“ई तुम का उठा-पटक करैं लागेयो. हम कित्ती दफा कहि दीन है हम न जइबै सहर- वहर। कौनेऊ का कहत हैं ओखा टेस्ट वेस्ट की जरूरत नहीं है हमका। गांव के सरकारी हस्पताल केर डाक्टर न देई दवा तो वैद जी की पुड़िया खात रहैबै। जौन होय का है होय। सहर केर मुंह न देखब। गा रहै हमार मुनुआ……”.मुंह में धोती ठूंस रूलाई रोकने की कोशिश करने लगी दुबाइन पर कलेजा फाड़ निकलने वाली सिसकियां भला कहीं ऐसे रोके रुकती हैं.?
बैग में कपड़े लत्ते, कागज पत्तर रखते दुबे जी के हाथ रुक गए और वे कातर दृष्टि से पत्नी की ओर देखते हुए बोले, “काहे जिद्द ठाने हो मुनुआ की अम्मा। हमरिउ तो स्वाच्व, तुमका रात-रात भर दर्द से बिलबिलात देख हमार जिउ कैइस करत होई, कबहुं सोचे हो। अउर मुनुआ …..जवान बेटवा के काँधे पै लाद केर लै जावन वारे कंधा हर बखत कित्ता पिरात हैं, जनती हो. हर घड़ी जैसे बिच्छु अस डंक मारत रहत हैं पर द्याखौ हम आपन कंधा झुकन नहीं दीन. केखे खातिर। बोलो। तुम्हरे सिवा को बइठ है हमार।“
अपनी चालीस साल की शादी- शुदा जिंदगी में एक सांस में इतनी बातें बोलते दुबे जी को दुबाइन ने पहली बार सुना था। अचकचा कर एकदम से चुप हो गईं वो। और दुबे जी की तो जैसे इतना बोलने में साँस ही फूल गई थी। वो फिर से पलट कर कुछ उठा धरी करने का उपक्रम करने लगे थे । उनकी पीठ पर चिपकी दुबाइन की नजर उन्हें एक नई दृष्टि से देख रही थी।
असल में बामुश्किल पंद्रह वर्ष की रहीं होंगी जब दुबाइन शादी हो कर आईं थीं। शुरू- शुरू में अम्मा की छाया बन डोलती रहती थीं आंगन, दालान में। तब उन्हें तर ऊपर की अपनी ननदों के संग, हंसी- मजाक, सजना, संवरना, गाना और मिल- बांट के काम करना इसी में मजा आता था। एक तो मैके में अम्मा, भौजी लोगों ने पति नामक जीव का ऐसा खाका खींचा था, उनका आदर करने की, उनका हर काम करने की, हर बात मानने की कुछ ऐसी घुट्टी पिलाई थी कि उनके मन में एक अजब सा भय ही सर्वोपरि भावना थी और दूसरे पाँच भाई- बहनों में सबसे बड़े होने के कारण दुबे जी थे भी कुछ अधिक गंभीर और जिम्मेदार। उसके बाद बापू के जल्दी ही दिवंगत हो जाने के कारण दुबे जी के सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ कुछ अधिक ही हो गया था। अचानक पड़े इस दायित्व के चलते उनके पास खाली समय कम और चिंतायें अधिक हो गईं थीं।
समय बीतने के साथ-साथ दुबाइन का वह भय का भाव तो विलुप्त हो गया था पर भरे पूरे घर दुआर के काम काज निपटाती, रिश्ते- नाते संभालती, सहेजती दुबाइन के लिए दुबे जी एक अति अनिवार्य उपस्थिति तो थे पर उनके भीतर क्या चलता है, कुछ चलता भी है क्या, यह सब सोचने की तो कभी उन्होंने जरूरत ही नहीं महसूस की। और उन्होंने क्या दुबे जी को इतना आदर मान देने वाले उनके भाई बहनों में से भी किसी के मन में जैसे इस तरह का ख्याल कभी आया ही नहीं। देवता सरीखे ठहरे उन सबके बड़े भैया उनके लिए।
फिर आ गया था मुनुआ और दुबाइन उसी में रम गईं थीं। धीरे- धीरे आंगन खाली होता गया। बहनों की शादियाँ, भाइयों की अलग अलग शहरों में नौकरियाँ, गृहस्थियाँ, सब काम सुचारू रूप से निपटते गए। और दुबे जी नाते रिश्तेदारों में, यहाँ तक कि आस- पास के गाँवों में भी एक मिसाल बन के रह गए थे।
मुनुआ की पढ़ाई- लिखाई पूरी हो गई थी पर वह गाँव में ही रह अपने खेत, बगीचे देखना और उन्हीं में कुछ नये तरीके के काम करना चाहता था। सब कुछ ठीक चलता रहता तो शायद दुबाइन मुनुआ की शादी, दुल्हन और फिर बच्चों में व्यस्त हो जाती और दुबे जी नेपथ्य में छाया से डोलते रहते,पर अचानक वज्रपात हुआ और मुनुआ एक दुर्घटना में उन्हें छोड़ कर चला गया। दुबाइन के लिए तो जीने का मकसद ही खत्म हो गया। पिछले साल भर से वे अपने दुःख में ऐसे डूबी हैं कि उन्हें जैसे आस-पास का कुछ होश नहीं हैं। यंत्रचलित सी कुछ काम तो दिनचर्या के निपटाती जा रहीं थीं पर अपने आप में वो थी ही नहीं।
दुबे जी की बातें जैसे उन्हें किसी अंधे कुंए से बाहर खींच लाईं थीं। बड़े से खुले- खुले आगन में खड़े दुबे जी कितने अकेले लग रहे थे। अकेले लग ही नहीं रहे थे बल्कि अकेले हैं और दुबाइन को महसूस हुआ, अनजाने ही सबसे कैसा तो अपराध हो गया है। सब दुबे जी का बहुत आदर करते थे, अपने- अपने ढंग से उनकी फिक्र भी करते थे और अम्मा से ले कर मुनुआ तक सबका दुबे जी पर था अगाध विश्वास। सब मानते थे कि कोई भी, कैसी भी समस्या हो बस उन्हें बता दी जाय और वे कोई न कोई हल निकाल ही लेंगे। यह भरोसा ही उनके लिए सलीब बन रहा है, इस बात पर किसी का ध्यान गया ही नहीं। घर और रिश्तेदारी ही नहीं गाँव, जुहार का भी कोई भी व्यक्ति दुबे जी तक तो बेहिचक पहुँच जाता था पर इस ताने-बाने की भूलभुलैया में दुबे जी चक्रव्यूह के अभिमन्यु से हो कर रह गये थे, वहाँ तक किसी की सोच गई ही नहीं।
जीवन में पहली बार दुबाइन को दुबे जी के भीतर दुबके उस रामेश्वर पर बेइन्तहा ममता उमड़ रही थी, जो उन्हें ब्याह कर इस घर में लाया था। घुटनों पर जोर दे उठ खड़ी हुईं वे और पीछे से जा दुबे जी के कंधे पर हाथ रखा और उन्हें पकड़ कर पास पड़ी खटिया पर बैठा दिया- “सुनो, हम लोग भले दुई दिन बाद जांय पर एकै दिन मा न लौटबे।“
“एकै दिन मा ना लौटबे!”
“ हां,हस्पताल से फुरसत पाय के याक दिन गंगा हनैबे अउर… अउर तुम हमका आसमानी रंग केर धोती खरिदइहो..”कहती हुई दुबाइन हल्के से मुस्कुराईं।
“आसमानी रंग केर धोती…”अस्फुट स्वर में दोहराते हुए दुबे जी को बरसों पहले का वह वाकया याद आ गया जब वे पत्नी के लिए सबसे चुरा कर अपनी पसंद की नीली साड़ी लाये थे और उनकी अल्हड़ पत्नी ने बीच आंगन सबके बीच जा कर उनकी बहन से साड़ी यह कह कर बदल ली थी कि उसे चटक लाल रंग पसंद है। अपने कमरे के नीम अंधेरे में आसमान को उतरते देखने की उनकी वह तमन्ना तो वहीं दफन हो ही गई थी, महीनों अम्मा से मुंह छुपाए घूमते रहे थे वे सो अलग। मुस्कुराती हुई पत्नी को देखते हुए दुबे जी को लगा जैसे अचानक से वो हल्का अनुभव कर रहे हों। बादलों में तिरने की सी अनुभूति लिए वे पैर फैला खटिया पर लेट गए और बोले, “मुनुआ की अम्मा दुई कप चाय बना लाओ”
“चाय, अउर ई बिरिया!”
“अब कौन चीज कौन बिरिया, कौन काम केर कौन बखत काहे सोचा जाय, है कि नहीं।“