पीढ़ियाँ
माँ-बाप, और उनके अपने जन्म देने वाले –
इन सब की उम्रदराज़ बीमारियाँ, लाचारियाँ;
डॉक्टरी पर्चियों में लिपटे अस्पतालों के चक्कर;
तीमारदारी में सिरहाने खड़ी दवाओं की शीशियाँ;
सांत्वना देती साथ आ बैठी रंग-बिरंगी गोलियां;
बिस्तर से जुड़ी, निढाल सी पड़ी या
अकेली-दुकेली बैसाखियों पे खड़ी
खाँसती-हाँफती, सांसें बटोरती
उधारी जिंदगियाँ –
क्रम से, नए बुढ़ाते कंधों पर अपना आखिरी रास्ता नापते
यूं ही खामोशी की दुनिया में चली जाती हैं
पुरानी पीढ़ियाँ।
इस अनंत चलन में यूं
पारिवारिक मूल्यों में अवतरित
संस्कारों की धरोहर होती आई है पारित-
कर्तव्यनिष्ठा की पुकार पर।
सहर्ष लटका लेती है नई पीढ़ी
अपने कंधों पर, क्रमवार,
परिपक्वता की कगार पर जा पहुंची
पीढ़ी की चिंताओं की गठरियाँ
और उनमें सहेज लेती है
वो मिटते हुये अस्तित्व-
उनकी अपूर्ण इच्छाएँ, सम्पूर्ण परेशानियाँ,
अपनी जीर्ण जेबों में किसी तरह समायोजित कर,
समांतर सतहों से सिर उठाती
निजी जिम्मेदारियाँ-
और फिर ऐसे ही, क्रम से,
निभाती जाती हैं पीढ़ियाँ,
विरासत में पाये दायित्व
खुद भी शामिल हो अनंत कतार में
अपनी-अपनी बारी के इंतज़ार में
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सेवानिवृति
वर्षों तक सशक्त शासकीय तंत्र का
अपरिहार्य भाग बने रहने के बाद
अनिवार्य सेवानिवृति द्वारा
अधिकारों की छत्रछाया में बिछी
कुर्सी के सुख के यूं सहसा छिन जाने के पश्चात
ज्यों हर तथा-कथित अलंकृत अधिकारी,
शासन के गलियारों से निष्कासित हो,
खुद को आम आदमी सा असहाय,
बाहर सड़क पर धूप में खड़ा पा कर
कुछ वैसा ही महसूस करता है
जैसे कि महल की साज़िश से अपदस्थ हुआ
कोई सत्ता के नशे में मगरूर शासक
जिसके लिए न तो बना होता है
राजमहल में टिके रहने का कोई प्रावधान
और न ही सँजोया होता है उसने स्वयं,
कभी सपनों में भी,
थोपी हुई महानता, और थोथे अभिमान की
अर्जित जमापूंजी समेट,
महलों के ऐश्वर्य से बाहर,
विनम्र प्रजा के बीच जा
दूर कहीं किसी बस्ती में बसने का
अपना कोई सहज स्थान