शाम होने में कुछ ही घंटे शेष थे और गाँव की खेत और खलिहानों से किसान अपने-अपने हल बैलों को लेकर लौटने की तैयारी करने लगे थे। बिरजू भी गप्पें मारता कुछ फल सब्जियाँ बैलगाड़ी में लादे गाँव की तरफ निकलने की तैयारी कर रहा था। अभी वह निकलने की सोच ही रहा था कि तभी उसका पड़ोसी, मंगलू दौड़ता-दौड़ता उसकी तरफ आता दिखाई दिया। उसे बदहवास दौड़ते देखकर बिरजू और उसके साथ खड़े सभी किसान थोड़े हैरान हुए- “यह आलसी मंगलू, जो एक गिलास पानी लेने के लिए उठता नहीं है, आज क्या बात हो गई कि इस तरह दौड़ा चला रहा है?” मंगलू भागता हुआ सीधा बिरजू के पास आ पहुँचा और हाँफता-हाँफता कहने लगा-” बिरजू तेरी घरवाली के दर्द शुरू हो गया है.. लगता है, बच्चा आज ही हो जाएगा.. मेरी जोरू है उसके पास… तू जल्दी से डॉक्टरनी साहिबा को बुला ला.. जुगनी अम्मा भी आ रही है। ” फिर वापस उसी तरह दौड़ता हुआ घर की तरफ लौट पड़ा।
बिरजू की पत्नी, सुजाता गर्भ से थी और नौवाँ महीना चल रहा था। वैसे तो बिरजू की पहले से ही दो बेटियाँ थीं परन्तु, इस बार वह बेटे की आस लगाए बैठा था। गांव की प्रसव कराने वाली पुरानी दाई, जुगनी अम्मा ने भी अपनी अनुभवी आँखों से यही भविष्यवाणी की थी कि इस दफा तो चाल देखकर ही लगता है कि बिरजू के घर लड़का होगा। जुगनी अम्मा का कहना मतलब गाँव के लोगों के लिए ब्रह्म-वाक्य…बिरजू को जुगनी अम्मा की बात पर बहुत भरोसा था क्योंकि अभी तक उसकी भविष्यवाणी कभी गलत नहीं हुई थी। हालांकि, बिरजू ने अपनी पत्नी सुजाता से कह रखा था कि कैसे भी करके इस दफा लड़का ही जनना होगा, बेटी हुई तो मैं दूसरा ब्याह कर लूँगा। सुजाता भी बहुत डरी हुई थी पर जब जुगनी अम्मा ने कहा कि लड़का ही होगा तो उसे भी इत्मीनान हो गया। यूँ तो बिरजू सुजाता से प्यार करता था, लेकिन, सुजाता का सोचना था कि मर्दाना बुद्धि का क्या भरोसा..? मन लायक बात न हुई तो कौन जाने सचमुच ही दूसरा ब्याह कर डाले..। सुजाता बिरजू के झक्कीपने को अच्छी तरह से समझती थी, इसीलिए जुगनी अम्मा के कहे के बावजूद थोड़ी डरी हुई सी रहती थी। जब प्रसव का दर्द शुरू हुआ तो सुजाता बहुत घबरा गई और अपने पड़ोसी मंगलू के मार्फत बिरजू को बुला भेजा। मंगलू की बात सुनकर बिरजू अपनी बैलगाड़ी को गांव में बने छोटे से दवाखाने की तरफ भगाने लगा।
डॉक्टरनी साहिबा को लेकर जब बिरजू घर पहुँचा तो घर के अंदर और बाहर दरवाजे पर औरतों की भीड़ जमा थी और जुगनी अम्मा किसी सीनियर डॉक्टर की तरह प्रसव के इंतजाम में लगी थी। सरकार की तरफ से नियुक्त आशा भी आ चुकी थी और बिरजू तो डॉक्टरनी साहिबा को ले ही आया था। सभी मिलकर प्रसव की तैयारियों में जुटी थीं। थोड़ी ही देर में तैयारियाँ पूरी हो गयीं और अब बस घर के चिराग के इस दुनिया में आने का इंतजार था। बिरजू मन ही मन हिसाब लगाने लगा-“दस रूपये के लड्डू पुराने वाले बरगद देवता को, गांव के मंदिर में पच्चीस रूपये,बगल के गांव के पीर बाबा पर पचास रूपये की चमचम करती चादर,जुगनी अम्मा की नई साड़ी, डॉक्टर की फीस,दवाई का खर्चा-सब मिलाजुला कर करीब हजार-दो हजार रुपए तक का खर्च होगा…चलो,कोई बात नहीं बेटा पाने के लिए इतना तो किया ही जा सकता है.. जरूरत पड़ी तो सौ- दो सौ उधार ले लिया जाएगा… आखिर यही बेटा तो आगे चलकर खेती-बाड़ी देखेगा, बुढ़ापे का सहारा बनेगा, फिर क्या सोचना..?” बिरजू के मन में अभी हिसाब-किताब चल ही रहा था कि बच्चे की रोने की आवाज से बिरजू की तंद्रा टूटी।
आँखों में चमक सी आई और मुख पर हल्की सी मुस्कान- घर का लाल आ पहुँचा था। सब बिरजू को बधाई देने लगे-“चलो, दो बेटियों पर एक बेटा.. बड़ा ही लाडला होगा तेरा बेटा। ” बिरजू ने गर्व से अपनी बैलगाड़ी की तरफ देखा,मानो बैलों से कह रहा हो,”ले आ गया तुझ पर सवारी करने वाला, तेरा नया मालिक। ” बैलगाड़ी में जुते बैल भी गर्दन हिला-हिला कर, गर्दन में लगी घंटी को टुनटुन करते हुए बधाई देने लगे। तभी अंदर से कुछ खुसर-फुसर की आवाज आयी। दरवाजा खुला और गाँव की आशा ने आकर बताया कि बेटा नहीं, बेटी हुई है।
“क्याsss.. बेटी..?..नssहीं..ऐसा अन्याय नहीं हो सकता मेरे साथ..कितनी मिन्नतें की थीं.. हा देव” बिरजू वहीं धम्म से जमीन पर बैठ गया और अस्ताचल पर टहलते हुए सूरज को देख कर बोला-“हे भगवान,यह क्या कर दिया..?.. फिर से बेटी दे दी..दो तो पहले से ही माथे पर थीं….अब तीसरी भी..?अब कौन सँभालेगा मेरी दो बीघा जमीन..? इन छोकरियों के ब्याह में कहीं बिक ही न जायें..?.. कौन बनेगा मेरे बुढ़ापे का सहारा…?..हे भगवान…इतनी मन्नतें कीं पर तुमने जरा सी भी दया नहीं दिखाई.. ” बिना कुछ बोले,सिर पर हाथ रखे बिरजू अब अपने भविष्य की चिंताओं में व्यस्त हो गया- बेटी की देखभाल, परवरिश,ब्याह,दहेज.. वगैरह वगैरह।
भीड़ छँट चुकी थी और धीरे-धीरे सब औरतें भी जाने लगी थीं। बाहर बिरजू सिर पकड़ कर बैठा था और अंदर डॉक्टरनी साहिबा आशा के साथ प्रसव के बाद की प्रक्रिया में जुटी थीं। बिरजू की दोनों बेटियाँ बाहर ड्योढ़ी पर बने चबूतरे पर बैठीं कभी लोगों को आते-जाते देख रही थीं तो कभी पिता को माथा पकड़ कर उदास बैठे हुए। उन्हें आश्चर्य इस बात की हो रही थी कि अगर बेटी ही हो गई तो क्या हो गया..? बेटी भी तो वह सब कुछ कर सकती है, जो बेटा कर सकता है। आखिर पिताजी को इतना दुख क्यों हो रहा है..?उन्होंने तो अपनी सहेली के मोबाइल में लड़कियों को पढ़ते,पढ़ाते, खेती करते,ट्रैक्टर चलाते,हवाई जहाज उड़ाते,ट्रक चलाते ,ट्रेन चलाते- सब कुछ तो करते देखा है..अगर शहर में लड़कियाँ यह सब कर सकती हैं तो गाँव में रहकर वे दोनों क्या ये सब नहीं कर सकतीं..?ऐसा क्या है कि लड़का ही सब कुछ कर सकता है या जिम्मेदारियाँ उठा सकता है..?लड़कियाँ भी जिम्मेदारी उठा सकती हैं.. घर की भी और बाहर की भी। उन्होंने तो शहर की लड़कियों को मोबाईल और टीवी में सब कुछ करते देखा है..तो..जब शहर की लड़कियाँ सब कुछ कर सकती हैं तो हम गाँव की लड़कियाँ क्यों नहीं कर सकतीं..?पिताजी नाहक ही परेशान हैं…आखिर डॉक्टरनी साहिबा भी तो लड़की ही हैं न..! आशा भी लड़की है, फिर, मुश्किल क्या है..? दोनों बहनों ने एक-दूसरे को देखा और बिरजू के पास जाकर कहने लगीं–” पिताजी, तुम दुखी मत हो, हम लड़कियाँ हैं तो क्या हुआ..? हमलोग ध्यान रखेंगे तुम्हारा और माँ का.. अब तो लड़कियाँ भी वह सब कुछ कर सकती हैं,जो लड़का या बेटा कर सकता है। हम पढ़ेंगीं और तुम्हारे सभी सपने पूरे करेंगीं…जब शहर में लड़कियाँ सब कुछ कर सकती हैं तो हम क्यों नहीं कर सकतीं..?हमारे ब्याह की चिंता मत करो बाबूजी,हमें ब्याह भी नहीं करना है..हम यहीं रहेंगी, तुम्हारे और अम्मा के पास…तुम दुखी मत हो ..” कह कर दोनों नन्हें हाथों से बिरजू के गाल सहलाने लगीं।
बड़ी चंपा,दस साल की और छोटी दुर्गा, छः साल की थी। इतनी छोटी सी उम्र में दोनों के मुख से ऐसी आत्मविश्वास से भरी बातें सुनकर और उनके प्यार भरे स्पर्श पाकर बिरजू आश्चर्य में पड़ गया। मन ही मन सोचने लगा- “क्या ये वही बच्चियाँ हैं, जो उसके घर में आने पर कहीं दुबक जाती थीं?… पत्नी पर गुस्सा करता था तो कई दिनों तक डरी- सहमी सी रहती थीं..?इतनी छोटी हैं, पर देखो तो, कितने आत्मविश्वास से समझा रही हैं मुझे..!” अंदर से किसी ने उसे धिक्कारा-“कैसा बाप है तू ?बेटियों को क्यों कमजोर और बोझ समझता रहा आज तक..?..ठीक ही तो कह रही हैं दोनों.. जब शहर की बेटियाँ बेटों की तरह सब कुछ कर सकती हैं तो गाँव की बेटियाँ क्यों नहीं कर सकतीं..? किसी ने अंदर से जोर से डपट कर कहा- तुझसे अच्छी, समझदार और निडर तो तेरी बेटियाँ हैं.. कैसा डरपोक निकला तू तो.. अपने ही बच्चों के बेटा-बेटी होने में ऐसा फर्क देखता है और डरता है?.. बेटा कौन सा तेरे हिसाब से ही चलने वाला है? कहीं जोरू के हिसाब से चला और खेत,घर सबका बँटवारा करवा कर खेती-बाड़ी बेच डाली तो..! पियक्कड़, जुआरी, शराबी या बदमाश निकला तो..? कहाँ रहेगा धन और कहाँ रहेगी तेरी इज्जत..?” अंदर की आवाज ने उसे झकझोर डाला। बिरजू तो मानो नींद से जागा। बेटियों के नन्हें कोमल स्पर्श ने उसके अंदर बरसों की जमी दकियानूसी सोच की मैल को साफ कर दिया था। उसे साक्षात दुर्गा और लक्ष्मी दिखाई दे रहीं थीं। प्रेम और पाश्चाताप की गंगा उमड़ कर आँखों के रास्ते बहने को तैयार थी। उसने चंपा और दुर्गा दोनों बेटियों को गले से लगा लिया।
तभी डॉक्टरनी साहिबा बाहर निकलीं और धीरे से बेटी होने की बात कही। बिरजू कहने लगा- “कोई बात नहीं डॉक्टरनी साहिबा,अब अक्ल ठिकाने आ गई है मेरी…बेटियाँ भी बेटों से कम नहीं.. आप ही की तरह डॉक्टरनी बनाऊँगा इस बेटी को… कहाँ है मेरी बेटी..?” डॉक्टरनी साहिबा मुस्कुरा उठीं और उसे अंदर जाने को कहा। बिरजू ने जाकर नन्ही सी बच्ची को गोद में उठा लिया और पति के दूसरे ब्याह करने के डर से सहमी पत्नी सुजाता को दिखाते हुए कहने लगा- “देख सुजाता, यह तुझ पर गयी है.. सरस्वती नाम रखेंगे इसका.. इसने आते ही मेरी जड़ बुद्धि बदल दी है। तू चिंता मत कर, कोई बेटा- वेटा नहीं चाहिए मुझे.. अब हम दोनों अपनी बेटियों को खूब पढ़ाएँगे और बेटों की तरह इंजीनियर, डॉक्टर बनाएँगे। ” पत्नी मुस्कुरा उठी।
दकियानूसी सोच के काले बादल बिरजू के दिमागी आसमान से छँट चुके थे और ढलते सूरज की लालिमा से आसमान रंग बदल रहा था। आंगन से सटे बगीचे में बुलबुल गा रही थी- “लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया, पिया की पियारी भोली-भाली रे दुल्हनियाँ..” सुजाता ने बिरजू का हाथ पकड़ लिया और बेटी को देखकर मुस्कुराने लगी।