1.
जब भी उछालो सिक्का
तो दिखने वाला हेड या टेल ही होता है विजयी
नहीं नजर आ पाता छिपा हुआ दूसरा फलक
हुर्रे की आवाज आती है सिर्फ़ विक्ट्री के लिए
जिंदगी के तमाम हैप्पीनेस इंडेक्स के साथ
जब भी होता हूँ किसी के सामने
तो मंद मुस्कान के साथ कह देते हैं
अच्छे लगते हो आप, अच्छे हो आप !
कहाँ नज़र आता है
पीठ पर बंधा बैक-पैक
जिसमें लादे चलते हैं
दर्द, वितृष्णा, कुछ खुशियाँ भी साथ ही अजीबोगरीब फोबिया
जो ज़िन्दगी के बरक्स चलता है
हर शख्स लादे हुए है डर
जो, ज़िन्दगी भर चलता है समानान्तर
पर यही डर कछुए सा चलता हुआ
कब वजूद को डराते-डराते
फंसा लेता है फोबिया में,
कहाँ समझ आता है
*****************
2.
लंबी दूरी की ट्रेन सफर के दौरान
एसी 3 के बी2 डिब्बे में 11 नंबर स्लीपर बर्थ पर
चढ़ कर लेटा ही था कि
नियत समय के साथ भक्क से हुई लाइट ऑफ
और फिर तो ट्रेन का डब्बा
बदल चुका था ब्लैक होल में
और मैं किसी आकाशीय पिंड सा
बिना किसी कक्षा के लगा रहा था चक्कर
गुरुत्व बल-विहीन उस विचरण को
कैसे करूँ बयान
कैसे बताऊं उस एवियोफोबिया के हमले को
बस पलक झपकाते हुए
जलती मताई आंखों के साथ
बीत गई पूरी रात, कोच के बाहर
जैसे शरीर को छोड़कर निकल चुकी आत्मा
देर रात थामे किताब, पढ़ने के बहाने
करते थे उपाय
अंधेरे से बचने का
आखिर अंधेरे में बंद आंखों के सामने
बनता गोला, गोले पर गोला
जैसे सोई हुई समय की झील की
हिल रही हो पुतलियां
किसी दुःस्वप्न को जीते हुए
बेरंग से रंगीन होते हुए
उन गीले चमकदार छल्लों को संभाले
जिंदगी की बेतुकी ज़िद
पेनोफोबिया
नेक्टोफोबिया की कई तहें
ऐसे पार करता हुआ,जैसे
मोबाइल गेम ‘ब्लू व्हेल’ के आत्मघाती प्रयासों के कई स्तरों से
गुज़रते हुए एक अजीब सी बेचैनी
जो न जागने देती न देती सोने
रेंगती रहती है ज़िन्दगी
घोंघे की गति से
लिजलिजे अंधेरों को समेटे आत्मविश्वास के धूसर खोल में
और पीठ पर बंधे बैकपैक में
सहेजे फोबिया के गुच्छे
अनुभवों के परभक्षी बन कर,
चिपके रहते हैं मानस की सतह से
जैसे चिपकी होती है
शरीर से यज्ञोपवीत की सफेद डोर
जैसे लदी है कछुए के शरीर पर
भारी भरकम बाहरी खोल
आखिर बचें तो बचे कैसे
किस साइकेट्रिस्ट को कहें कि
छुड़ाओ ऑक्टोपसी बाहुपाश के चंगुल से
ख़ैर, पीठ पर लदा फोबिया का बैक-पैक
कब तक होगा असहनीय
जीते हुए जुटे हैं इसी को जानने में