रहीं। मामा का विस्तृत बिज़नेस संभालते संभालते एक लंबा सफ़र तय कर लिया माया ने। कई बरस बीत गए इस बात को। अब तो बस इतना याद है कि समुद्र की अतल गहराइयां एक दिन उसका सब कुछ बहा कर ले गई थीं। अब तो याद करने लगती है तो सब कुछ गड्ड मड्ड होने लगता है। तारीखें महीने सब आगे पीछे हो जाते हैं और वह समय विस्तार के साथ उभरने लगता है, जिसमें घड़ी की सुइयां नहीं हैं। कुछ भी निश्चित नहीं है फिर भी वह समय ही है जो कभी व्यतीत नहीं होता। यहां का सारा बिज़नेस समेट कर कल माया भारत जा रही है हमेशा के लिए। पहले जाएगी मामा के घर जहां उसके बचपन की ढेरों यादें बसी हुई हैं। मामा का घर देखने से भी बड़ी चाहत थी उस घर को देखने की जो उसका ना हो सका। जब वहां पहुंची, संध्या घनीभूत हो चुकी थी। मामा ने जिस परिवार को घर बेच दिया था, उन्होंने घर का नक्शा ही बदल दिया था। बहुत ढूंढने पर भी माया को उसमें बचपन की यादों का एक भी स्मृति चिन्ह नहीं मिला। परंतु साथ वाला घर वैसे ही खड़ा था। पोर्च में नन्हा सा बल्ब जल रहा था। नन्हीं नन्ही यादों को आंचल में समेट कर वह जैसे ही जाने के लिए मुड़ी, उसने देखा बाहर से एक कार बंगले के अंदर घुसी। पहचानने में उसे एक पल की भी देर नहीं लगी। ड्राइविंग सीट पर शांतनु था और पास की सीट पर उसकी पत्नी।
माया का अंग प्रत्यंग सुन्न पड़ गया। इतना बड़ा झूठ। क्यों? क्या शांतनु के पिता यहां किसी से वचनबद्ध थे? या फिर माया उन्हें विदेशिनी लगी। क्या कायर शांतनु कुछ भी ना बोल पाया। बीस साल से जिसकी पुण्यतिथि पर दिया जलाती रही। पूजा करवाती रही, जिसकी याद की लौ को उसने कभी मद्धम नहीं होने दिया। वह इतना बड़ा फरेबी। ज़िंदगी सिर्फ चार दिन की है। दो आरज़ू में कट जाएंगे, दो इंतजार में। उस से भी आगे ज़िंदगी सिर्फ दो दिन की है। एक दिन जीने का और एक दिन मौत का।सब जानते हैं, फिर भी एक दिन की ज़िंदगी पर इंसान को कितना अभिमान। एक मुट्ठी राख से ज्यादा ज़िंदगी कुछ भी नहीं।
डेनमार्क में थी तब सोचा था,मामा का घर देखने के बाद जाएगी अल्मोड़ा।वहां उसकी दो तीन सहेलियां रहती थीं । वहीं छोटा सा कॉटेज लेकर शांति पूर्ण ज़िंदगी गुजार देगी। पर अब नहीं जाएगी वहां। ऋषिकेश जाएगी।सन्यास लेगी। आश्रम के पवित्र वातावरण में ज़िन्दगी के सारे दुख, छल,फरेब भूल गई। पर आज उसने जो देखा ,माया का सर्वांग घृणा से भर उठा। भोर का अंतिम तारा डूबने को था। वह अपनी कुटिया से बाहर आकर बैठ गई। अभी ध्यान लगाने का सोच ही रही थी कि उसने देखा गुरुजी के कमरे से , घूंघट निकाले हुए एक स्त्री छाया बाहर निकली । हल्के अंधेरे में भी माया ने पहचान लिया वह रति थी। आश्रम में आई नई लड़की। माया का मन वितृष्णा से भर उठा । दिन के उजाले में संत बने हुए वृद्ध गुरुजी, रात के अंधेरे में।
मनुष्य किस शांति की खोज में आश्रम, साधु संतों के समागम के लिए भटकता है। क्या मृत्यु से पहले की शांति।
जिस ज़िंदगी में आखिर में यही होना है, उसके लिए कैसी कैसी अघोर कल्पनाएं करता है इंसान। एक दिन ऐसा भी आता है जब आग की लपटों से तड़क कर सारी त्वचा छितरा जाती है। अंग अंग गिर कर प्रचंड लपटों में स्वाहा हो जाते हैं। रह जाती है सिर्फ राख। उसी देह के लिए मनुष्य कैसी कैसी वासनाएं संजोता है। जो एक दिन इतनी विकराल, वीभत्स हो जाती है कि जलते हुए मांस की दुर्गन्ध के सिवा कुछ नहीं बचता। उसी देह में इतनी वासनाएं। अब माया इस आश्रम में नहीं रहेगी। इस आश्रम में तो क्या, किसी भी आश्रम में नहीं रहेगी। बनारस जाएगी। गंगा के तट पर एक किराए की कोठरी लेकर रहेगी।चिता में जाने से पहले,तप रूपी अग्नि में अपने को तपा कर इतना पवित्र कर लेगी कि जब देह से आत्मा निकले तो कोई विकार ना रहे। फिर एक स्वार्थ और भी था। मणिकर्णिका के घाट पर अंतिम संस्कार होगा तो साक्षात शिव आकर चिता प्रज्वलित करेंगे। ये सोचकर वह बनारस चली आई।
माया की आंखें मुंदने लगी। इतनी सी देर में पूरा जीवन जी गई माया। बंद होती आंखों से माया ने देखा, उसके कमरे में तीव्र प्रकाश फैला हुआ है। दो सुंदर हाथ उसकी देह से आत्मा को निकालने के लिए उसकी ओर बढ़ रहे थे। ओह तो कहानी खत्म हुई। उसकी यादों में समाई शांतनु की अजस्त्र स्मृति भी धीरे धीरे विलीन हो रही थी। हल्का सा स्मित उसके होटों पर आया। गंगा की लहरें पूर्ण उन्माद के साथ तट से टकराकर मन में एक भय की सर्जना कर रही थीं। हर हर गंगे, ओम नमः शिवाय बोलते हुए कुछ साधु गंगा स्नान को जा रहे थे। देह से आत्मा निकल चुकी थी। यह जीवन की पूर्णाहुति का क्षण था।
‘माया, ओ माया ! चल गंगा स्नान का समय हो गया। आज कार्तिकी पूर्णिमा है।’
उसके पास रहने वाली,उसकी सखी रुक्मणि ने पुकारा। कोई उत्तर न मिलने पर रुक्मणि भीतर आई। रुक्मणि ने देखा, दोनों हाथ छाती पर रखे, होठों पर परितृप्ति का स्मित लिए, खुली आंखों से माया छत को ताक रही है। बूढ़ी रुक्मणि सब समझ गई। अपने जीवन की अंतिम अर्गला बंद करके माया इस निस्सार जगत से जा चुकी थी। माया की आंखें बंद करके रुक्मणि बाहर जाने लगी कि उसकी नजर माया की बंद हथेली पर पड़ी। हाथों के नीचे एक सुंदर युवक की तस्वीर थी। बड़ा ही सजीला युवक था। तस्वीर के पीछे लिखा था मेरा शान्त।
चिता की लपटें धू धू कर जल रही थी। धू धू करती हुई चिता में बुढ़िया ने शांतनु की तस्वीर डालकर अंतिम आहुति दे दी। लाठी टेकती हुई धीरे धीरे रेत में पांव जमाती हुई बुढ़िया अचानक जोर से हंसी और गुजराती कवि दास का ये दोहा गुनगुनाने लगी,
‘मुनिजन मोह्या रे, मन मस्तानी हे माया
एना बंधने बंधाया रे, रंक अने रानी जाया’