1.
इन दिनों
पानी से ज्यादा तादाद में
खौल रहा है खून।
सांझ के झुटपुटे में
दोपहर सा तमतमाता है मन।
अंधड़ की तरह
उड़ रहे है विचार
दिशा दिशाओं मे टूटकर
चिंदी चिंदी बनकर ..
खौफ के बादल मंडरा रहे हैं
अनिश्चय केआसमान में।
आँखे उगलती हैअंगारे,
बारिश की भीनी फुहारों को
तलाशते तलाशते
मेरे पैर जलते रेगिस्तान में झुलस गए है।
भाषा व्यक्त होने की तलाश
और इंतजार में
शब्द शब्द,अक्षर अक्षर
समेटना चाहती है।
टुकड़े टुकड़े जोड़कर
रचना चाहती है कुछ.
इस आवेग,अंधड़, तूफ़ान
प्रलय और ज्वालामुखी की
तह तक जाकर
महसूस करना चाहती है
आग, पानी, हवा और मिट्टी का मर्म
घुटन और अवसाद से
उबर सकने का
रास्ता तलाशना चाहती है।
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2.
नाक़ामयाबी के लिए
पराजय नहीं पलायन था वह
उम्मीदों और हौसलों से भरी
बहती नदी की धारा को
जब गुम हो जाने दिया
मैंने जलते मरुस्थलों में ….
दशा और दिशा को बदलना
हालात का नहीं
मेरा दायित्व था।
निश्चित ही
अपराध था यह मेरा
जब अपने पंखों को काट छांटकर
सपनों की उड़ान को
छटपटाने के लिए छोड़ दिया था
हवा से लड़ने की वह उम्र थी मेरी।
कितनी भी ऊँची रहीं हो
मेरे इर्द गिर्द की अट्टालिकाएं
सूरज की कुछ किरणें, मगर मेरी भी थीं
अंधेरे और घुटन को
अपनी नियति समझ लेने की
ऐसी कोई शर्तें नहीं थीं।
तूफानों ने भले ही
ध्वस्त कर दिया था मेरी नावों को
लहरों से लड़कर
किनारे तक पहुँचने की
मेरी कशमकश
कुछ अधिक होनी थी।
रेत और मिट्टी की परतों में दफन होकर
पानी की सतहों के भीतर
अंधेरे और गुमनामी में खोकर
अपने ही लिए आँसू बहाना
आत्मगौरव तो नहीं है न?