आज दोपहर यही कोई तीन बजे छज्जे पर धूप में बैठे थे । एक तो सर्दियों के उतरते दिन की धूप वैसे भी मन में थोड़ी उदासी घोल देती है और ऊपर से चारों ओर पसरा सन्नाटा मन को थोड़ा और बोझिल कर रहा था। पता नहीं क्यों इतना सूना हो गया है आस-पड़ोस। कैसी तो खामोशी छाई थी चारों ओर। कोई भी बाहर नहीं दिख रहा था। और बस यूं ही विचारों में डूबते उतराते अचानक याद आ गया अपने बचपन वाला पड़ोस।
ऐसा नहीं है कि आस- पास लोग नहीं रहते , या कि कोई किसी की शक्ल नहीं पहचानता। हैं अभी भी अगल-बगल, आगे पीछे मकान, पर इन वेल प्लॉन्ड कॉलोनीस में, टी.वी., मोबाइल के काल में वो मोहल्ले वाले पड़ोसी कहाँ, जब छत से छत ही नहीं जुड़ी रहती थी बल्कि छज्जे भी आपस में काना फूसी करते रहते थे और कानाफूसी का अंदाज भी कुछ ऐसा कि बतियाते थे दो छज्जे और सुनते थे पूरी गली के आंगन, रसोई सब। वो कोई दुराव छिपाव नहीं था न।
मन पगहा तुड़ा कर भागती बछिया सा दौड़ा चला जा रहा था उन बरसों पहले छूटी गलियों की ओर।
हमारी उस कॉलोनी में बारह- बारह घरों के ब्लॉक्स थे। कुछ ब्लॉक्स छः घरों वाले भी थे। हमारा बारह घरों वाला ब्लॉक था – आठ घर नीचे और चार ऊपर। नीचे वाले घर लम्बाई में बने थे, मतलब बाहर से सबका एक दरवाजा और एक खिड़की दिखती थी, बाकी घर उसी कमरे के पीछे और इस बाहर वाले कमरे के सामने थी खुली जगह जिसके चारों ओर बमुश्किल ढाई फीट ऊंची दीवार हुआ करती थी। उस बाउंड्री के बाहर हर ब्लॉक के सामने चौड़ा खुला मैदान सा होता था, जहाँ बच्चे खेलते थे, जाड़ों की दोपहर, चारपाई डाल अम्मा, चाची लोग स्वेटर बिनती थीं, मटर छीला करती थीं। होली से पहले पापड़, चिप्स सूखते थे और हम लोग उनकी निगरानी करते थे। सामान किसके घर का है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। जो भी जिस समय बाहर होता था वह सबके सामान को जानवरों से बचाता था। यह अनलिखा कानून था, साझेदारी का।
हमारा घर नीचे वाले घरों में तकरीबन बीच का घर था और हमारे घर के बाद एक घर छोड़ कर रहते थे अवस्थी चाचा जी। अवस्थी चाचा का घर था पाँच बेटों का घर और हमारा तीन बेटियों वाला। स्वाभाविक ही था कि हमारा घर अधिक व्यवस्थित और अनुशासित हुआ करता था। हम बहनों को बाउंड्री में चुपचाप बैठ पढ़ाई करते देख चाचा अक्सर अम्मा से कहते थे, “भाभी आप बहुत भाग्यशाली हो। हमारे यहाँ देखो पाँचो ठूठ के ठूठ।” यूं सुनने में बात भले कुछ खास न लगे पर बरसों पहले, गाँव के हाई स्कूल से आंठवा पास कर शहर आ नौकरी करते निम्न मध्यमवर्गीय एक गृहस्थ का तीन बेटियों की माँ से यह कहना कि वो भाग्यशाली है कि उनकी लड़कियाँ मन लगा कर पढ़ाई करती हैं, चाचा की सोच की गहराई का अंदाज दे जाती थी। आसमानी रंग की पॉपलीन की कमीज, पटरेदार पायजामा, तितर- बितर खिचड़ी बाल और अधिकतर फ्रेम ढीला हो जाने की वजह से आँखों से खिसकता रहता चश्मा – चाचा को देख कर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि पढ़ाई को ले कर उनके मन में कितना आग्रह पलता था।
चाचा अक्सर बमुश्किल अपने लड़कों को घेर कर लाते और बाउंड्री में चारपाई पर बैठ पढ़ाने की कोशिश में जुट जाते। चाचा के हाथ में उनके चेहरे के सामने होती पुस्तक और वे सस्वर पाठ कर रहे होते –
“थाल सजा कर किसे पूजने चले प्रात ही मतवाले…”
चाचा शायामनारायण पांडे जी की देशभक्ति से परिपूर्ण कलम से निकले भावों में पूरी तरह डूबे होते और उधर सामने बैठा उनका बेटा पप्पू बाउंड्री के बाहर गिल्ली- डंडा खेल रहे साथियों से इशारों ही इशारों में बातें कर रहा होता। बात ही नहीं कर रहा होता, अपनी बारी आने का इशारा पा बिल्ली की तरह बेआवाज कूद कर बाहर जाता और खेल कर वापस आ जाता। इधर चाचा पूरी तन्मयता से कविता पढ़ते और भावार्थ समझाते रहते। ऐसा हमने अपनी बाउंड्री में चारपाई पर बैठ पढ़ते हुए कम से कम दो तीन बार तो जरूर देखा। हमें बहुत आश्चर्य होता कि चाचा को पता कैसे नहीं चल पाता। कभी कभी दुःख भी होता कि कैसे बच्चे हैं, सबके सामने पिता की खिल्ली जैसी उड़ा देते हैं। कभी- कभी खीज भी छूटती चाचा पर क्यों अपनी हँसी उड़वाने पर तुले रहते हैं। अरे पढ़ाना ही है तो एलर्ट हो कर बैठे न!
फिर एक दिन हमसे रहा नहीं गया हमने चाचा से कहा, “आपसे कुछ बात करनी है, चाचा!”
“हाँ हाँ कहो, बिटिया” — मेरे गंभीर चेहरे को देख चाचा की आवाज भी गंभीर हो उठी थी।
“चाचा आप पप्पू को पढ़ाते -पढ़ाते खुद कविता में इतना खो जाते हैं कि आपको पता ही नहीं चलता कि वह कब जा कर गिल्ली- डंडा के एक आध दाँव मार आता है और फिर चुपके से आ कर आपके सामने बैठ जाता है। आप उसे मारियेगा नहीं, चाचा। हम उसकी शिकायत नहीं कर रहे, हम कह इसलिए रहे हैं कि सब लड़के फिर हँसी उड़ाते हैं, हमें अच्छा नहीं लगता। आप उसे क्यों जबरदस्ती पढ़ाने बैठाते हैं उस समय।”
चाचा के चेहरे पर अचानक कातरता की झीनी परत छा गई। हाथ तो मेरे सिर पर था पर नजर पता नहीं कहाँ बहुत दूर टिकी हुई थी, “सब पता चलता है बिटिया।”
“फिर? आप डाँटते तो हो नहीं उसे एक बार भी।”
“जोर जोर से बोलते हैं बिटिया कि उसके कान तक जायेगा तो शायद कुछ दिमाग तक भी पहुंचे, मन में भी उतरे। कुछ तो अच्छा असर हो शायद। और सच तो यह है बिटिया…” कहते कहते चाचा की आवाज जैसे भीग उठी थी, “उसे पढ़ाने के बहाने किताब पकड़ने पर अपने मन को थोड़ी तसल्ली मिलती है। आठवी के बोर्ड में जिला में प्रथम आये थे” उपलब्धि का हल्का सा सुख क्षणांश को उभर आया चाचा की आवाज में और फिर अगले ही पल एक निःश्वास सी निकली “फिर बस जिम्मेदारी…” और चाचा अचानक चुप हो गए।
कुछ था चाचा की आवाज में कि भीतर से बहुत जोर की रुलाई फूट रही थी। हम भाग कर घर आए और बाथरूम बंद कर खूब फूट- फूट कर रोये। बाथरूम में इसलिए कि घर में कोई पूछता तो हम क्या बताते कि हम क्यों रो रहे थे, जब कि उस समय हमें खुद ही ठीक से नहीं पता था।
अचानक हवा का एक तेज झोंका आया और हम जैसे तंद्रा से जागे। देखा तो सामने अमलतास, गमले में लगे समी और गुड़हल जैसे सिर हिला- हिला कर हमारे भीतर चलती यादों की कहानी पर हुंकारी भर रहे थे। भीतर बाहर का सन्नाटा यादों की गुनगुनाहट से भर उठा था। हम मुस्कुरा कर उठ खड़े हुए। शाम की चाय का समय हो चला था।