हरपाल अब बूढ़ा हो चला था। कुश्ती के खेल में पैंतालीस साल के आदमी को बूढ़ा ही कहा जाएगा। हालाँकि उसकी देह पर ढलती उम्र का असर हुआ था, पर खंडहर बताते थे कि यह इमारत कभी बुलंद रही होगी। अपनी पूरी जवानी उसने कुश्ती के नाम कर दी। पटियाला से अम्बाला तक, अमृतसर से जम्मू तक और रोहतक से सिरसा तक क्षेत्रीय स्तर की ऐसी कोई कुश्ती प्रतियोगिता नहीं थी जिस में उसने विरोधियों को धूल नहीं चटाई। पूरे उत्तर भारत में उसने अपनी पहलवानी का डंका बजाया था। कुश्ती के इनामी दंगलों में वह कभी किसी पहलवान से नहीं हारा। अपने इलाक़े में वह ‘ छोटा गामा ‘ के नाम से विख्यात था। लेकिन अब समय बदल गया था। उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसकी मुश्किलें भी बढ़ गई थीं। लोग उसकी युवावस्था के कारनामे भूल गए थे। बदक़िस्मती का आलम यह हो गया था कि अब दो जून खाना खाने के लिए भी उसके पास पैसे नहीं होते।
हरी मिर्च और ख़ाली शीशी में पड़े बचे-खुचे अचार के मसाले के साथ हरपाल ने रोटी ख़त्म की। जब वह खा कर उठा तो उसे लगा जैसे वह अब भी भूखा है। पर घर में खाने-पीने का कोई सामान नहीं बचा था। दालें और सब्ज़ियाँ इतनी महँगी हो गई थीं कि कभी-कभार ही आ पातीं। दूध और अंडों का भी यही हाल था। उसके बीवी-बच्चों ने भी जैसे-तैसे एकाध सूखी रोटी पानी के साथ निगल ली थी। खंडेलवाल किरयाने वाले ने तब तक और उधार देने से मना कर दिया था जब तक पिछला बक़ाया नहीं चुकाया जाता। यह सूचना उसकी पत्नी हरप्रीत ने दी जो कुछ सिलाई-कढ़ाई करके घर की गाड़ी चलाने की कोशिश करती थी।
हरपाल ने आईने में अपनी क़मीज़ का फटा हुआ कॉलर देखा। उसे अपनी जवानी के दिन याद आ गए। वे भी क्या दिन थे। गुरु बजरंगी के अखाड़े की मिट्टी में कुश्ती के दाँव-पेंच सीख कर वह बड़ा हो गया था और कुश्ती मुक़ाबलों के लिए पूरी तरह तैयार।
जवानी की दहलीज़ पर क़दम रख चुके हरपाल की गठी हुई देह में पशु-सरीखी ऊर्जा भरी हुई थी। रोज़ वह अखाड़े में दो हज़ार से ज़्यादा दंड पेलता था। जब वह दस बरस का था तो उसने अपने मज़दूर पिता से कुश्ती सीखने की बात की थी। पहले तो पिता ने उसकी बात अनसुनी कर दी थी। पर जब वह नहीं माना तो वे उसे गुरु बजरंगी के अखाड़े में ले आए। गुरु बजरंगी ने हरपाल की आँखों में कुश्ती में सफल होने की भूख देखी। उनकी अनुभवी आँखों ने ताड़ लिया कि यह पट्ठा इसी काम के लिए बना है। उन्होंने उसके प्रशिक्षण और खाने-पीने का पूरा ख़र्चा अपने ऊपर ले लिया। उनकी देख-रेख में हरपाल ने देखते-ही-देखते कुश्ती के दाँव-पेंचों में महारत हासिल कर ली। इलाक़े में समय-समय पर इनामी दंगल आयोजित किए जाते थे। इनाम के रूप में ट्रॉफ़ी और धन-राशि भी होती थी। हरपाल ने सभी क्षेत्रीय कुश्ती मुक़ाबलों में अपना झंडा गाड़ना शुरू कर दिया।
आईने में अपनी देह पर ढलती उम्र का प्रभाव देखते हुए हरपाल को तीस बरस पहले कुलवंत सिंह से हुआ उसका कुश्ती मुक़ाबला याद आया। यह उसका पहला बड़ा इनामी दंगल था। कुलवंता नामी पहलवान था। वह ‘हरियाणा केसरी’ का ख़िताब जीत चुका था। अपनी जवानी में वह बेहद ताक़तवर और फुर्तीला पहलवान था जो चुटकियों में विरोधी को पस्त कर देता था। ‘कलाजंग’ उसका प्रिय दाँव था। वह अपने विरोधी को उसके पेट के बल कंधों पर उठा लेता था और फिर उसे पीठ के बल पटक देता था। पर उम्र अब हरपाल के साथ थी। बीस साल का हरपाल चढ़ता हुआ सूरज था जबकि चालीस साल का कुलवंता ढलता हुआ सूरज।
मुक़ाबले के लिए अपार भीड़ जुटी थी । शुरू में ही हरपाल की चुस्ती-फुर्ती और उसके दाँव-पेंचों ने कुलवंते को परेशान कर दिया। हरपाल की ऊर्जा और दाँवों के सामने कुलवंता लड़खड़ाने लगा। आख़िर हरपाल ने कुलवंत के पैर उखाड़ दिए। मौक़ा देखकर उसने कुलवंते को दोनों हाथों से ऊपर उठा कर ज़ोर से ज़मीन पर पटक दिया। यूँ भी ‘धोबीपाट’ हरपाल का पसंदीदा दाँव था।
जीतने के बाद उसे पता चला कि कुलवंत सिंह के दाएँ टखने की हड्डी पटके जाने की वजह से टूट गई थी। लेकिन मुक़ाबले के दौरान उसके मन में कुलवंते के प्रति कोई कड़वाहट या दुश्मनी का भाव नहीं आया था। उसके लिए यह महज़ एक खेल-मुक़ाबला था। उसका उद्देश्य महज़ जीतना था। दुश्मनी जैसे भाव तो कुलवंते के मन में भी नहीं आए होंगे, हालाँकि हार कर चोट लगने के बाद वह रोया था। अख़बारों ने तब लिखा था कि यह ढलती उम्र और अनुभव के ख़िलाफ़ जवानी की चुस्ती-फुर्ती की जीत थी, लेकिन हरपाल ने अपनी जीत का श्रेय गुरु बजरंगी को और उनके अखाड़े के प्रशिक्षण को दिया था।
हरपाल की बीवी हरप्रीत भी अपने जमाने में सुंदर रही होगी। उसने पति को आईने में चेहरा निहारते देखा तो उसे खुश करने के लिए बोल पड़ी , “अगर आपको ठीक से खाने के लिए रोटी-दाल-सब्ज़ी मिल जाए तो आप फिर से पहले जैसे दिखने लगोगे।”
झूठी तसल्ली सुनकर हरपाल मुस्करा दिया। लेकिन उसके मन में दबी इच्छा बाहर निकल आई। बोला , “काश, महीना भर रोज़ दो-तीन किलो दूध और आधा दर्जन अंडे मिल जाते, तो महीने बाद भिवानी में होने वाला कुश्ती मुक़ाबला तो मैं ही जीतता। जीतने वाले को अच्छी रक़म मिलेगी।”
बीवी उसे हतोत्साहित नहीं करना चाहती थी। पर इतना ज़रूर बोली, “जीतने के चक्कर में चोट न लगा आना।”
हरपाल ने कोई जवाब नहीं दिया। यूँ भी अब वह कम बोलता था। कभी-कभी उसके जोड़ों में दर्द होने लगता। वह जल्दी ही थक भी जाता था। उसे लगता जैसे अब उसमें पहले वाली बात नहीं रही। लेकिन भिवानी में होने वाले कुश्ती मुक़ाबले में देश भर के नामी पहलवान हिस्सा ले रहे थे। जीतने वाले को ‘रुस्तम-ए-हिंद’ के ख़िताब से नवाज़ा जाना था। विजेता को अच्छी धनराशि भी दी जानी थी। यह रुपया हरपाल को मिल जाता तो घर की गाड़ी सँभल जाती। इसीलिए उसने इस मुक़ाबले में शामिल होने के लिए अपना नाम दे दिया था।
आईना मेज़ पर रखकर हरपाल कुर्सी पर बैठ गया। पत्नी भीतर के कमरे में जा चुकी थी। बैठे-बैठे हरपाल की आँखों के सामने उसकी जवानी के दृश्य चल-चित्र की तरह चलने लगे। अचानक उसके ज़हन में एक पुराना दृश्य कौंधा। उसे लुधियाना के आलमगीर अखाड़े में हुए उस कुश्ती मुक़ाबले का फ़ाइनल याद आया जब उसने इलाक़े के नामी पहलवान अवतार सिंह को ‘धोबीपाट’ दे कर चित कर दिया था। तब मुक़ाबला लड़ने से एक-दो घंटे पहले वह तीन-चार किलो दूध पी जाता था और दर्जन भर उबले अंडे खा जाता था। इसके बाद उसकी नसों में जैसे इस्पात बहने लगता। उसकी माँसपेशियाँ जैसे फ़ौलाद की बन जातीं दर्शकों के शोर के बीच ही हरपाल विरोधी पहलवान को उठा कर पीठ के बल पटक देता।
अवतार सिंह को ‘साँडीतोड़’ और ‘बगलडूब’ दाँवों में महारत हासिल थी। वह मौक़ा पाते ही विरोधी पहलवान का हाथ मरोड़ देता था और विरोधी के बगल के नीचे से आसानी से निकल जाता था। लेकिन हरपाल की चुस्ती-फुर्ती के आगे उसकी एक न चली। हरपाल ने अवतारे को भी कुछ मिनटों के दाँव-पेंचों के बाद ही धूल चटा दी थी। उसी अवतारे को जिसे खेल-प्रेमियों ने ‘शेर-ए-अम्बाला’ का ख़िताब दे रखा था। एक बार फिर कुश्ती-जगत में हरपाल के ‘धोबीपाट’ की धूम मच गई थी।
भूख हरपाल को फिर से सताने लगी। उसने ज़ोर से कहा , “काश, रोज़ दो-तीन किलो दूध और आधा दर्जन अंडे मिल जाते …।”
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आख़िर भिवानी कुश्ती मुक़ाबले का दिन आ पहुँचा। दूध और अंडे हरपाल के लिए आकाश-कुसुम बने रहे। उधार मिलना बंद हो चुका था। रूखा-सूखा खा कर ही महीना कटा था। लेकिन हरपाल को अपने बरसों के कुश्ती के अनुभव पर भरोसा था। और फिर उसके साथ उसका सबसे मज़बूत हथियार ‘धोबीपाट’ जो था, उसने सोचा।
चलते समय पत्नी हरप्रीत ने कहा था, “आप ही जीतोगे। खुद पर भरोसा रखो।” लेकिन वह जानता था कि उसकी पत्नी मन-ही-मन आशंकित थी कि मुक़ाबले के दौरान कहीं उसे चोट न लग जाए। इसलिए उसने पत्नी से भी यही कहा, “डर मत। धोबीपाट का साथ है तो किस बात की फ़िकर।”
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इनामी दंगल शुरू हो गया। शुरू के कुछ पहलवानों को हराने में हरपाल को ज़्यादा दिक़्क़त नहीं हुई। उसके सामने वे सब अनाड़ी थे। उसने हर बार अपने विरोधी पहलवान को ‘धोबीपाट’ दाँव से चित कर दिया। कुछ दिन बीत गए।
उधर दूसरे मुक़ाबलों में युवा पहलवान परमजीत सिंह ने धूम मचा रखी थी। उसकी चुस्ती-फुर्ती और उसके दाँव-पेंचों के आगे कोई पहलवान नहीं टिक पा रहा था।
बाईस वर्षीय परमजीत सिंह सुडौल और बलिष्ठ देह का मालिक था। उसकी भुजाओं और कंधों में जैसे हाथी का बल था। पिछले एक-दो सालों में उसने सभी क्षेत्रीय कुश्ती मुक़ाबले जीत लिए थे।
अंत में फ़ाइनल मुक़ाबले का दिन भी आ पहुँचा। अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद हरपाल अपने अनुभव और आत्म-बल की बदौलत सब को हरा कर यहाँ तक पहुँच गया था। ट्रॉफ़ी और धन-राशि उससे बस एक जीत दूर थे। लेकिन रास्ते में युवा पहलवान परमजीत सिंह एक बड़ी बाधा बन कर खड़ा था।
हरपाल भिवानी में जिस जान-पहचान वाले के यहाँ रुका था उसका घर कुश्ती मुक़ाबले के अखाड़े से पाँच-छह मील दूर था। वह अपने रहने की जगह से अखाड़े तक रोज़ाना पैदल चलकर जाता था। आज भी फ़ाइनल मुक़ाबले से दो-तीन घंटे पहले वह घर से निकला। अभी थोड़ी ही दूर गया था कि किसी ने उसे आवाज़ दी, “पहलवान जी , आप यहाँ ” उसके सामने एक अजनबी खड़ा था, जो लगभग श्रद्धा भाव से उसे देख रहा था। इससे पहले कि वह कुछ पूछता, उस व्यक्ति ने कहा , “मैं आप का पुराना प्रशंसक हूँ। मैंने आप की जवानी के बहुत से कुश्ती-मुक़ाबले देखे हैं। आप यहाँ कैसे ”
” भिवानी इनामी-दंगल में आया हूँ । आज मेरा फ़ाइनल मुक़ाबला है।” हरपाल ने कहा।
“अरे वाह, पहलवान जी। यह मुक़ाबला भी आप ही जीतोगे। बस हिम्मत मत हारना। आजकल दूध-अंडे डट कर ले रहे हो न?”
प्रशंसक ने जैसे हरपाल की दुखती रग पर हाथ रख दिया था। हरपाल के मुँह से अपनी ग़रीबी का ज़िक्र निकल गया।
प्रशंसक बोला, “मेरे होते हुए आप फ़िक्र न करो। मेरा घर यहीं पास में है। आप थोड़ी देर के लिए वहाँ चलो। मैं सब बंदोबस्त करता हूँ।”
हरपाल किसी का अहसान नहीं लेना चाहता था। वह ना-नुकुर करने लगा। पर प्रशंसक नहीं माना। बोला,”पहलवान जी, बिना दूध-अंडे लिए तो आप कभी मुक़ाबला नहीं लड़ते थे। आज कैसे लड़ोगे? आप मेरे घर चलो। ऊपर वाले की दया से अपनी दो-दो फैक्ट्रियाँ चल रही हैं। गाड़ी है। कोठी है। मैं खुद आपको अखाड़े तक छोड़ने चलूँगा।”
हरपाल को प्रशंसक की बात माननी पड़ी। प्रशंसक ने अपने घर पर हरपाल के लिए दूध और अंडों का बंदोबस्त कर दिया। अपना पसंदीदा आहार लेकर हरपाल की देह और आत्मा दोनों तृप्त हो गए। उसके भीतर ऊर्जा का संचार होने लगा। उसका तन-मन प्रसन्न हो गया। प्रशंसक उसे अपनी गाड़ी में बिठा कर अखाड़े पहुँचा। हरपाल उसका शुक्रिया अदा करने लगा तो वह बोला — “अब तो मैं आप का फ़ाइनल मुक़ाबला देख कर ही जाऊँगा। पता नहीं आगे कभी मौक़ा मिले, न मिले।”
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फ़ाइनल कुश्ती मुक़ाबला शुरू हुआ। पहले दोनों पहलवानों ने कुछ बुनियादी दाँव लगाते हुए एक दूसरे की तैयारी को जाँचा-परखा। हरपाल शुरू में ही समझ गया कि यह एक मुश्किल मुक़ाबला होगा। उसके हर दाँव का तोड़ परमजीत के पास मौजूद था। जो ताक़त परमजीत को लगभग अजेय बना रही थी वह उसकी युवावस्था थी। बाईस साल के परमजीत की माँसपेशियाँ फड़क रही थीं। उसकी भुजाएँ और कंधे अजस्र शक्ति का स्रोत थीं। साथ ही वह बेहद चालाक पहलवान था। लगता जैसे वह हरपाल के मन में छिपे उसके हर दाँव को पहले ही जान जाता था। लेकिन हरपाल को अपने बरसों के अनुभव पर पूरा भरोसा था। उसने अपनी ऊर्जा और अनुभव को उस आख़िरी दाँव के लिए बचा कर रखना चाहा जो इस मुक़ाबले का पासा ही पलट दे। जैसे ही उसे मौक़ा मिला, उसने पूरी शक्ति के साथ परमजीत पर ‘धोबीपाट’ आज़मा दिया। अचानक हुए इस आघात से परमजीत लड़खड़ा गया। किंतु उसकी नसों में यौवन का गर्म लहू बह रहा था। शुरू में लड़खड़ाने के बाद वह सँभल गया। उसने जवाबी दाँव चल कर हरपाल की यह चाल नाकाम कर दी।
हरपाल के लिए यह उसका तुरुप का पत्ता था जो बेकार हो गया था। इस प्रयास में हरपाल ने जैसे अपनी पूरी संचित ऊर्जा और शक्ति गँवा दी। परमजीत ने जब जवाबी हमला किया तो हरपाल के जोड़ों में दर्द होने लगा। थकान उस पर हावी होने लगी। वह दाँव-पेंचों में पिछड़ने लगा। उसके हाथ-पैरों की रही-सही ताकत जवाब देने लगी।
हरपाल को कमज़ोर पड़ता देखकर परमजीत शेर हो गया। मौक़ा देखकर वह हरपाल के पीछे गया। पहले वह अपने दोनों हाथ हरपाल की बग़लों के नीचे से आगे ले गया। फिर आगे से वह उन्हें हरपाल की गर्दन के पीछे ले गया और उसने हरपाल की गर्दन को पीछे से दोनों हथेलियों से जकड़ लिया। यह सब इतनी तेज़ी से हुआ कि जब तक हरपाल सँभलता , उसकी गर्दन परमजीत की गिरफ़्त में थी। हरपाल ने उस गिरफ़्त से छूटने की बहुत कोशिश की लेकिन परमजीत उसके गर्दन पर अपनी जकड़ मज़बूत करता चला गया। अपनी गर्दन पर पड़े इस दमघोंटू कैंची दाँव से हरपाल को असह्य दर्द होने लगा। वह बेबस-सा छटपटाने लगा। उसकी आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगा। उस नीम-अँधेरे में उसे ट्रॉफ़ी और धन-राशि उससे बहुत दूर जाते दिखे।
दर्द से छटपटाते हुए उसकी अधमुँदी आँखें अचानक दर्शकों की भीड़ में मौजूद अपने प्रशंसक पर पड़ीं। वह अब भी उसका उत्साह बढ़ा कर उसे जीतने के लिए प्रेरित कर रहा था। हरपाल को उस प्रशंसक की बात याद आई — “पहलवान जी, यह मुक़ाबला भी आप ही जीतोगे। बस हिम्मत मत हारना।”
वह उसके जैसे अपने प्रशंसकों को मायूस नहीं कर सकता था। उसका बरसों का अनुभव क्या आज व्यर्थ हो जाएगा?
अपनी सारी बची-खुची ऊर्जा और ताकत एकत्र करके हरपाल ने परमजीत की गिरफ़्त से छूटने का एक अंतिम महा-प्रयास किया। उसने पूरी ताकत से अपने मुँह से अपने फेफड़े में हवा भर कर अपनी छाती फुला ली। और झटका दे कर वह परमजीत की गिरफ़्त से छूट गया। परमजीत ने खुद को लगभग विजयी मान लिया था। वह हरपाल के जवाबी हमले के लिए तैयार नहीं था। बिना एक पल गँवाए हरपाल पलटा और उसने अपनी सारी शक्ति से एक बार फिर परमजीत पर अपना मनपसंद दाँव ‘धोबीपाट’ चल दिया। इससे पहले कि परमजीत सँभल पाता, हरपाल ने उसे दोनों हाथों से ऊपर उठाया और उसकी पीठ के बल उसे ज़ोर से अखाड़े की ज़मीन पर पटक दिया। पता नहीं यह दूध और अंडों का असर था या कुछ और, पर हरपाल निश्चित हार के मुहाने से वापस आ गया था और उसने करिश्मा कर दिखाया था। पटके जाने के बाद परमजीत दोबारा नहीं उठ पाया। हरपाल ने फ़ाइनल मुक़ाबला जीत लिया था।
दर्शकों में मौजूद हरपाल के प्रशंसकों ने उसे कंधों पर उठा लिया। उसने ‘रुस्तम-ए-हिंद’ का ख़िताब जीत लिया था। आयोजकों से ट्रॉफ़ी और धन-राशि लेते हुए हरपाल को लगा जैसे उसने परमजीत को नहीं, अपनी बदक़िस्मती को ‘धोबीपाट’ दे मारा था।
चित्र साभार: Care of India