वसंत
कुहुकता पूछे पपीहा
कहाँ खिले सरसों के पीले फूल हैं?
बहती है किस गली वसंती हवा?
चहुँओर उड़ती पीली धूल है
इस शहर में कैसा वसंत!
ना आपसी सौहार्द्र है
ना दिखे कहीं जज्बात है
ना मेल है, ना मिलाप है
सबके अलग ही प्रलाप हैं
इस शहर में कैसा वसंत!
ना लड़कनों के हाथ में
मीठी मटर की बेल है
ये नगर है यहाँ हर डगर
इक नई किस्म की जेल है
इस शहर में कैसा वसंत!
तरु आम्रमंजर थे भरे जहाँ
इक नई खड़ी इमारत वहाँ
जिसके तले में भींजती
श्रम-सीकरों को पोंछती
श्यामल सी बाला है खड़ी
अवयस्क छाती से अपनी
अपने शिशु को सींचती
इस शहर में कैसा वसंत!
ऋतुराज
फिर भी आ जाओ
स्नेह-सुधा बरसा जाओ
हर चेहरे पर मुस्कान खिले
हर मन का क्लेश मिटा जाओ
ऐसा कुछ आह्वान करो कि
इस शहर में भी हो बसंत।
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फरवरी
खिलते हैं फूल असंख्य
महक उठती फिज़ा सुगन्धि
कलियों पर मंडराते भंवरे
मुखरित होता गुंजन
कोयल कूके डाल-डाल
मिश्री कानों में घोले
अल्हड़ पवन हिलोरे मन में
बेचैनी का ज्वार नवीन
प्रियतम की आस में विरहन
व्याकुल है टेके वातायन
फरवरी पढ़ लेता चुपके से
उदास आंखों का खारापन!