ऑफिस से निकलते समय एक बार फिर रत्ना का फोन आ गया “सब्जी जरूर ले आईयेगा, आप हमेशा भूल जाते हैं. और कम से कम आलू और प्याज़ तो जरूर ही लाना है, कुछ भी नहीं है घर में, मैं तीन दिन से कह रही हूँ”.
मन भी अजीब है, जो याद रखना चाहिए, वह भूल जाता है और जिसे भूलना जरुरी हो, वह हमेशा याद आता रहता है. खैर आज तो सब्जी लेकर ही घर जाना है, उसने भी सोच लिया था. उसने नीचे पार्किंग से कार निकाली और चल पड़ा घर के रास्ते पर. हमेशा की तरह भीड़ ही भीड़ सड़क पर नज़र आ रही थी, कभी कभी तो उसे यह भी लगता कि लोग अगर सड़क पर नहीं निकलते तो घर में रहने की जगह ही कम पड़ जाती. इन्हीं ख्यालों में खोया वीरेश भीड़ में सबसे बचते, बचाते धीरे धीरे कार चलाते हुए जा रहा था.
दूर से ही सब्जी मंडी दिख गयी, ऐसा लगता था कि मंडी में तो साइकिल भी नहीं जा पायेगी, उसकी कार कैसे जाएगी उस रास्ते से. जब भी वो इस मंडी में आता, हर बार उसे ऐसा ही लगता, लेकिन किसी तरह वो कोई जगह ढूँढ कर कार खड़ा करता और सब्जी लेकर निकल जाता. शायद इसी भीड़ की वजह से वो यहाँ आने से कतराता भी था और जब तक बिलकुल ही जरुरी न हो, यहाँ आना नहीं चाहता था. कई बार तो रत्ना ही रिक्शा से चली जाती थी और उसे राहत मिल जाती, लेकिन आज तो आना ही पड़ गया. जैसे जैसे मंडी नज़दीक आ रही थी, उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी. खैर किसी तरह मंडी के अंदर घुस तो गया कार से, लेकिन कहीं भी गाड़ी खड़ी करने की जगह नहीं दिख रही थी. एक नज़र उसने अपने हमेशा की दुकान पर डाली लेकिन आज उसके सामने तो क्या, कहीं आस पास भी कोई खाली जगह नज़र नहीं आ रही थी. मायूसी में धीरे धीरे कार आगे बढ़ाते हुए वो मंडी के लगभग बाहर आ गया तभी उसे पार्किंग की जगह दिखाई दी.
कार पार्क करते समय उसने अपने दाहिनी तरफ देखा, एक बुजुर्ग व्यक्ति एक ठेले पर आलू, प्याज़ और कुछ सब्ज़ियां भी रखे हुए था. एक बार तो उसने सोचा कि अपनी पुरानी दुकान पर जाए, लेकिन फिर दूरी और भीड़ दोनों को देखते हुए उसने विचार त्याग दिया. वैसे अमूमन अपने सब्जीवाले, दूधवाले या हज्जाम को बदलना बहुत मुश्किल होता है, उनकी एक आदत ही पड़ जाती है. बस किसी ख़राब अनुभव के चलते ही इंसान इनको बदलना चाहता है. चलो आज इसी के यहाँ से ले लेते हैं, सोचते हुए वह दुकान पर जा खड़ा हुआ. आदत के अनुसार अपने आप उसके मुँह से निकल गया “आलू कैसे दिए दादा”.
बुजुर्ग ने सर उठाया, सामने एक बढ़िया कपड़े पहने व्यक्ति को देखकर एक बार तो हड़बड़ा गया, शायद आदत नहीं थी ऐसे लोगों को अपने ठेले पर देखने की.
“१२ रुपये किलो दिए हैं, आपको ११ लगा देंगे साहब”, कहते हुए उसने अपना गमछा उठाया और सामने रखी सब्जियों को झाड़ने लगा.
“ठीक है, ५ किलो दे दो, और २ किलो प्याज, दो किलो बैगन और एक लौकी भी दे दो”, बोलकर वो फोन पर बात करने लगा.
बुजुर्ग ने अपना पुराना तराजू उठाया और उस पर एक-एक आलू रखने लगा. फोन पर बात करते हुए उसकी निगाह बुजुर्ग पर पड़ी और वो उसे ध्यान से देखने लगा. जिस तरीके से वो बुजुर्ग सब्जीवाला एक-एक आलू देखभाल के तौल रहा था, उसे अपने पिछले सब्जी वाले की याद आ गयी.
एक बार कोई ग्राहक सब्जी अपने हाथ से उठा कर रख रहा था तो वह बिगड़ गया था. “अरे, सोना खरीद रहे हो क्या, सब्जी ही तो है, इतना छाँट रहे हो इसको”.
इधर वो इन्हीं ख्यालों में डूबा हुआ था और उधर बुजुर्ग ने आलू तौला और फिर ऊपर से कुछ और आलू डाल दिए थैले में. फिर चुन चुन कर प्याज, बैगन और लौकी भी तौला और ऊपर से एकाध अलग से डाल दिया उसने. सब थैले रख कर थोड़ी धनिया, मिर्ची डाली उसने और पूछा “कुछ और दूँ साहब”.
“बस हो गया, रहने दो अब”, और उसने जेब से रुपये निकाले और सब्जीवाले की तरफ बढ़ा दिया. बुजुर्ग सब्जीवाला हिसाब जोड़ने में लग गया और जब तक वो जोड़ रहा था, उसने थैला उठाया और कार में रखने लगा.
तभी सब्जीवाले का ध्यान वीरेश पर गया और वो दौड़ कर आया “अरे साहब आपने क्यों उठाया, मैं खुद उठाकर रख देता इसको”, उसके चेहरे से परेशानी झलक रही थी.
“कोई बात नहीं दादा, ठीक है. पैसे पूरे हैं ना या और दूँ”.
“ये ले लीजिए, इतने बचते हैं साहब”, कहते हुए बुजुर्ग ने कुछ रुपये उसको पकड़ाए. वो रुपये उसे बुजुर्ग को वापस देना ठीक नहीं लगा, कहीं दया न समझ ले वो, इसलिए पैसे जेब में डाले और कार में बैठ कर घर निकल गया.
घर पहुँच कर उसने अपना बैग और थैला उठाया और रत्ना को थैला पकड़ाते हुए बोला “आज एक बूढ़े सब्जीवाले से सब्जी ली मैंने, बहुत भला आदमी था”.
रत्ना ने एक बार उसका चेहरा देखा और फिर थोड़ा मुस्कुराते हुए बोली “गनीमत है सब्जी ले तो आये. अब देखती हूँ कि क्या कूड़ा करकट उठा लाये हो, आपको तो कोई भी बेवकूफ बना सकता है”.
उसने भी अपना बैग रखा और मुस्कुराते हुए कपड़े बदलने चला गया. कपड़े बदल कर और हाथ मुँह धो कर जब वो वापस लौटा तो देखा रत्ना आश्चर्य से सब्जियों को देख रही थी.
“आज तो आपने सचमुच कमाल कर दिया, बहुत अच्छी सब्जी लाये हैं. लगता है कोई आपके ही तरह का था जो इतना बढ़िया सब्जी दे दिया उसने”, रत्ना से तारीफ सुन कर अच्छा लग रहा था उसे, मानो उसे समझदारी का सर्टिफिकेट मिल गया हो. अक्सर बात इसके उलट ही होती थी, उसे काफी लानत मलामत सुननी पड़ती थी. उसने तसल्ली से टी वी चालू किया और समाचार देखने लगा.
उधर वो बुजुर्ग सब्जी वाला भी जब घर पहुंचा तो बहुत प्रसन्न था. घर में घुसते ही बूढी ने उसका प्रसन्न चेहरा देखा तो पूछ बैठी “क्या बात है, आज तो बहुत खुश दिखाई दे रहे हो, लगता है आज सारी सब्जियाँ बिक गईं”.
बूढ़े ने भी मुस्कुराते हुए कहा “अरे आज तो एक बहुत बड़ा और भला आदमी सब्जी लेने आ गया और उसने बहुत सी सब्जी खरीद ली. मुझे तो लगा कि पैसे देने में किच किच करेगा, लेकिन उसने तो बिना मोल भाव किये पैसे दे दिए और बहुत खुश होकर गया”.
बूढी ने एक गहरी सांस ली और बोली “काश रोज-रोज ऐसे ग्राहक आते तो अपनी दाल रोटी की चिंता नहीं रहती”. बूढ़ा भी तब तक हाथ मुंह धोकर आ गया था और खटिया पर बैठ गया.
“हाँ, तुम ठीक कह रही हो, काश रोज रोज ऐसे ग्राहक आते तो कितना अच्छा होता. वैसे शायद वह साहब दुबारा जरूर आएगा हमारे दुकान पर”, बूढ़े की आँखें चमक उठीं.
उधर वीरेश ने खाना खाते समय रत्ना को बुलाया और कहने लगा “मुझे लगता है कि हमें अब सब्जी उसी बूढ़े के ठेले से लेना चाहिए, सब्जियाँ भी अच्छी थीं और दाम भी ठीक. साथ ही साथ उस बूढ़े की भी मदद हो जाएगी. कल तुमको भी मैं दिखा देता हूँ ताकि तुम भी जब जाओ, वहीं से सब्जी लो”.
“बात तो आप बिलकुल ठीक कह रहे हो, हर्ज़ ही क्या है इसमें. अपने साथ साथ उसका भी भला हो जाए तो इसमें बुराई क्या है”, रत्ना की निगाहों में उसके लिए आज कुछ अलग सम्मान नजर आया.
धीरे धीरे यह उनका नियम बन गया, हर दूसरे तीसरे दिन उस बुजुर्ग के ठेले से सब्जी लेना. वो भी इन दोनों को पहचान गया था और बहुत प्यार से सभी सब्जियाँ तौलता, फिर उन्हें ठीक से पोछ कर देता. अब धीरे-धीरे मोहल्ले के हर घर की औरतों को ये बात पता चल गयी और सारी औरतें अब उसी बूढ़े की दुकान से सब्जी लेने लगीं. फिर बूढी भी आकर दुकान पर बैठने लगी, आखिर वो बूढ़ा अकेले कैसे इतने ग्राहकों को सम्भाल पाता. अब तो दोनों बुजुर्गों की दुनिया गुलज़ार हो चली थी, शाम देर तक दुकान पर बैठना, फिर घर आकर खा पीकर सो जाना. बूढ़ा सुबह जल्दी उठकर मंडी चला जाता था और ताज़ी सब्जियाँ ले आता था. फिर दोपहर में खाना खाने के बाद दोनों जाकर अपने ठेले पर दुकान सजा लेते थे.
इधर मुख्य मंडी के सब्जी की दुकान वालों को भी एहसास होने लगा था कि उनके ग्राहक कुछ कम होने लगे हैं. उनके रोज के ग्राहक जब हफ़्तों नहीं दिखे तो उनकी चिंता स्वाभाविक थी. फिर उनको पता चल गया कि लोग अब उस बूढ़े के ठेले से सब्जियाँ लेने लगे हैं. पहले तो उन्होंने भी अपने ग्राहकों को थोड़ा प्यार से बोलना शुरू किया, और दिखाने के लिए थोड़ी ज्यादा सब्जी भी देने लगे. ये अलग बात थी कि अभी भी वो पूरे वज़न की सब्जियाँ नहीं देते थे. फिर उन्होंने लोगों से कहना भी शुरू कर दिया कि आप लोग भी लोगों को समझाइये कि हमारे पास ज्यादा तरह की सब्जियाँ हैं और दाम भी ठीक है. उनके इस बदले व्यवहार से कुछ तो फ़र्क़ पड़ा लेकिन अभी भी अधिकांश मोहल्ले की औरतें उसी बूढ़े के ठेले से सब्जियाँ लेती थीं.
एक रात दुकान बंद करने के बाद एक बड़े सब्जी वाले ने अपने बगल की दुकान वाले से कहा “अरे भाई कुछ करना पड़ेगा नहीं तो ये बूढ़ा तो हमारा धंधा मंदा करवाकर ही दम लेगा”.
“अपना धंधा तो पहले से ही कुछ कम था और आजकल तो और ही मंदा है, तुम तो फिर भी ठीक हो भाई”, बगल वाले ने आह भरते हुए कहा.
“वो तो ठीक है लेकिन कुछ तो सोचो, ऐसे तो अपनी कमाई घटती ही जायेगी”, बड़ा दुकान वाला सोचते हुए बोला.
“अब कर भी क्या सकते हैं, वो तो अपनी जगह पर ही दुकान लगा रहा है, उसको रोकेंगे भी तो कैसे”, दूसरे के पास कोई चारा नहीं था.
“एक विचार है मेरे दिमाग में, कुछ खर्च लगेगा लेकिन काम हो जाएगा”, पहला वाला थोड़ा कुटिलता से मुस्कुराते हुए बोला. फिर सभी करीब आये और उस विचार को सुनकर सबने हामी भर दी.
“लेकिन ये काम तुम्ही को करना होगा, पैसे हम सब दे देंगे”, सबने उसकी जिम्मेदारी बड़े दुकान वाले को सौंप दी.
अगले दिन सबेरे-सबेरे वह बड़ा सब्जी वाला थाने में पहुंचा. कई पुलिस वाले उसकी दूकान से मुफ्त में सब्जियां ले जाते थे और इसलिए उसे वहां बात करने में कोई दिक्कत नहीं थी.
“दरोगाजी नमस्कार”, उसने सामने वाले सब इन्स्पेक्टर को नमस्ते किया तो उसने सर हिलाया. अब मुफ्त की सब्जी का लिहाज तो करना ही था इसलिए उसने पूछ लिया “सबेरे-सबेरे आये, कुछ बात है क्या?
“हाँ साहब, आपसे एक मदद चाहिए, बाकी आपका ध्यान रखूँगा’, उसने मुस्कुराते हुए कहा.
उसके बाद उसने बैठकर सब इन्स्पेक्टर से सारी बातें तंय कीं और वापस आ गया. दोपहर बाद जैसे ही बूढ़ा ठेला लेकर मंडी के बाहर अपनी जगह पर पहुँचा, दूर खड़ी पुलिस की जीप उसके पास पहुंची.
“किसकी परमिशन से लगा रखा है ये ठेला यहाँ पर”, हवलदार ने अपना डंडा उसकी ओर करते हुए पूछा.
“साहब, रोज यहीं पर लगाता हूँ ठेला. आप चाहे तो पूछ सकते हैं बगल की दुकान से”, बूढ़ा घबड़ा गया और एकदम से लड़खड़ा गया. बूढी ने उसे सम्भाला और हाथ जोड़कर हवलदार के आगे खड़ी हो गयी.
“अबे, मैं लोगों से पूछूंगा कि ये जगह किसकी है. साले,एक तो जबरदस्ती गलत जगह पर ठेला लगाते हो और दूसरे जबान भी लड़ाते हो. वो तो तेरी उम्र का लिहाज़ करके छोड़ रहा हूँ, नहीं तो दो डंडे मारकर अंदर कर देता. जल्दी से हटाओ ये ठेला यहाँ से और आज के बाद अगर दुबारा दिखाई दिए तो अंदर कर दूंगा”, हवलदार ने एक डंडा उसके ठेले पर मारा और खड़ा हो गया.
बूढ़े ने एक बार चारों तरफ देखा, उसे उम्मीद थी कि शायद कोई सब्जीवाला उसके लिए बोलेगा. उसको तो यह आभास भी नहीं था कि उसको वहां से भगाने के लिए ही यह सब किया गया है.
किसी को भी अपने साथ नहीं देखकर उसने अपनी गीली आँखों को पोंछा और बूढी के साथ ठेला लेकर वापस चल दिया. बूढी पलट-पलट कर अपनी ठेले वाली जगह को देखती जा रही थी जहाँ एक अंडे वाला अपना ठेला लगा रहा था. दोनों थके क़दमों से अपने झोपड़ी की ओर जा रहे थे, हवलदार ने अंडे वाले से कुछ उबले अंडे और रुपये लिए और आकर जीप में बैठ गया. जीप धुआं उड़ाती मंडी से बाहर चली गयी, बड़ी सब्जी की दुकान वालों ने एक दूसरे को देखकर ठहाका लगाया और मंडी वापस यथावत चलने लगी.