कल कवि सम्मेलन में हो गयी
कुछ विवादित सी, उत्तेजित चर्चा
हुआ यूं कि एक ज्ञानी समीक्षक देख न पाये
मंच पे उपस्थित, वाहवाही बटोरते उभरते हुये कवि के
कठिन शब्दों के जमावड़े में कोई काव्यांश संदर्भ
या फिर कोई सार्थक संदेश।
और फिर इस मंथन में उनका एकपक्षीय निर्णय था:
अतिशयोक्ति नहीं कि आधुनिक कविता भी
तुकांत व छन्द की बंदिशों से मुक्त,
किसी समश्रेणिक पेंटिंग में विभिन्न रंगों से लिपटे
ब्रुशों से छितराई, चंद आड़ी-टेढ़ी
रेखाओं के चित्रण मानिंद,
कलम की चपटी नोक से बिखेरे
कुछ जटिल शब्दों का ही
दिखती है समावेश मात्र
वैसे ही जैसे
आत्मा-विहीन कोई अलंकृत काया।
पाठकों व श्रोताओं के समान,
शायद कवि भी खो जाता है
स्वरचित इस भूल-भुलैया में,
दिशा विहीन –
किन्हीं खोये पारस्परिक संदर्भों की असफल तलाश में।
भ्रमित आलोचक करार दिये जाते हैं
अल्पदृष्टि, अज्ञानी और मजबूर हो जाते हैं
दृष्टि के दायरे को फलांगने –
नए संदर्भ खोजने और बुद्धिजीवी का मुखौटा ओढ़ने।
वो कहते हैं न कि दीर्घशाला में जब
एक लोकप्रिय चित्रकार की चर्चित पेंटिंग्स के साथ
लटका पाया गया एक खाली कैनवास भी –
चित्रकला के शीर्ष पारखी ढूंढने लगे परिवेश
और उसपे बैठी मक्खियाँ भी बन चुकी थी
उस अनमोल कला का केंद्र।
अगले दिन अख़बार में कला पारखियों ने
उसी को ही पाया सर्वश्रेष्ठ –
भावनाओं से लबालब, एक अनमोल कृति
जो बयान कर रही थी
ब्रह्माण्ड का अथाह विस्तार
और उसमें मानव जाति द्वारा छोड़े गए
कुछ भद्दे दागों के हस्ताक्षर।