“ये जो पैसे वाले होते हैं ना, इन्हें नींद थोड़े आती”, मामा ने पव्वे की आखिरी बूंद चाटते हुए कहा, “ये लोग तो सोने के लिए भी नींद की गोलियां खाते, नींद तो हम जैसे मेहनतकश लोगों को आती है, कब बिस्तर पर गिरे कब सोए पता ही नहीं चलता”
गुरिंदर को मामा की बात खास पसंद नहीं आई, वैसे तो उसे मामा की कोई भी बात पसंद आती ही नहीं, पर पसीने से भीगे बदन पर मच्छरों के हमले से त्रस्त वो और भी खीझ उठा। उस पर ये भी नहीं पता कि बिजली कब आयेगी। आयेगी भी या नहीं।
गांव से आंखों में कुछ बनने का ख्वाब लिए गुरिंदर शहर आया था, और मामा के साथ, जो यहां बाजार में रेहड़ी पर माल ढोता है, उसके कमरे में रहने लगा। पहले ही दिन से उसने मामा के अंदर एक गहरी भूख देखी थी, और उसके साथ ही बिना बात का गरुर भी। बाजार में प्रवासी यूपी बिहारी रेहड़ी वालों में एक मात्र पंजाबी होने पर इतराता मामा, कभी विदेश में रहती मौसी का रुआब दिखाता बोलता, “अभी बहन को फोन कर दूं तो वो अभी लाख रुपए भेज दे”
ऐसा नहीं कि मामा झूठ कहता था या कोरी बकवास करता था, पर गुरिंदर को मामा की कही सयानी से सयानी बात भी बेवकूफाना ही लगती थी। और फिर समझदारी जेब के वजन से तय होती है।
“और जवान, कैसे? शहर घूमने आया?”, पहले दिन मामा ने उसे देख कर पूछा था।
“मामा मैं यहां पढ़ने आया हूं, दिन में कोई काम देख लूंगा और साथ ही आगे की पढ़ाई भी कर लूंगा, मां ने कहा मामा के पास ही रह लेना”, उसने बताया।
“काम क्या करेगा? रेहड़ी चला लेगा?”, मामा का सवाल नश्तर की तरह उसके सीने से टकराया।
“रेहड़ी क्यों चलानी मैंने! एक लड़का है, दोस्त, वो कोरियर कम्पनी में लगवा देगा, पार्सल बांटने को”, गुरिंदर ने बताया, इस बात से बेपरवाह कि उसके इस जवाब का लहजा मामा को किस तरह चुभेगा।
“अच्छा अच्छा, बढ़िया है फिर तो”, अपनी झेंप को हंसी के आवरण से ढक मामा ने कहा, “तुझ जैसे सींकिया पहलवान के लिए सही भी है। चल तुझे कोठी छोड़ आऊं।“
मामा जिस मकान में किराए के कमरे में रहता है उसे कोठी कहता है । किसी जमाने में ये कोठी ही थी, पर अब मजदूरों, प्रवासियों के रहने को सस्ती किराए की बिल्डिंग। एक तंग गली से होते हुए कोठी तक पहुंचे, फिर उससे भी तंग और अंधेरी सीढ़ियों से होते हुए कमरे तक, कमरा क्या था एक कोठरी भर, सामान के नाम पर एक तख्तपोश भर, कोठी को आने का ये रास्ता उसके पीछे की तरफ से है, अगला हिस्सा जो मुख्य सड़क की ओर खुलता, उस तरफ दुकानें और शोरूम निकाल कर किराए पर दिए गए थे, मामा का यह कमरा सबसे पीछे और अलग पड़ता था, शायद जब किसी वक़्त कोठी के मालिक कोठी में रहते होंगे तब ये कोठरी उन्होंने किसी नौकर के रहने के लिए बनाई होगी। इसकी सीढ़ियां भी अलग थी। कोठरी की इतनी कमियों के बावजूद खासियत थी उसके आगे का बरामदा जो कि सबसे कोने वाली दुकान की छत थी और सिर्फ इस कोठरी से ही जुड़ी हुई थी। पास से गुजरती बिजली की तारों पर मामा ने कुंडी डाल रखी थी जिस से हीटर चला कर खाना बनता था।
हफ्ते पंद्रह दिन बाद मामा जोश में भरा हुआ गांव जाता और जब वापिस आता तो जैसे सारे का सारा खाली हुआ लगता। मामा को खाने की बहुत भूख रहती, जब भी कहीं आस पास लंगर/ भंडारा लगता तो मामा सारी भीड़ को चीर कर किसी विजेता की तरह वापिस आता , उसके चेहरे पर युद्ध जीत लेने की चमक दिखती।
“तू भी खा ले, आलू पूरी का लंगर है”, मामा कहता।
“नहीं बस, मैं रोटी बना लूंगा, सब्जी पड़ी है”, गुरिंदर कहता।
“तू पूरा ही अपनी मां पर गया है, खुद्दार, पर क्या हासिल इस से उसने किया”,
पता नहीं मामा मां की तारीफ करता या ताना देता।
मामा की ये भूख खाने तक ही सीमित नहीं थी, पास से निकलती किसी भी उम्र की महिला, चाहे वो बीस की या पचास साल की, हर एक को मामा खा जाने वाली नजरों से देखता। थोड़ा आगे निकल जाती तो अपने साथ के रेहड़ी वालों के साथ उनके बारे में अभद्र टिप्पणियां करता। इस वक्त गुरिंदर को मामी याद आ जाती, पतली, मरियल सी, ऊंचे दांतों वाली और कड़वे स्वभाव की मालकिन, और वो मामा की भूख का कारण खोजने की नाकाम कोशिश करता।
बावजूद इस सब के मामा में ये खासियत भी थी कि रेहड़ी पर सामान लदवाने आई हर स्त्री को वो बहन ही कहता, इस विपरीत आचरण को देख उसे हैरानी होती, कई बार उसे लगता कि शायद मामा की ये भूख देखने तक ही सीमित हो। उसे शायद अहसास नहीं कि एक ही व्यक्ति में जाने कितने व्यक्तित्व डेरा डाल कर रहते, एक दूसरे से भिड़ते रहते हैं।
गुरिंदर को ननिहाल अक्सर याद आता, तब वो छोटा सा था और मामा बिल्कुल नया नया जवान, खूबसूरत, गोरे रंग का, अच्छी कद काठी, हंसमुख, हर एक से आगे बढ़ हंस कर मिलने वाला। मामा ने कई काम किए, पर किसी में भी कामयाब नहीं रहा।
मौसी ननिहाल में किसी रानी की तरह आती, पूरे खानदान के लिए भर भर के कपड़े लाती, नानी के, मामाओं के, मौसीओं के हाथ में रुपए रखती, सब उसके आगे पीछे परिक्रमा करते, जैसे मौसी उन सब की मलिका हो और वो सारे उसकी प्रजा। मौसी के बेटे भी राजकुमारों की तरह घूमते फिरते, उनकी जेब पैसे से भरी रहती, गांव की दुकानों पर शान से घूमते, पीछे पीछे सारे ननिहाल के बच्चों की फौज, भाई ये दिलवा दे, वो दिलवा दे की मिन्नतें, वो भी किसी दिलदार राजकुमार की तरह सब को चीज दिलवा देते, लेकिन वो चीज नहीं जो वो मांगते, वो चीज लेकर देते जो उनका दिल करता। फिर भी प्रजा खुश रहती, लेकिन गुरिंदर को उसकी प्रजा बनने का अधिकार नहीं था, उसकी मां ने उसे किसी से भी कोई भी चीज लेने से रोका हुआ था, मां खुद भी कभी मौसी की प्रजा नहीं बनी, ना ही कभी उसकी तरफ उस नजर से देखती, ना कपड़ा, ना पैसे, जितना मौसी उसे देती, उससे ज्यादा नहीं तो उतना ही उसे लौटा देती। मौसी को भी मां के स्वाभिमान का पता था। दोनों जब भी साथ बैठती, रानी और प्रजा की तरह नहीं, बहनों की तरह बैठ कर बात करती, साधारण सूती कपड़ों में भी मां, महंगे रेशमी कपड़ो में मौसी से कम ना लगती, बल्कि उस से भी ज्यादा सुंदर लगती। शायद इसलिए ही गुरिंदर को मौसी के बेटे कभी अपने से ऊंचे न लगे, उनके पास बिना शक पैसा था, लेकिन गुरिंदर के पास तेज दिमाग , हर सवाल का जवाब, उनके पैसे वाली जेब से मुकाबला करता।
एक बार नानी से बात करते वक्त मां ने कहा था,
“इन कपड़ो और थोड़े बहुत पैसे से किसी का कुछ बना है क्या, करना ही है कुछ तो क्यों नही किसी एक भाई का काम धंधा सेट करवा देती”, नानी से जवाब देते ना बना।
गुरिंदर को इस समय मां की बात समझ नहीं आई पर आज वो इस बात के गहरे अर्थ समझता है।
मौसी ननिहाल की राजनीति की धुरी थी, और गुरिंदर ने महसूस किया कि सिर्फ मौसी ही नहीं, सारी दुनिया की राजनीति ही इसी तरह चलती है। पूरे इतिहास को खंगाल लो, शासकों को जय जय कार चाहिए। राजा दान करे और लोग उनकी दयालुता के गीत गाएं, जितने भी दयालु महाराज हुए, यहां तक कि लोकतंत्र के नेता भी इसी लकीर पर चलते हैं। सरकारों के पास जनता के लिए मुफ्त राशन और मुफ्त बिजली तो हैं लेकिन रोजगार नहीं है। राजनीति क्या चाहती है ?अपने आदिकाल से लेकर आज तक, कि जनता आत्म निर्भर ना हो जाए, छोटी छोटी जरूरतों के लिए भी वो सरकारों की तरफ देखे, इस रोटी से आगे की बात सोच ही न पाएं, भेड़ों की तरह उनके पीछे चलती जाएं, और यदि ये भीड़ ना हो, पीछे जय जय कार करने वाले ना हो तो ये राजनीति चले कैसे, चाहे वो घरेलू राजनीति हो, राष्ट्रीय या फिर वैश्विक राजनीति, सारी भूख तो इसी बात की है, और इस भूख को तृप्त करने के लिए, प्रजा की भूख कायम रहे इसका प्रबंध किया जाता है।
गुरिंदर उठ कर दुकान की छत की तरफ आ गया। सड़क की ओर देखते वक्त उसे लगा कि जैसे कोई और दुनिया देख रहा है। जेनरेटरो , इन्वर्टरों से व्यवस्था के अंधेरे को चकमा दे हर और रोशनी फैली हुई। जेब गरम हो तो हर अंधेरा दूर हो जाता है। घर से निकलते वक्त कही मां की बात उसे याद आ गई।
“ये जीवन सफल व्यक्तियों के लिए जीवन है, असफल व्यक्तियों के लिए जीवन सिर्फ वक्त का गुजरना भर है”,
सड़क के इस पार के अंधेरे और उस पर की चमक दमक के फर्क को महसूस करने लगा। कहने को ये फासला सिर्फ एक सड़क भर को पार करने का था। पर इस सड़क को पार करना किसी किसी के लिए जीवन भर संभव न हो पाता। जैसे मामा सड़क के इस पार रह गया और मौसी उस पार। गुरिंदर सोचने लगा कि मामा बेवकूफ क्यों लगता और मौसी समझदार क्यों ?, शायद सफलता की रोशनी इंसान की छोटी से छोटी विशेषताओं को भी पूरी चमक दमक से प्रदर्शित करती और असफलता का अंधेरा बड़ी से बड़ी खासियत को भी ढक लेता है।
उसने मामा की ओर देखा। आंखें खुली हुई थी, पर बिना हलचल किए लेटा हुआ था। अनायास ही उसके मुंह से निकला, “क्यों मामा, सपनों में खो गए क्या ?”
मामा जैसे नींद में ही, हल्का सा हंसा , एक पल को उसे लगा मामा के होंठ हिले, कुछ बोलने को उत्सुक हो जैसे, पर फिर छत पर चुप्पी फैल गई।
गुरिंदर ने मामा की आसमान ताकती खुली आंखों को देखा, और ऊपर फैले घने अंधेरे को भी, फिर उसने मुंह घुमा लिया और सड़क पार फैली रोशनी को देखने लगा….. ।