पास में रखे कटोरे में से वो उसके मुँह में अंगूर डाल रही थी क्योंकि उसके हाथ तो तेल में सने थे। वह उसके सिर में तेल जो डाल रहा था। साथ ही साथ सहलाता जा रहा था उसके बालों को। जब जब वह उसके बालों को सहलाता, वो मुस्कुरा देती या उम्म्म कर एक खनकती सी हँसी हँस देती, या फिर उसकी आँखें मुंद जाती और वह चट से एक अंगूर कटोरे से उठा उसके मुँह में डाल देती और एक अपने भी।
“बहुत चांदी है तुम्हारे पास”, उसके लंबे बालों पर उसने तेल चुपड़ते हुए कहा। वह फिर से हँस पड़ी और हँसते हुए बोली, “हमेशा से थी, तुम्हें तो सब पता है। तभी तो तुम ललचा गए थे।”
इस बार वह भी हँसा, “अच्छा जी तो हम लालची हैं। इस खदान में चांदी है, यह भी तो सबसे पहले मैंने ही पता किया था।”
“ना गलत कहते हो, पहले मेरी माँ को मिली थी यह चांदी मेरे सिर पर तेल मलते हुए। तुम बिलकुल माँ जैसी चंपी करते हो।” उसकी आवाज़ इस बार माँ की याद से भर्राई हुई थी। वह बिन देखे, बिना छुए ही उसकी गीली पलकों को अनुभव कर पा रहा था।
“तो क्या इसलिए अब मुझे अंगूर नहीं मिलेंगे, क्या इतनी बड़ी सज़ा दोगी?” उसकी यह बात सिर्फ बात नहीं थी। एक आर्द्र मन को हल्का करने की चेष्टा थी जिन पर यादों के भारी बादलों ने अभी अभी डेरा डाल दिया था। यह चेष्टा व्यर्थ नहीं गई।
“आपको सज़ा! तौबा, तौबा”, वह अंगूर उसके मुंह में डालते हुए बोली, “चांदी जरूर माँ ने खोजी थी पर वह तो उन्हें मेंहदी लगवा तांबे का बना देना चाह रही थी। उसका असली मोल तो आपने ही पहचाना हुज़ूर।””हूं, तो सुनो अब ये चांदी बहुत बढ़ गई है और अब हम बड़े अमीर हो गए हैं।” यह कह वह ठठाकर हंसा। इस बार उसने नज़र उठाकर कहा, “अब तो माशाल्लाह आपकी अपनी चांदी ही बहुत है, अब तो हमारे सिर की चांदी पर नज़रें न गड़ाइए।” और फिर उसके बालों में हाथ फेरकर एक अंगूर का दाना अपने दाँतों के बीच दबा वह हंस पड़ी। अंगूर शायद थोड़ा खट्टा था क्योंकि उसकी एक आँख बंद सी हुई और नाक और गाल सिकुड़ से गए।
उस पल छोटे से घर की उस छोटी सी बालकनी में सिर्फ वे दोनों कहां थे। एक पालतू झबरी बिल्ली उसके पैरों के पास बैठी थी जिसे वे दोनों घायल अवस्था से उठा घर ले आए थे। तब वह बहुत छोटी थी और कमज़ोर भी। अब तो मोटू म्याऊं म्याऊं कर मटकती रहती है। उस पल बालकनी में लगे पौधे, लताएं थीं जिन्हें उन्होंने मिलकर प्यार से सींचा, सजाया था। मोगरा, गुलाब, नींबू के फूलों की मिली जुली खुशबू एकसार हो हवा को संदली बना रही थी। सामने आकाश से ढलता सूरज केसरिया गुलाल लगाए झांक रहा था। और वे दोनों अपने अपने मन में कुछ सोचते हुए मुस्कुरा रहे थे। शायद एक सा सोच रहे थे।
शायद याद कर रहे थे ऐसी ही फरवरी की बसंती शाम। उस छोटे से कस्बे की शाम। उस शाम हवा थोड़ी ज्यादा ठंडी थी पर सुहावनी सी थी। उसकी लाइब्रेरी से सटे बगीचे में फूले सप्तपर्णी की सुगंध से हवा कभी अलसाई तो कभी तेज़ चल रही थी। सूरज केसरिया हुआ बादलों के साथ लुकाछिपी खेल रहा था। वह लाइब्रेरी से निकल थोड़ी दूर ही पहुंची होगी कि हल्की बौछार शुरू हो गई। उसने अपने बैग में से छाता निकाला और दोबारा लाइब्रेरी में जाने का सोचने ही लगी थी कि उसकी नजर पड़ी उस माँ बेटे पर जो एक पेड़ के नीचे कटे फटे कपड़ों में ठिठुरे से बैठे थे। उसने अपना शॉल निकाल कर औरत को दे दिया। औरत ने बच्चे को छाती से चिपका कर शॉल कस के लपेट लिया था।
“रुको, मैं अभी आई।” कहकर वह सामने चाय की टपरी से दो समोसे, बिस्कुट और दो कप चाय खरीद लाई। उसने देखा वहां दो चाय और कुछ बिस्कुट पहले से ही रखे हैं और वह अपने रेन कोट को छोटी मोटी लकड़ियों पर अटका उन माँ बेटे के लिए एक बरसाती बनाने में जुटा है।
“अरे मैं और चाय ले आई”, उसने झिझकते हुए कहा।
इस बार वो हंसा और बोला, “चाय तो इस मौसम में जितनी पियो कम है और आप तो गरमागरम समोसे भी लाई हैं!”
बच्चा समोसे और चाय पर टूट पड़ा। उसकी माँ बोली, “दो दिन से भूखा है मेरा बच्चा। भगवान भला करे आप दोनों का। आप दोनों एक सा सोचते हो।”
दोनों की आँखें नम हो गई थीं। दोनों बौछार में भीगते इस नमी को छुपा रहे थे। यह उनकी पहली मुलाकात थी। उस दिन भी वे अकेले नहीं थे। हवा थी, बादल थे, बारिश थी, मिट्टी और सप्तपर्णी की सुगंध से सुवासित हवा थी, मोटर गाड़ियों की आवाजें थीं, लोगों की रेलम पेल थी और एक तृप्त होते माँ बेटे की जोड़ी थी।
फिर वे अक्सर मिलने लगे। वह बिन माँ बाप का घुंघराले बालों वाला गोरा सा लड़का था। वो तांबई रंग, बड़ी बड़ी आंखों और लंबे बालों वाली दुबली पतली सी लड़की जिसके माता पिता के साथ थे दो गबरू भाई। वे दोनों अब प्यार में थे। अकेले नहीं थे। एक दूसरे के साथ थे और उनके साथ थे हवा, सूरज, चांद, सितारे, फूल, पौधे और प्यार भरी खुशबू। साथ थी एक सी सोच कि कोई अकेला ना हो। सबको प्यार मिले, खाना मिले, कपड़े मिलें, एक छत मिले, शिक्षा मिले, मुस्कुराहट मिले, और वह भी सिर्फ एक दिन के लिए नहीं, सदा के लिए।
इसी सोच को साथ ले दोनों नौकरी ढूंढ रहे थे। और एक दिन वह खुश होकर चिल्लाया था, “मिल गई नौकरी अच्छी सी!” और वो बोली थी “सच? मुझे भी, पर छोटी सी”
दोनों एक दूसरे से लिपट गए थे। उनकी खिलखिलाहट से भरी हवा साथ थी। उसी ने भोलेपन में चुगली कर दी थी उनके प्यार की।
कभी पूछा ही नहीं था पर वह उम्र में कम था, हैसियत में कम था, अगर जाति बड़ी छोटी होती है तो जाति में कम था।
पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था। भाइयों के सिर पर खून सवार था। वो खुद अड़ी बैठी थी। माँ हाथ जोड़े रोती कलपती सबसे शांत होने की विनती कर रही थी।
वह भी आया था उसका हाथ माँगने। नाक भी रगड़ी उसने। उस दिन हवा गुस्से से बोझिल थी जिसके दिल में कभी कभी प्यार की हूक सी उठती थी।
पर फिर न जाने क्या हुआ। बाप बेटों ने मंत्रणा की और बाप ने कहा। “मेरा सिर तो नीचे किया है तूने। पर अब जबकि तू ज़िद पकड़े बैठी है तो कल रामजी के बाग के पीछे जो पुराना शिवमन्दिर है वहां आ जाना दोनों शाम को। चुपचाप करा देंगे शादी। बिरादरी की थू थू से तो बचेंगे। तेरी माँ ना शामिल होगी। बस फिर न आना इस चौखट पर।”
“लेकिन माँ क्यूं…”
उसकी बात को पिता ने हाथ के इशारे से बीच में ही रोक दिया। वो चुप हो गई।
बाबा के पैर छुए मगर बाबा ने सिर पर हाथ ना फेरा। भाई बोले तो नहीं पर गुस्सा थे। माँ अभी भी रो रही थी। “लाडो छोड़ दे उसे, भूल जा उसे, छोड़ दे ज़िद।”
वो माँ के आंसू पोंछ कह रही थी, “माँ प्यार में बहुत ताकत होती है। देख पत्थर भी पिघल जाता है। बाबा मान गए न। अब धीरे धीरे अपना भी लेंगे हम दोनों को। तू चिंता ना कर।” पर माँ का रोना बदस्तूर जारी रहा।
दूसरा दिन शाम के आगोश में सिमट रहा था। वो गुलाबी साड़ी पहने, गजरा लगाए भाइयों के साथ कार में रवाना हुई। पिता अलग कार में। आज वो विदा हो रही थी। माँ अब भी रो रही थी। वही माँ जो उसके सिर में मालिश करती थी और सफ़ेद बाल देख कहती थी, “मेंहदी लगा लिया कर बालन में। रंग भी काला है तेरा। दूल्हा नहीं मिलेगा।”
फिर वही माँ प्यार से कहती, “खरा सोना है मेरी बेटी। कोई जौहरी ही पहचान सके है। पर जौहरी मिले भी तो।” और यह कह माँ उसका माथा चूम लेती और उसे काला टीका लगा देती।
आज वही माँ उसके जौहरी को आशीर्वाद देने भी नहीं आ पा रही।
आज उसका रूप अपूर्व था पर माँ ने आज काला टीका नहीं लगाया उसे। बस दूर खड़े हो हाथ जोड़ दिए।
आज उसके साथ हवा थी, नए जीवन की उमंग थी, भविष्य के सपने थे, नथुनों में बसी माँ और घर की खुशबू थी, प्रियतम से मिलन की गुदगुदी थी, माँ से विछोह का रीतापन था पर साथ में “माँ से मिलूंगी” की उम्मीद भी थी।
राम जी के बगीचे के पास कार रुकी, पिता की कार भी आ कर रुकी। बगीचे के पीछे की नहर अरंडी की झाड़ियों और जंगल जलेबी के पेड़ों के बीच से दिखाई देती थी। एक नीरवता पसरी पड़ी थी जिसे टिटहरी की गूंज कभी तभी तोड़ देती। तभी वह भी आ गया। पिता जी के पैर छूने बढ़ा तो पिता के तेवर कड़क थे। वह आधा ही झुक पाया। भाइयों ने उसकी तरफ़ उड़ती सी निगाह डाल निगाह फेर ली। वे दोनों तिरस्कार को महसूस कर पा रहे थे। हवा साथ थी, बोझिल थी, धीमे धीमे चल रही थी। बांस के पेड़ों और किसी अनजाने जंगली फूल की तीखी महक के साथ लोबान की महक ने वातावरण को अभिमंत्रित कर रखा था। सब कुछ फरवरी की इस शाम को भी सुंदर था पर कुछ बेचैन सा।
“ये मालाएं लो और मंदिर तक पहुंचो तुम दोनों। हम लोग आते हैं। ये बैग भी लो। इसमें ही सब सामान है”, कहकर भाइयों ने उन्हें माला, बैग सौंप दिए। वे एक दूसरे का हाथ पकड़ चलने लगे। सूरज गहरा लाल हो डूबने को आतुर था।
वे चलते रहे, बरगद, नीम, पीपल, बेर, गूलर के पेड़ों को पार करते। उल्टे लटके चमगादड़ों की अनदेखी करते। दो सहमे हुए बच्चों की तरह कसकर एक दूजे का हाथ थामे कि तभी कुछ लठैतों ने उन्हें घेर लिया। कुछ ने उनके मुंह पर हाथ रख, बैग छीन लिया। बैग में से मोटे रस्से निकाल उन्हें बांधने लगे। मालाएं तोड़ डालीं। उनके फूल नोच दिए। “प्रेम करोगे पापियों? जात की परवाह नहीं? अभी मज़ा चखाते हैं।”
वे दोनों भयभीत कपोत से थरथरा रहे थे एक दूजे के लिए। समझ गए थे शादी का झांसा दे आज प्रेम करने के “अपराध” की सज़ा दी जा रही थी उन्हें। आज उनका ऑनर किलिंग होने जा रहा था। उनके ही घर वालों के इशारों पर।
ओह! तो माँ सब जानती थी। तभी बेबस हो रो रही थी। तभी उसे शामिल न किया गया।
अब पेड़ पर लटकाना बाकी था तभी पुलिस आ पहुंची। दरिंदे भाग खड़े हुए। पुलिस के संरक्षण में उसी मंदिर में विवाह संपन्न हुआ।
दरिंदे पकड़े गए। बाप और भाइयों पर भी मुकदमा चला, रसूख और पैसे का नंगा नाच भी खेला गया पर प्रेम की जीत हो ही गई।
फोन घनघनाया तो दोनों जो एक सी यादों में खोए थे, फिर उसी छोटी सी बालकनी में लौट आए। फोन बेटे का था। दूसरे शहर में कॉलेज में पढ़ता है। दो साल बाद डॉक्टर बन जायेगा।
अदरक वाली चाय की चुस्कियों के बीच वे दोनों बतियाते, काम करते एक दूजे के साथ थे। दोनों के अवचेतन में वही स्मृतियां घूम रही थीं, जो प्रेम से उपजी थीं, प्रेम से शुरू हो प्रेम पर टिकी थीं।
उस भयावह शाम को पुलिस वहां कैसे पहुंची? दोनों के दिल इसे प्रेम की नेमत मानते रहे थे।
शादी के बाद, एक छोटे से किराए के कमरे से दोनों ने अपनी गृहस्थी शुरू की थी। संघर्ष के दिन थे। निराश्रितों को आश्रय देने का सपना उनके हाथों से कितना दूर था पर देखते वो सपना वे दोनों रोज थे।
और एक दिन दरवाज़े की घंटी बजी। देखा माँ खड़ी थी द्वार पर। बोली, “छुपती छुपाती आई हूं। तेरी सहेली सीमा से पूछा तेरा पता।” खूब आशीष, अनेकों चुम्बन से सराबोर कर गई दोनों को माँ। “आज हलवा खिला लाडो। तेरी गिरिस्ती का स्वाद चखने आई हूं।” एक सोने का कंगन और चांदी की सिंदूरदानी थमाई धीरे से हाथ में और बोली, “तेरे बाबा भी न जानते इसके बारे में। इसे रख, मेरा आशीर्वाद है ये और ये 1000रुपए मेरे जवाई बाबू के।” फिर जवाई का हाथ पकड़ बोली, “तुम्हारे जैसा जवाई तो कभी न ढूंढ पाती मैं। बेटे से लगते हो। खूब प्यार करना मेरी लाडो को। खूब प्यार पाना इसका। अब चलूंगी।”
वह हलवा ले आई। अपने हाथ से खिलाई। फिर उसने माँ के हाथ कस के पकड़ लिए थे। तब, एक आंसू की बूंद ढुलक के माँ के हाथ पर गिर गई थी। फिर हाथ की पकड़ को थोड़ा ढीला छोड़ उसने माँ से पूछा, “माँ उस रोज पुलिस को तूने ही इत्तला दी थी ना?” माँ बस इतना बोली, “तेरे बाबा को कभी मति बताइयो ये बात। मेरे पे विश्वास करते हैं वो, अब चलूं। देर हो गई।” वो माँ को निहारती रह गई। अनपढ़ माँ, सीधी माँ, अपने पति की छाया माँ, इतना साहस कहां से ले आई थी? प्रेम से और क्या?
माँ कुछ दूर चली और फिर लौट के आई। ब्लाउज में से एक रूमाल की पोटली निकाल उसमें से दो काले मोती वाले चांदी के छोटे छोटे नजर कंगन निकाल उसने कहा, “ये ले तेरे बच्चे को पहनाना”
तो क्या उसके जानने से पहले ही माँ उसके गर्भ के प्रथम लक्षणों को पहचान गई थी। उस दिन की हवा भी बड़ी रूमानी थी। प्रेम में पगी। मातृत्व के प्रेम में।
“मेरे लिए भी एक कप चाय बना दे लाडो। तेरे बच्चे बहुत शैतान हैं। अब न सिखाऊंगा इन्हें पौधे लगाना।” वे बालकनी में आ बैठ गए। मूछें अभी भी सतर थीं पर कंधे अब थोड़े झुक गए थे। ये उम्र का असर तो था ही, अहम के विसर्जन का असर भी था। उनके चेहरे की हर झुर्री पर एक स्नेह की लालिमा थी। प्रेम का रंग, करुणा का ओज, वात्सल्य का तेज।
ये रंग ठोकर खा के आए थे, ठुकराए जाने के बाद आए थे, अपनी ही कुल्हाड़ी से काटे जाने के बाद आए थे। अपने ही बोए जहर के बीजों की फसल से आए थे। पर जो ये रंग पक्के हुए थे तो आत्म विश्लेषण से हुए थे, आत्म शुद्धि से हुए थे। प्रेम करके हुए थे, प्रेम से वंचित हो कर भी, प्रेम बांटने और प्रेम पाने से हुए थे।
जीवन संगिनी साथ छोड़ गई। बेटों ने ज़मीन जायदाद के लिए कौड़ी कौड़ी को मोहताज कर दिया था। जिन के साथ मिलकर अपनी ही बेटी दामाद की हत्या की साजिश रची, वे ही उनके रक्तपिपासु बन बैठे।
दर दर की ठोकरें खाते उस से पहले ही बिटिया अपने घर ले आई। बेटी जवाई का प्यार पा के, नाती का लाड़ पा के वे जैसे पुनर्जीवित हो गए। एक जमीन का टुकड़ा जो उनके बेटों की नजरों से छिपा था, उस पर उन्होंने अपनी लाडो और जवाई के सपनों का आशियाना बना दिया। इस आशियाने में कितने रिश्ते मिल गए उनको। जो रिश्ते पीछे छूट गए थे उनसे कहीं अनमोल रिश्ते। किसी के आंसू पोंछ के, किसी को खाना खिला के, किसी को हंसा के, किसी को लोरी सुना के, किसी के साथ खेल के, किसी को कुछ सिखा के, किसी से प्यार कर के कितना सुकून मिलता है, एक आत्मिक आनंद। कितने रिश्ते मिल गए। वे इन सबको अपने बेटी दामाद के बच्चे बताते।
बाबा कभी कभी माँ को याद करते भावुक हो जाते। “बहुत सीधी थी तेरी माँ, बहुत प्यारी। बहुत प्यार करती थी मुझसे। और मैं ऐसा निष्ठुर कि कभी उसके प्रेम का प्रतिसाद नहीं दिया मैंने। अपनी लाडो को विदा भी नहीं कर पाई। मेरे नीच इरादों को जानकर भी बिचारी कुछ नहीं बोली। मैं सच में मनुष्य कहलाने के योग्य ही नहीं। जानवर भी मुझसे बेहतर हैं। अच्छा है चली गई। अपने बेटों के जुल्म नहीं सहे। दर दर की ठोकरें नहीं खाई। मुझे लड़खड़ाते देखती तो बहुत रोती, जीते जी मर जाती। सोचो मेरे जैसे महापापी से प्रेम किया उसने। काश मैं माफी माँग पाता। काश तुझ से और तेरे पति से मिल पाती। पर वह तो मुझ नीच से प्यार करती थी। मेरी मर्ज़ी को ही अपनी मर्ज़ी बना के जीती रही।” ऐसा विलाप कई बार करते वे। और वह चुपचाप सुनती। उनका हाथ अपने हाथों में ले उन्हें शांत करती और वे भी एक छोटे बच्चे की भांति उसकी गोद में सिर रख कर फफक के रो पड़ते। कितनी बार प्रायश्चित के गंगाजल में डुबकी लगा चुके थे।
अब तो जीवन में सिर्फ प्रेम था, माँ के लिए, उसके लिए, उसके पति के लिए, और हर दुखियारे के लिए।
उस सांझ पुलिस को बुलाने वाली भी माँ थी, और माँ आशीर्वाद देने भी आई, यह उन दोनों ने कभी किसी को नहीं बताया।
कोई भी मौसम हो, कोई भी महीना उनके लिए तो हर महीना प्रेम का महीना था। प्रेम की बयार उनके लिए हर पल बहती। ऐसे सदाबहार प्रेमी थे दोनों।
अरे! उनका नाम तो बताया ही नहीं। छोड़ो भी, नाम जानकर क्या करोगे। क्या इतना काफी नहीं कि गहन प्रेमी थे। वैसे लोग उन्हें ना जाने क्यूं और कब से, चाँद और चकोर कहते हैं।