जयश्री का इकलौता पोता व उसकी गर्ल फ्रेंड एलिस, अमेरिका से अपने स्नेह बंधन की पोटली बाँध कर आशीर्वाद की गाँठ लगवाने भारत आये थे। खुशी के मारे उनके पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे, रह रह कर मुस्कुरा उठते, बार –बार एक दूसरे के गले में बाँहें डाल देते। वो दोनों एक दूसरे को चार वर्ष की उम्र से जानते थे। हाथ पकड़ कर जब दोनों प्री-स्कूल जाते तो एलिस की माँ जो उसी स्कूल में काम करती थी, उन दोनों के पीछे –पीछे चलते हुए शरारत भरी हँसी से हँस पड़ती थी। रजनीश एलिस को अपनी गर्ल फ्रैंड और एलिस रजनीश को अपना बॉय फ्रैंड कहती थी। उन दोनों का नन्हे फरिश्तों का सा, जोड़ा देख कर अनायास ही सब मुस्कुरा पड़ते थे। एलिस ने अपना नाम लिखने से पहले रजनीश के नाम का ‘आर’ लिखना सीखा। ऊपर बढ़ता चला गया वह दोस्ती, वह संग साथ कब प्यार – प्रेम में परिवर्तित हो गया पता ही नही चला? पता लगते ही दोनों खिलखिला कर हँस पड़े, “बाप रे बाप क्या हमारी दोस्ती को प्यार कहते हैं?”
“लेकिन राज, क्या ये प्यार है? “सशंकित एलिस ने प्रश्न किया, “यदि ये प्यार है तो हम नॉर्मल नही है, हमारे तुम्हारे बीच कभी वैसा कुछ नही हुया! नो, नो. लैट्स गो टू अ श्रींक।” और वो दोनों सचमुच मनोवैज्ञानिक चिकित्सक के पास चले गए। उनकी पूरी प्रेम कथा सुनकर डाक्टर ने अपना निर्णय सुना दिया था, “तुम्हारा रिश्ता बहुत सुन्दर, बहुत अनुपम है, मुझे पूरा विश्वास है कि तुम आधा दर्जन स्वस्थ बच्चों को जन्म दोगे।” क्लिनिक से बाहर निकलते ही एलिस ने कहा, “चलो घुटने टेक कर प्रपोज़ करो”
वाक्य पूरा होने से पहले ही रजनीश घुटने पर बैठ चुका था, एलिस उसके घुटने पर बैठ गई थी। शादी के फैसले को उन दोनों ने लेक्चर हाल में एनाउंस कर दिया था, एक शब्द एलिस ने कहा एक रजनीश ने “हम शादी कर रहे है।” ‘हुर्रा –हुर्रा” कर के सारे सहपाठी शोर मचाने लगे, उस रात खूब नाच गाना हुया, पागलों की तरह लौबी में पूरा क्लास मदहोश पड़ा रहा और उस रात उन दोनों के प्रेम ने एक नए रूप का अनुभव किया। उनका प्यार असीम सुख की अनुभूति प्रदान करने वाला था। वे पागलों की तरह नहीं, विवेकी मनुष्य की तरह प्रेम करते थे। उनके साथी उन्मुक्त तन, वस्त्र विहीन होकर मदहोशी की हद तक प्रेम को परवान चढाते थे, और उन्ही के बीच रहकर वे ऐसे लगते थे जैसे उग्र समुन्द्री लहरों के बीच एक सलोना द्वीप हो, द्वीप की ठंडी रेत पर दो सीपी पडी हो और उनके हृदय में प्रेम रूपी मोती पल रहा हो।
पिछले सप्ताह अवकाश लेकर दोनों भारत के कुर्ग (कर्नाटक) आये थे। कुर्ग में रजनीश के दादाजी की बड़ी भारी कॉफी एस्टेट थी। दादाजी की आकस्मिक मृत्यु के कारण रजनीश के माता –पिता लगभग दस वर्ष पहले भारत लौट आ गए थे। माँ सुनन्दा को हृदय रोग था वे अमेरिका से लौटने के बाद जल्दी ही मात्र दो वर्षों बाद ही स्वर्ग सिधार गईं थी। दादी बूढी हो चली थी, रजनीश के पिता कार्तिकेय स्वरुप, इकलौते बेटे व एस्टेट के वारिस थे। रजनीश की पढ़ाई वहीं अमेरिका में चलती रही थी।
कार्तिकेय की दो चचेरी बहनें थी, जिनके बंगले भी एस्टेट पर थे। एस्टेट पर तीन बंगले थे, मुख्य व सबसे भव्य बंगले में रजनीश के पिता और दादी जयश्री रहती थी। बाएँ ओर समीरा आंटी व् उनके अय्याश पति, रिटायर्ड कर्नल बैंकट अयप्पा, जिन्होंने आर्मी में शोर्ट कमीशन लेकर कुछ साल अफसरी की, और अब सिर्फ ऐश करते थे। वो अक्सर गायब रहते थे सुनने में आया था कि मुंबई में किसी महिला मित्र के साथ रहते थे जो आर्ट कनोसियर थी, वो देश –विदेश में घूम –घूम कर दुर्लभ, बेशकीमती पेंटिंग्स, जेवरात, मूर्तियां,फर्नीचर, क्रोकरी आदि संग्रह किया करती थी। कर्नल जब भी आते दादी के बंगले से कोई न कोई एंटीक चीज चुरा कर ले जाते। समीरा आंटी और उनका सम्बन्ध शिकारी कुत्ते और शिकार का सा था, उनकी दुर्गन्ध पाते ही वो उन पर झपट उठती ओर वे अपनी जान बचाकर भाग खड़े होते। उनका एक बेटा भी था, गोविन्द, जो शारीरिक रूप से दस वर्ष का था किन्तु मानसिक रूप से दो तीन वर्ष का था, मानसिक रूप से अविकसित।
दाएँ ओर के बंगले में संध्या आंटी ओर उनके मस्त मौला पति सोमेश्वर रहते थे, वे नि:संतान थे। सोमेश्वर, कवि, गायक, पेंटर अधिक और व्यापारी कम थे। गोल्फ खेलना, सितार बजाना, किताबें पढ़ना और फिलौसिफिकल चर्चायों में भाग लेना, इसी में सब में अपना समय व्यतीत करते थे। अतः खर्चे अधिक और कमाई कम होती थी। हिसाब किताब देखना नौकर चाकरों से काम लेना उनकी फितरत से मेल नही खाता था। संध्या आंटी में मानवीय संवेदना कूट कूट कर भरी थी। दादी अक्सर कहती थी,” अरी इन आउट- हाउस वालों पर सब लूटा देगी?”प्रतिउत्तर में वो भोली सी हँसी हँस देती।
एस्टेट देख कर एलिस तो जैसे पगला गई थी। हाथियों का झुण्ड देखकर ताली पीट कर नाच उठी, दादी के प्यारे पांच अंगुली के सामान कुत्ते, तीन इरानी बिल्लियाँ और बड़ा सा फिश पोंड, स्वीमिंग पूल और वो दुर्लभ प्रजाति के कछुए का जोड़ा जो थाईलैंड से लाया गया था, सभी का लाडला था, रंगीन जो था। शादी वादी भूल कर एलिस मदमस्त हिरणी सी सारी एस्टेट में छलांगे मारती फिरती। दादी जिन्हें सभी अम्मा कहते थे, उन्हें उसकी सुरक्षा की चिंता सताती रहती। परन्तु वो तो थी मोगली का अवतार।
अम्मा ने अपनी लाडली पोत बहू के लिए डिज़ाइनर लहंगे, ओढ़नी, साडियां चोली, चूडी बिंदी सब पहले से तैयार कर रखा था। बंगले का सबसे खूबसूरत कमरा पेंट-पॉलिश करवाकर दूल्हा – दुल्हन के स्वागत में संवरा खडा था। मुंबई,चिन्नई, बैंगलोर से खाने पीने की विशिष्ट सामग्री मंगवाई गई थी। सिंगापुर, मलेशिया से फूल आये थे। एस्टेट की सजावट निराली और एकदम राजसी थी। लगभग आठ सौ मेहमान अपनी लंबी कारों में पधारे थे रजनीश और एलिस के जोड़े को देखकर सभी एक स्वर में,वाह क्या जोड़ा है, रजनीश सुन्दर सुडौल लंबा खूबसूरत फिल्मी, स्टार के जैसा और एलिस तो वैसे ही बहुत सुन्दर थी, कीमती जेवरात पहने किसी अप्सरा से कम नही लग रही थी। “ये शादी कई बरसों तक चर्चा का विषय बनकर रहेगी” लोग वाह वाह करते नहीं थक रहे थे। लगभग एक सप्ताह तक विवाह समारोह चलते रहे, किन्तु शादी के मंडप में हवन की राख अभी ठंडी नही हो पाई थी, शनैः शनैः लौटती कारों की रियर लाईट घाटी की सर्पदार सड़कों पर विलीन हो रही थी, अभी – अभी ब्याहता जोड़े के चेहरे पर थकान के प्रथम चिह्न आने वाले थे कि बड़े हाल वाले कमरे के साथ चिपके दालान से चीरती आवाज़ ने सबको चौंका दिया!
“अम्मा, अम्मा, अम्मा हाय अम्मा का क्या हो गया?”
नंगे पैर, शब्द भेदी बाण की तरह, सबके पैर उसी दिशा की ओर भाग खड़े हुए। दालान में सटे बरामदे में एक बड़ा सा लकडी का तख्त था, वो ही अम्मा का बेडरूम, ड्राइंग रूम, विज़िटर रूम सब था। उसी तख्त पर बैठ कर वे ३६५ में से ३६५ दिन गुजारती थी। डाक्टर, वकील, एस्टेट के मैनेजर, मेहमान, नौकर -चाकर, सब का दरबार वही लगता था। भूरे रंग का लेब्राडोर “टाइगर” चौकी के पाए पर पहरा देता था और उनके प्यारे मकायू अफ्रीकन तोते, लाल, भूरे, नीले हरे रंग का जोड़ा उनके कन्धों पर ऐसे विराजित रहता था जैसे वो अम्मा न होकर किसी रेन- फोरेस्ट का जंगली विशालकाय पेड़ हो, चौकी के नीचे उस पेड़ का निर्जीव पैर लटका पड़ा था, और तोतों का जोड़ा आँखे मूंदें अपनी गर्दन उनकी बगल में समेटे खामोश पड़ा था।
“हाय, अम्मा क्या पोते का ब्याह देखने भर को ज़िंदा थी।” शोकाकुल रुदन।
“और नहीं तो क्या (बुढ़िया…) कहते- कहते रुक गई समीरा आंटी, अम्मा को बस एक ये ही साध थी।”
चील जैसी नज़र, तकिये के नीचे पडी लाल मखमल की कवर वाली फ़ाइल पर पडी और बाज़ की तरह झपट कर उसने उसे दबोच लिया। “अम्मा की वसीयत”
समीरा ने आव देखा न ताव, तुरंत फ़ाइल खोली और उसे पढ़ने लगी, पढते ही आग बबूला हो गई, लगी ताबड तोड़ गालियों की बरसात करने। जिस भाषा शैली का उन्होंने प्रयोग किया उसका एक- एक शब्द एलिस के दिल को छलनी करता चला गया, जिस स्नेह बंधन की गांठ बंधवाने वे भारत आये थे। उसे समीरा आंटी ने महज़ “एक सोची समझी चाल” का नाम दे दिया।
“अरे ये छोडी हुई नौकरानी की छोकरी ने हमारे भोले भाले राज को फंसा लिया! इसको, इसकी फ—-माँ ने कभी मिलियन डॉलर देखे है, उसे पता भी है उसमें कितने जीरो लगते हैं?”
“छोडी हुई माँ, आया, नौकरानी” जैसे चुभनशील बाणों ने एलिस का हृदय तार तार कर डाला था। एलिस की आर्थिक स्थिति व उसकी माँ का स्टेटस कुछ भी नहीं था। उसके पास आलीशान बंगला कार कुछ भी नहीं था। माँ इटालियन थी व पिता अमेरिकन। माँ का नाम सोफी था, तेरह बरस की नासमझ उम्र में अमेरिकन लड़के जेसन प्रेम में पड़ गई थी। जाल में ऎसी उलझी कि उससे शादी कर ली। घरवालों ने उसे समझाना चाहा, तो दोनों भाग कर न्यूयॉर्क चले गए। पढ़ाई स्वाहा हो गई, जल्दी- जल्दी, तीन बच्चे पैदा हो गये, दोनों के पास न तो ढंग का घर था न नौकरी, तीन अबोध बच्चों व गृहस्थी से मुँह चुरा कर जेसन भाग खडा हुया था, अपने से तीन गुना बड़ी उम्र वाली किसी फ्रेंच मिलियनर के साथ रहने लगा, इसे पैसा चाहिए था उसे मर्द का शरीर। महज़ पच्चीस वर्ष की सोफी पर तीन बच्चों को पालने का जिम्मा आ पड़ा, परन्तु उसने किसी के आगे हाथ नही फैलाए, न रोई, न धोई, न गिडगिडाई। जितना रोना था, वो उस रात रो ली थी। जिस रात जेसन उसे छोड़ कर भाग गया था। प्रसव पीड़ा के समान असहनीय पीड़ा से पीड़ित वो तकिये में मुँह छिपाकर पूरी रात रोती रही। सुबह होते- होते जैसे उसका पुनर्जन्म हुया था। तीनों बच्चों ने अपनी माँ को, न कभी झुंझलाते देखा था न कभी फूटी तकदीर का रोना रोते। देखा था तो उसका अथक परिश्रम, अनंत ममता में लिपटा मात- प्रेम। उसने चाइल्ड केयर में काम किया, बेबी सिटिंग की, शॉपिंग माल में काम किया, जहां पैसे मिलते वो वहीं काम कर लेती थी। एलिस ने अपनी माँ के मुँह से पिता के बारे में न कभी क्रोध में दुर्वचन सुने थे, न शिकायत, न गाली गलौज सुनी थी। जिस घर में वो पली थी वहाँ सब के हाथ एक दूसरे को देने के लिए उठते थे। सब एक दूसरे को अपने हिस्से का सुख देने को तत्पर रहते थे। जिस धरातल पर वो पली थी उसके पैरों के नीचे की धरती, सहनशील, स्नेहमयी व समतल थी।
“दादी ने अपनी वसीयत में सारी एस्टेट ,सारी जायजाद रजनीश और एलिस की भावी संतान के नाम लिख दी है।“
समीरा आंटी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया था। जिसे कल ही बेशकीमती हीरो का हार प्रेजेंट किया था आज उसका गला घोटना चाह रही थी। जिसकी कलाई में कीमती रोलेक्स घडी बांधकर अभिमान दिखा रही थी उसी रजनीश की कलाई मरोड़ कर उसे समाप्त करने का उसका इरादा बन रहा था। समीरा आंटी को चुप करा सके इतना दम ख़म किसी में नही था। वो कहते है न कि ‘करेला और नीम चढ़ा’। पैसे का अभिमान सदैव दूसरे के स्वाभिमान को निगलने का आतुर रहता था। वो वैसे भी कभी किसी से सीधे मुँह बात नही करती थी। गिफ्ट भी ऐसे देती थी जैसे लेने वाला भिखारी हो और बखेर में लुटाए पैसे बटोर रहा हो।
अपनी खुद की जायदाद तो कम ही थी, किन्तु अम्मा और संध्या की संपत्ति पर भी वो ही राज करती थी, पूरी जायदाद को संभालने वाला कोई नही था। कार्तिक स्वरुप एक लॉ अबिडिंग सिटीजन थे। टैक्स के तमाम कायदे – कानून का पालन करते थे। मानवाधिकार, पर्यावरण की संरक्षा आदि की तरफ उनका विशेष ध्यान था। उनका केन्द्र बिंदु पैसा न हो कर सबकी रक्षा करना, प्यार करना, सेवा व दान करना अधिक था। अतः एस्टेट के फलों से जूस कैसे निकाला जाता है, वो कला तो सिर्फ समीरा आंटी को आती थी। बाक़ी सब उसके मूक दर्शक थे। या यूँ कहा जाय कि काली या सफ़ेद तरह से मुनाफ़ा कमाने जैसा शातिर दिमाग किसी का था तो सिर्फ उनका। उनके पैनें सींग ठीक उसी दुधारी काली गाय की तरह थे जो दूध भी देती थी और दुलत्ती भी मारती थी। “ये तुम्हारे लिए किताबें, गोल्फ के क्लब और बौलें ,पेंटिंग का महंगा सामान कहाँ से आता है?”
अभी कुछ दिन पहले संध्या के पति के खाते को डेबिट में दिखाते हुए बताया था। भारतीय रूपये को तो वे छूत की बेमारी की तरह बरतती थी। विशुद्ध अमेरिकन डौलर, यूरो व् पौंड उनकी सर्वप्रिय करेंसी थी। एलिस की एक सहेली, कैथरीन सिंगापुर से थी शादी में सम्मलित होने आई थी। समीरा आंटी ने बेबाकी से उससे उसका वेतन (पैकेज) पूछा डाला, किसी से किसी की आर्थिक स्थिति का जायजा लेना कितनी अभद्रता प्रकट करता है। परन्तु समीरा आंटी को भद्रता व अभद्रता से कुछ लेना देना नही था। कैथरीन ने गर्वपूर्वक बताया कि उसकी कंपनी ने “पिचहत्तर हजार डॉलर का पैकेज दिया।“
समीरा आंटी ने व्यंग्यपूर्वक कहा, “ सिंगापुर डॉलर! डार्लिंग, सिंगापुर डॉलर! सिंगापुर डॉलर का इंटर-नेशनल मार्किट में मोल ही क्या है?”
कैथरीन का मुहं खुला का खुला रह गया था । किन्तु उनका अपना सारा व्यापार, मलेशिया, सिंगापुर होता हुया यूरोप के बाज़ारों में जाता था। किसे नहीं मालूम कि दादी के बारह टस्कर (हाथी दांत वाले हाथी) के दांत कहाँ और कौन, एक- एक कर गायब करवा रहा था। किसे नहीं मालूम, एस्टेट से चन्दन के पेड़ों की तस्करी कौन कर रहा था। कॉफी के बागानों से ले कर खूबसूरत वृक्षों का टिम्बर कौन बना रहा था? दादी के बंगले से बारीक कारीगरी वाले झरोखे व दरवाजे बदल कर नए डिजाइन की खिड़कियाँ और दरवाजे कौन और क्यूँ लगवा रहा था!
समीरा आंटी कर्कशा हृदयहीन महिला भी थी, परन्तु पारिवारिक संबंधों की राजनीति में वो निर्मम चाणक्य होगी। इसका पता उस दिन चला जब रजनीश और एलिस विदा लेने उनके पास पहुंचे, उस दिन तो उन्होंने हद ही कर दी थी, उनके सिर पर हाथ रख कर दांत भींच कर आशीर्वादी शब्दावली में श्राप दे डाला था, “सदैव संतान हीन रहो।”
सुनने वालों के कान जलने लगे, रजनीश और एलिस का तन और मन ठन्डे बर्फ सा हो गया और उसी समय, पहली बार संध्या आंटी ने आगे बढ़कर कहा, “इसके कहने से क्या होता है, मैं आशीर्वाद देती हूँ कि तुम्हारे एक दर्जन बच्चे हो।” संध्या ने बाकायदा पूजा घर में ले जाकर एलिस की गोद में, नारियल, फल फूलों आदि से गोद भरी। एक दूसरे का हाथ थाम कर वे दोनों शिथिल क़दमों से वापिस लौट गए।
एक दर्जन बच्चों का सपना, सपना ही रह गया। उनके कोई भी संतान नही हुई, सोचा गोद ले लें परन्तु मन तो जैसे बुझ गया था। उनके कानों के पर्दों पर; “सदैव संतान हीन रहो का दोहा दोहराता रहता था।” मर्माहत से हो जाते वे दोनों। एक दूसरे के गालों पर बहते आँसुओं को अपने होठों से पोंछते कभी- कभी तो सारी रात जागते रहते और अपने उन बच्चों के नाम जो उन्होंने बहुत पहले रख छोड़े थे, उन्हें ले लेकर कल्पना जगत में विचरण करते रहते, “जेन स्विट्ज़रलैंड के आल्प्स पर स्कीइंग करने जाना चाहती है।”
“हाँ मैं उसे इस साल समर कैम्प में भेज दूँगा”
“लारा को पियानो सीखना है”
“जैक टेनिस स्टार बनेगा”
“हाँ मुझे याद है उसका रजिस्ट्रशन करवाना है”
और भी न जाने क्या-क्या मंसूबे बाँध रखे थे उन्होंने। वो दोबारा लौट कर भारत कभी नही आये। कैकई रूपा समीरा आंटी एस्टेट रुपी राज्य पर गोविन्द का राज्याभिषेक करवा कर स्वयम पटरानी बनना चाहती थी।
अतः एक बार रजनीश आया था, कागजात पर दस्तखत करने अकेला ही आया था। वृद्ध पिता को साथ ले जाना चाहता था, परन्तु वे नहीं गए। उनकी पेंशन बांध दी गई थी जो उनके साधारण से जीवन के लिए बहुत थी। न जिम्मेदारी उनकी, न कमाई उनकी, न साझेदारी उनकी। कुशान्ग्रा समीरा ने सबको जिम्मेदारी से बरी कर दिया था, संपत्ति से भी ,काम काज से भी। सबकी एक फिक्स आय का बंदोबस्त कर डाला था।
“ठाट से रहो। घर से बाहर तो नहीं निकाल फेक रहीं हूँ!” समीरा ने दादी के पुराने वफादार मैनेजर को आउट हाउस में शिफ्ट करते हुए अपमानित करते हुए उसे “निकम्मा” कहकर उसका सामान बाहर फिकवा दिया था। एस्टेट से बाहर भी फिकवा देती परन्तु उसके पास इतना काम था, बेहिसाब संपत्ति को काबू में लाना ही मुश्किल था। खाली दिमाग होता तो और शैतानी करती। ऐसे में सस्ता और टिकाऊ नौकर कम मैनेजर को रख कर उस पर एहसान जताया था।
जिस समय रजनीश अपनी एस्टेट को ट्रांसफर करने कुर्ग आया था तब संध्या आंटी ने उससे बहुत विनय की थी कि वो दुष्टा समीरा के गोविन्द को सारी एस्टेट न दे। कहा था, “राजू तू यहाँ से एक पत्ती भी नही ले जाता! अपना नाम, अपना हक तो मत गँवा?”,“हमारी खुशी को जो पिशाचिनी एस्टेट खा गई, उसको रख कर हम क्या करेंगें। हमारे अजन्मे बच्चे, जन्म लेने को तरस गए। एलिस रात- रात भर जाग कर लारा को लोरी सुनाती है, जब तक लारा सोती है, जैक उठ कर रोने लगता है!”
रजनीश की बातें सुन कर संध्या की आँखों से पहाडी झरने की तरह अविरल आँसू बह निकले।
लगभग छः साल बाद जब रजनीश के पिता का देहावसान हुया तो संध्या ने फोन पर शोक समाचार सुनाया, प्रतिउतर में दीवाना सा रजनीश बोला, “आंटी मैं तो नही आ पाऊँगा। कल रात ही एलिस ने इसाबल को जन्म दिया है, एलिस को मेरी यहाँ जरूरत है, वो अस्पताल में है।”
“अच्छा ये तो बहुत बड़ी खुशखबरी है तुम दोनों को बहुत बहुत बधाई, काश कि तुम्हारे पापा ज़िंदा होते वे भी पोती का मुँह देख लेते।”
“हाँ, मैं भी ये ही सोच रहा था, किन्तु आंटी अभी मुझे बहुत काम है, जैक, लारा, जेन और केट को स्कूल से लाना है, एलिस और इसाबल को अस्पताल से घर लाना है, हम पापा के लिए प्रेयर करेंगे, मैं आपको अपने बच्चों की फोटो भेज दूंगा।”
कह कर रजनीश ने फोन रख दिया। हतप्रभ सी संध्या हाथ में फोन लिए बैठी रही। बच्चों की फोटो? कौन से बच्चे? कैसे बच्चे? क्या रजनीश पागल हो गया था? क्या उसका मानसिक संतुलन बिगड गया था? क्या सचमुच एलिस को प्रसव पीड़ा हुई? क्या वास्तव में इसाबल का जन्म हुया था? या इसाबल भी उसके काल्पनिक गर्भ से उत्पन्न एक और संतान थी? वो तो उससे ये भी नही पूछ पाई कि उसने अपने काल्पनिक बच्चों के नाम विदेशी क्यों रखे, कैसे पूछती, क्यों कर पूछती? देश ने स्वदेश ने उसे दिया ही क्या था?
“क्या सचमुच इसाबल का जन्म हुया था, प्रश्न उसे न सोने दे रहा था न जागने। व्यग्र संध्या का मस्तिष्क हर क्षण उस रहस्य में घूमता रहा। रहस्य- रहस्य ही रह जाता अगर एक हफ्ते बाद विदेशी टिकिट वाले लिफ़ाफ़े को खोल कर नही देखा होता। लिफाफा हाथ में थामे वो बड़ी देर तक उसे देखती रही, खोलते समय उसके हाथ कांप रहे थे। एक भूतिया एहसास उसे दबोच रहा था। क्या होगा इस लिफ़ाफ़े में? डरते- डरते उसने उसे खोला। अंदर से एक गोल- मटोल, गुलाबी गालों वाली, नीली बिल्ली सी आँखों वाली, एकदम गुडिया सी खूबसूरत नन्ही बच्ची का फोटो देख कर संध्या का चेहरा खिल उठा, खुशी के मारे वो पगला गई। दोनों हाथों से ताली पीट उछल पडी। संलग्न था रजनीश का नोट “हमने इसका नाम रखा है, “इसाबल जैक लारा केट जेन।”
यह कैसा नाम था? कितना विचित्र था? सचित्र क्या था? विचित्र तो सबका ही चरित्र था, उसका, उसकी बहन समीरा का और इस खूबसूरत बदसूरत एस्टेट का!