मैं आदमियों से डरता हूँ
“पहली बार रेंगतें हुए गोजर को देखकर
घिघियाया
थोड़ा बड़ा हुआ तो
खुद पर शर्म आयी कि
आदमी का बच्चा होकर डर गया
इंच दो इंच के गोजर से
शर्म कभी समय पर नहीं आती
देर से आना और खिल्ली उड़ाकर नौ-दो ग्यारह
अम्लीय इतना कि पत्थर भी गलते देर नहीं
कितना भी कर लो स्वयं को मजबूत
अंतड़ियों के अंतहीन कन्दराओं में छिपा बैठा डर
निकल ही आता है बाहरअन्हार -धुन्हार
खेत-खलिहान, निपटान आदि
आते -जाते।
जिस बंसवाड़ी से मैं गुजर रहा हूं
इसी में रहती है सफेद वस्त्रों वाली चुड़ैल
जिसकी चर्चा
गांव की अधिकांश स्त्रियां करती हैं।
इसी कुईं में तो कूद कर मरी थी
जितुवा नट की घरवाली
शराबी पति की आदतों से परेशान होकर
अब हवा बनकर करती है चोप
सीवान वाले रास्ते पर जो आम का पेड़ है
वहीं पर बैठ कर निपट रहा था
अशर्फी बिन्न का लड़का
कि कड़क उठी थी बिजुड़ी…
अब बिजुड़िया बाबा का भूत ।
खैर;
इनके लिए हनुमान चालीसा है
रामबाण …
अब बंसवाड़ी नहीं
कुइयां भी नहीं
बिजुड़िया बाबा का पेड़ खुद पहुंच गया
लोगों के घर
खिड़की, दरवाजा व ईंधन बनकर
विधाता ने प्रेतों को मुक्त करते हुए कहा
आज से तुम आदमी हुए
मैं आदमियों से डरता हूँ
*****************
पिता के लिए
पिता के लिए मैं ही था प्रतिपाद्य
सम्पूर्ण लेखन और
एक महाकाव्य…
प्रथम पृष्ठ पर अंकित
मंगलाचरण से आरम्भ होने वाले
प्रत्येक यजन का निमित्त मैं था तथा
ऋत्विज थे स्वयं पिता
मंदिरों के सामने ठमकते,
हाथ जोड़ते ,
घण्टियाँ टुन-टुनाते,
फिर आगे बढ़ते…
संन्ध्यावंदन करते
कथा सुनते- सुनाते
अध्याय की समाप्ति पर लगने वाले जयकारे में
विशिष्ट होता उनका जयकारा…
मीठा उन्हें प्रिय था
इसकी कमी उन्हें अक्सर खलती
कभी -कभी तो बे-चैन कर देती थी उन्हें
एक लाल तीखी मिर्च की तरह…
पड़ोसी ने मेरे लिए
एक बार कर दिया था
रे- तुकार …
और वे निकाल लाए
धूल व धुआँ खाकर काली पड़ चुकी
जवानी के दिनों की लाठी…
जो अब बन चुकी थी अलगनी।
कोई पुत्र
पिता का बचपन कैसे देख सकता है भला…?
मैंने भी केवल सुना है…
नास्तिक तो नहीं
रूढ़िवादिता के विपरीत उन्हें कहते थे लोग
चबूतरे पर साथियों -संग
लगाते थे ठहाका…
और सुबह- सुबह
देह भर पोत लेते थे
अखाड़े की पीली मिट्टी…
दादा जी अक्सर कहते
बड़ा आलसी थे पिता
सुबह देर से उठते और
सायं होते ही उलझने लगती थीं उनकी पुतलियाँ
आपस में
काम को ठेलते रहते
अगले दिन के लिए…
मैं उनसे पहले सो जाता हूँ
और बाद में उठता हूँ …
उनके सोने का कोई साक्ष्य नहीं है मेरे पास
उनमें कोई बल था
जो उन्हें घूमाता रहता
सूर्य के चारो तरफ…
तमाम ग्रह व उपग्रहों की तरह
वे भी अनभिज्ञ थे इस बल से…
वे पढ़ना लिखना चाहते थे
किंतु स्कूल का रास्ता जमीदारों के खेत से निकलता था
जहाँ बरसात के दिनों में
भरा होता ठेहुन भर पानी
और जब वह सूखता तब तक स्कूलों में हो गया होता ग्रीष्मावकाश…
न पढ़ पाने की कसक वे निकालना चाहते थे
मुझे पढ़ाकर…
सबसे बड़ी कक्षा का मॉनीटर बनाकर
एम.ए.
एम.एस-सी
पी.एच-डी .
जो भी करना हो करो…
शहर बनारस जहाँ भी होता हो
वहाँ जाओ…
खैर मैं पी.एच-डी यानि शोध तो न कर सका
किंतु उनके जीवन पर एक संक्षिप्त शोध
जरूर कर पाया हूँ…
यदि मैं न होता तो वे होते
ठहाकों के साथ जीने वाले
दुनिया के एकमात्र गृहस्थ -संन्यासी