छोटी-छोटी प्लास्टिक की शीशियों में होम्योपैथी की गोलियों को भरती हुई संगीता मुझे एकदम अनजान लगी.
“मैडम, तीन-तीन गोलियां एक साथ दोनों शीशियों से दिन में दो बार याद करके ले लीजिएगा. भूलिएगा नहीं. और यह भी याद रखें कि गोली लेने के आधे घंटे पहले और बाद तक पानी भी नहीं.” आदेशात्मक स्वर सुनकर मन खुश हो गया.
“चलो कोई तो मिला जो ऐसी दवाई देगा जिससे दर्द में फर्क पड़े.” मेरी बात को सुनते ही चकरी की तरह एडी पर घूमकर मेरी ओर मुड़ गई संगीता.
“एकदम फर्क पड़ेगा मैडम देखना.” खिला हुआ चेहरा था उसका.
“तुमने अच्छा किया, अपना अलग क्लीनिक खोल लिया.”
“जरूरी था मैडम. क्या करती घर बैठकर? यह अहसास बैठने ही नहीं देता कि सक्षम हो तो कुछ करो. फिर अपने चारों ओर की रफ़्तार को देखकर भी बैठने का मन नहीं करता न? अपनी अलग जगह तो होनी ही चाहिए.”
“ठीक कहा तुमने संगीता. हमने इतना नहीं सोचा. एक चोगा जो बाप दादा ने पहनाकर भेज दिया उसे उतारने का कोई प्रयत्न ही नहीं किया. पहले तो पहना फिर ढोया फिर लादकर यहाँ तक पहुंचे हैं. अब यही अपनी पहचान बन गई है.”
“एकदम सही मैम. आपने जो ‘पहचान’ वाली बात कही न वही. एक अलग आइडेंटिटी चाहिए जीने के लिए. किसी के साथ जुड़ना सुखकर है पर एक स्तर पर अपनी अलग पहचान तो बनानी है न….? अपने लिए भी तो जीना जरूरी है.”
उसे बोलते हुए सुनना अच्छा लग रहा था. उसकी वैचारिक प्रक्रिया एक भिन्न स्तर पर काम कर रही थी.
“अच्छा संगीता. तुमने सोचा कैसे? यानि कि घर छोड़कर. एकदम से…”
“घर छोड़ने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है मैम. सब अपनी-अपनी जगह पर हैं. पर इस मामले में सुधीर ने कभी भी कोई आनाकानी नहीं की. अगर करता तो मैं भी कहाँ मानने वाली थी. वो नौकरी करे तो कुछ नहीं मैं करूं तो…..?
“फिर घर तो टूटता न….”
“घर तो दोनों से बनता है न मेम. वो कैसा घर जहाँ केवल एक की इच्छा पूरी हो और दूसरा पिसता रहे?”
“दूसरा पिसता रहे, दूसरा पिसता रहे.” शब्द जैसे मेरे शरीर से चिपक गए. यह वही संगीता थी जो मेरे पास पढने आती थी. उसकी माँ मेरे घर काम करती थी. फीस देने के पैसे नहीं होते थे. उसके स्कूल का पूरा खर्चा मैं ही उठाती थी. साथ ही साथ उसे घर में पढ़ाती भी थी.
बारहवीं के बाद दूसरे शहर में पढ़ने चली गई. शार्ट हैंड टाइपिंग करके जैसे तैसे खर्चा पूरा करती थी. यहाँ तक तो पता था. पर उसकी इतनी प्रगति का पता आज चला.
कई दिनों से घुटने के दर्द ने परेशान कर रखा था. बहुत इलाज करवाया. डॉक्टर केवल पेनकिलर देकर छोड़ देते थे. दर्द जहां का तहां. किसी ने इसका पता दिया. अच्छा इलाज करती है. इसकी दी हुई छोटी-छोटी सफेद गोलियों का बड़ा असर है.
बोर्ड पर टंगा नाम “संगीता मेहता” पढ़कर भी याद नहीं आया कि ये वही संगीता होगी. शायद सरनेम बदल जाने के कारण ही ऐसा हुआ. क्या पता.
दवाई अच्छी दी थी. तीसरे दिन से गोलियों ने असर दिखाना शुरू कर दिया था. दर्द काफी कम हो गया था. सुबह की सैर करते वक्त अब चेहरा टंगा हुआ नहीं रहता. दूज के चाँद की तरह एक हँसी चिपका ली थी मैंने. आते-जाते लोगों के अभिवादन का उत्तर भी दे रही थी.
दवाई ख़त्म होने में तीन दिन और बाकी थे. पर न जाने क्यों उससे मिलने का मन हो रहा था. बातें भी अच्छी करती थी. उसके कहे “दूसरा पिसता रहे” और “आइडेंटिटी” गरम कड़ाही में पानी के छींटे की तरह मेरे मन में फडफडा रहे थे.
शायद इस आइडेंटिटी के अभाव के कारण ही पलाश ने मुझे छोड़ दिया. किसी के साथ मन से जुड़ने के बाद अपनी अलग पह्चान की बात ही कहाँ रह जाती है. मेरा तर्क इतना मजबूत था कि कोई लूप होल्स निकलना मुश्किल था. पर नहीं. होल्स थे तभी तो आज….
मानसिकता बदल गई थी. एक हैंगिंगनेस. जिसे साफ़ शब्दों में कहें तो ‘क्लिंग’ यह शायद ज्यादा अर्थ देगा. अपना कुछ नहीं सब तुममें समाहित. यही बड़ा बन गया. एक खोह बना लिया था मैंने जिसमें हर रोज अपने को घुसाने लगी थी. प्रतिवाद करना, विद्रोह करना भूल चुकी थी.
हलचल जो इंसान की उपस्थिति जताता है ख़त्म हो गया था मेरे अन्दर से.
“हैलो मैडम ! आज इतनी देर तक वॉक कर रही हैं, क्लास नहीं है क्या?” मिस्टर शाह ने घड़ी दिखाकर पूछा.
“नहीं, कुछ दिनों के लिए बच्चों को छुट्टी दे दी है.” मेरी मुस्कराहट शायद बहुत दिनों के बाद खिली थी. मि. शाह की नजर तो यही कह रही थी.
“गुड, गुड. ऐसा कभी कभार करना चाहिए. अपने लिए वक्त निकालना चाहिए. आप तो इतनी व्यस्त रहती हैं कि हमें लगता है आप कैसे अकेले इतना मैनेज कर पाती हैं?”
बात बढ़ रही थी. मेरी खोह मेरा इन्तजार कर रही थी. पर मैंने उसे दूर हटाने का ठान लिया था. बात को आगे बढ़ाते हुए बोली, “हाँ तकलीफ तो होती है पर क्यां करूं बच्चों को निराश करना नहीं चाहती.”
“तीन-तीन शिफ्ट करने की क्या जरूरत, दो ही काफी है. और अगर आप चाहें तो मैं आपकी मदद कर सकता हूँ. आई एम् फ्री.”
इतना तो नहीं सोचा था.
शाह साहब पास के कॉलोनी में रहते हैं. विधुर है. शायद मेरी परिस्थिति से परिचित भी हैं. मुझे देखते ही एक चमक कभी कभार उनकी आँखों में देखी है मैंने. आज उसी चमक को नजर अंदाज नहीं कर सकी.
“थैंक्स ! कभी हेल्प की जरूरत हुई तो अवश्य बोलूंगी, ओ.के.” और आगे बढ़ गई.
आज दवाई लाने का दिन नहीं था फिर भी कदम संगीता के क्लीनिक की ओर बढ़ गये.
मुस्कुराकर स्वागत किया. “मैडम जरा वेट करें. अभी फ्री हो जाऊँगी.” दो चार लोगों से घिरी. किसी को समझाती, किसी को दिलासा दिलाती, चहकती संगीता मुझे बहुत अच्छी लगी. सब कुछ कितना आसान कर लिया है उसने. मुझे लगा उससे पूछूं ‘ये सब कहाँ से सीखा तूने.’ मुझे क्यों नहीं आता? क्यों हर वक्त मुझे मेरा खोह बुलाते रहता है? पर क्या मैं कुछ कह पाऊँगी, एक थोपी हुई अवधारणा लेकर?
अदरक-इलायची डालकर चाय बना लाई थी. “मैडम कहाँ खोई है. कब से बुला रही हूँ. लीजिए.”
“अरे ! ये सब भी रखती हो क्या?”
“हाँ मैडम. कभी कभार थकावट उतारने के लिए इसकी तो जरूरत होती है और आज तो आप आ गई. उस दिन ख्याल ही न रहा.” कितनी सहजता से बातें कर रही थी. क्या इसे ही आइडेंटिटी कहते हैं. आँखें आत्मविश्वास से चमक रही थीं. जैसे पाँव तले जमीन नहीं सफलताएँ खेल रही हो और उसे ही रौंदती आगे बढ़ते जाने की तमन्ना से संगीता उफन रही हैं.
“कहिए. आप कैसी हैं? लग तो रही हैं पहले से बेहतर.”
“चाय अच्छी बनी है.”
“मैम आपका ही सिखाया हुआ है. माँ को आपने सिखाया था मसाले वाली चाय बनाना. मैंने उनसे सीखा है.”
“अरे हाँ ! माँ कैसी है? उसके बारे में तो बताना.”
“वो तो चली गई. मेरा सुख भी नहीं देखा. बस खटती रही अंत तक.”
“और तेरा बाप? वो तो शराबी था? पैसे के लिए तेरी माँ का जीना हराम कर रखा था.”
“दोनों कुछ दिन के अन्दर साथ-साथ ही चले गए. माँ चाहती भी यही थी कि पहले वही जाए. कोई और परेशान हो, नहीं चाहती थी. रात दिन यही गम खाए जाता था उसे. भगवान ने उनकी सुन ली. दो महीने के अंतराल में दोनों गुजर गए. उन दिनों मेरी परीक्षाएं चल रही थी.
मुझे लगा एक गहरी खाई से संगीता की आवाज आ रही है. मुझे अनुभव हुआ शायद इस खाई ने ही उसकी मदद की है. उसकी आइडेंटिटी की आधारशिला.
काश मुझे संस्कारी और शराफत का चोला न पहनाया गया होता तो मैं भी लोगों के नंगे चेहरे देख पाती. लोगों को आकर बताना नहीं पड़ता कि पलाश अपनी सेक्रेटरी के साथ रहने लगा है. मैं भी क्यों अकेली रह गई? पलाश की तरह अपना सुख अन्यत्र न ढूँढ सकी. लगा मेरा दुःख सुनेगा, मुझे समझेगा, मेरा साथ देगा. बाद में पता चला, यहाँ सब अपने आप करना पड़ता है. यहाँ कोई किसी का नहीं होता.
कब घर आ गया मुझे पता भी नहीं चला. ये घर को छोड़ना पड़ेगा. यहाँ रहकर मैं पलाश से मुक्त नहीं हो सकती. आइडेंटिटी के लिए मुक्ति की आवश्यकता है. सभी से मुक्ति. इस मुक्ति में सुख हैं? इस डर से पहले निबटना होगा.
लड़ने का डर-सहने का डर. पूरी रात अंतर्द्वंद में बिता दी. चिड़ियों की चह्चहाह्ट ने ध्यान खींचा. एक सूटकेस में जरूरी सामान रखकर सेंटर टेबल से ‘आबू गर्ल्स हाईस्कूल के वार्डेन’ के लिए आया अपॉइंटमेंट लेटर लेकर पता याद कर लिया. फिर ताला लगाकर बाहर निकल आई. रास्ते में शाह साहब मिल गए.
“हेलो मैम ! कहाँ चलीं आप?”
“आबू ! शाह साहब ! न जाने कब आना हो. वक्त नहीं है सबसे मिलने के लिए. कृपया ये चाबी आप हमारे सोसायटी के प्रेसीडेंट को दे दीजिएगा. थैंक्स ! बाय !” कहकर आगे बढ़ चली. सुबह का उजाला फैलने लगा था. इक्के दुक्के लोग रास्ते में वॉक करने निकल रहे थे.