‘अब मैं दो चोटियाँ नहीं बना सकती, पर क्यों?’
‘क्योंकि अब तुम बड़ी हो गई हो?’
‘तो क्या बड़ी होने पर दो चोटियां करना मना है?’
‘अरे मना नहीं है मिनी, पर हर इक उम्र की बदलती अवस्थाएँ होती हैं, रिश्ते बदल जाते हैं, रिश्तों के नाम बदलते हैं, और ऐसे में अपने उठन-बैठन, चाल-चलन और बर्ताव को भी तो बदलना लाना पड़ता है कि नहीं?’ माँ ने एक टूक जवाब देते हुए मिनी को चुप कराना चाहा।
‘अरे बाबा , तुमसे तो बात करना बहुत ही मुश्किल है मिनी। बाल की खाल निकालने लगती हो। बेटा उन ऊँच-नीच की गलियों से गुज़रने के लिये मैं तुम्हें नहीं समझाऊँगी, तो और कौन आकर तुम्हें यह दुनियादारी के सलीके बताएगा या समझाएगा?।’ माँ मिनी के माथे में तेल डालकर, उसके बालों को संवार रही थी और जब कभी ऐसा होता था तो मिनी को बहुत भला लगता था। पर आज माँ ये जाने कैसी उलझी बातें ले बैठी है, वह सोचने लगी।‘पर तुम ये सब बातें आज क्यों लेकर बैठी हो माँ?’ मिनी ने अपना माथा खुजाते हुए कहा।
‘इसलिए कि अब तुम छोटी नहीं रही। जब लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं, तो उन्हें औरत का नाम दिया जाता है, और औरत बदलाव चाहती है।’ माँ ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
‘तुम चाहती हो कि दुनिया की सब लड़कियाँ जब औरत बन जाएँ तो वे सब कुछ भूल जाएँ- हँसना, मुस्कुराना, लंगड़ी खेलना, कबड्डी-कबड्डी, तू-तू, मैं-मैं जो बचपन से लेकर आज तक वह करती रही हैं।
‘यह तुम कह रही हो माँ? अब मैं छोटी नहीं हूँ जो यह भी न समझ सकूँ। तुम जिनकी बात कर रही हो, वह मेरे पिता होते हुए भी जैसे मेरे पिता नहीं है। उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि मैं किस कक्षा में पढ़ती हूँ। मेरा छोटा भाई किस पाठशाला में जाता है, क्या ओढ़ता है, क्या बिछाता है? बस साल में एक-दो बार जब उन्हें होश होता है तो पूछ लेते हैं ‘पढ़ाई कैसे चल रही है’ और ऊपर से सुझाव देकर चलते बनते हैं – ‘माँ की बात सुना और माना करो।’
मिनी अपनी उम्र की बाग़ी सोच को उड़ेलते हुए कहती रही।
माँ की चुप्पी देखते हुए मिनी ने उन्हें उकसाने की कोशिश की, वह माँ का मन टटोलना चाहती थी।
‘माँ तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे वे कभी तुम्हारी बात सुनते हैं और मानते हैं. मुझे तो लगता है उन्हें अपने नशे में और जवानी की चौखट पर बैठी उस मैत्री के ख़ुमार के सिवा कुछ याद ही नहीं रहता। क्या तुम इसे कर्तव्य कहती हो, जो फ़क़त एक तरफ़ा ही रह गया है, और जिसे निभाने के लिए तुम ख़ुद भी जीना भूल गयी हो।’
‘बेटे अपने घर की लाज रखना-रखवाना नारी मात्र की जवाबदारी होती है, क्योंकि वह सब रिश्तों से बढ़कर ममत्व की रक्षा करना चाहती है। मुझे तेरी बहुत चिंता है, यह भी एक कारण है कि मैं बहस नहीं करती, बस ख़ैरख्वाही की दुआएँ माँगती रहती हूँ।’
‘अपने घर को घर बनाने की ज़िम्मेदारी क्या सिर्फ़ तुम्हारी है माँ?’ मिनी अब माँ को कुरेदने लगी थी।
‘………’
‘माँ क्या सोच रही हो….?’ मिनी ने भी जैसे बात की तह तक पहुँचने की ज़िद पकड़ ली।
‘मिनी, रिश्तों में अगर निभाने से ज़्यादा झेलने की बारी आ जाए, तो मुलायम रिश्ते ख़लिश देने पर उतारू हो जाते हैं। फिर भी उन चाहे-अनचाहे अहसासों के साथ जीना पड़ता है, कहीं कहीं तो अक्सर धक्के मारकर ज़िंदगी की गाड़ी को चलाना पड़ता है !’
‘पर माँ रिश्तों में तो प्यार होता है, अपनापन होता है, जवाबदारियाँ और फ़र्ज़ होते हैं, जो सभी को बराबर-बराबर निभाने पड़ते हैं। पति-पत्नी एक दूजे के परस्पर आधार होते हैं, है न माँ…?’
माँ की ज़ुबान को अब ताले लग गये। सच ही तो कह रही है मिनी। दिखने में वह चुलबुली, पर समझ में काफ़ी सतर्क, तेज़, दुनियादारी की समझ में परिपक्वता की पैनी नज़र रखने वाली। दसवीं में पढ़ रही है पर दुनियादारी को समझते हुए भी न समझने का दिखावा करती है।
मिनी अपनी माँ की सखी है, उसकी हर आहट से उसके अंतर्मन के तट को छू आती है, उसकी आँखों में छुपे हुए डर को, हर सवाल को पढ़ लेती है। मन की गहराइयों में छुपे ज़ख़्मों के छालों को कभी-कभी अपनी बालपन की ऐसी ही बातों से फोड़ आती है – ताकि माँ के दिल का दर्द, ज़हर बनने के पहले आंसू बनकर बह निकले। माँ के मन के संघर्ष से वह भली-भाँति परिचित थी, उठते हुए बवंडर से भी वाक़िफ़ थी, पर कहती कुछ न थी। अपनी तरफ़ से एक अनजान दिखावे को ओढ़कर वह विचरती रहती, पर नज़र चारों ओर घूमती, उस घर की चारदीवारी के अंदर और बाहर। उसे यह भी पता रहता था कि कहाँ क्या हो रहा है। ऊँच-नीच समझने का सामर्थ्य उसमें है। बस माँ के ज़ख़्मी दिल को और चोट न पहुँचे इसलिए वह ऐसे ही सवालों से उसे टटोलती।
जब माँ के पास उन सवालों का कोई जवाब न होता तो वह घर की दहलीज़, उसकी मर्यादा के सुर का सुर आलापते हुए रोती। अपने मन में छुपे हुए भय को मिनी के साथ यह कहते हुए बाँटती – ‘बेटा हर घर की एक कहानी होती है, एक मर्यादा होती है। जब एक घर की बेटी, दूजे घर की बहू बनकर उस घर की चौखट के भीतर पाँव धरती है तो वह लाजवंती बन जाती है।’
मिनी बस माँ को इसी घर और उसकी दहलीज की मर्यादा के सुर अलापते हुए सुनती….. पर आज बात का रुख बेरुख़-सा बनता जा रहा था। शायद माँ अपने भीतर के डर को शब्दों में ढाल पाने में असमर्थ हो रही थी…!
“माँ यह छूट सिर्फ मर्दों को ही क्यों होती है, औरत को घर की चौखट से क्यों बांधकर रखा जाता है? क्या औरत उस आज़ादी की हकदार नहीं….?” मिनी अपने मन की भड़ास सवालों में घोलने लगी।
“बेटा, आज़ादी और हक़……. !’ माँ बस इतना ही कह पाई।“हाँ माँ, मर्यादा के नाम पर और से आज़ादी छीनी क्यों जाती है?” मिनी के स्वर में कड़वाहट थी।
“आज़ादी के भी दायरे होते है मिनी। मर्दों की आज़ादी को तो दुनिया गवारा कर पाती है पर औरत का एक ग़लत क़दम, उसकी मर्यादा को कलंकित कर जाता है। और उसके बाद उम्मीदों के सारे दरवाज़े अपने आप उस पर बंद होते चले जाते हैं।’
अब मिनी कुछ संजीदा होकर ग़ौर से सुनने लगी और सोचती रही कि माँ क्यों ऐसा कह रही है और कहना क्या चाह रही है? और ऐसी क्या बात है, जो माँ इतनी भयभीत है। कोई तो अनजाना डर है जो भीतर ही भीतर उसे खाए जा रहा है। शायद जो वह मुझसे कहना चाह रही है, उसकी जुबान उसका साथ देने में समर्थ नहीं है।पिताजी ने प्रांगण के उस पार कुछ ओताक जैसा माहौल बना रक्खा है, जिसमें कुछ मदहोशी के आलम को बनाए रखने का सामान सजा हुआ था, पान का बक्सा, बीड़ियों के चन्द छल्ले, यहाँ-वहाँ बिखरी हुई माचीस की तीलियाँ, देसी दारू की भरी और खाली बोतलें, जिनकी महक से वह कमरा गंधमय होता जा रहा था। कभी-कभी माँ को लातों से मारकर पिताजी उसे इस कमरे की सफ़ाई की ताकीद करते हुए मिनी सुन तो लेती, पर वह नहीं जानती है कि माँ वह काम कब करती है? उसने खुली आँखों से कभी नहीं देखा, पर जानती ज़रूर है कि उनकी पलकों में नींद भर जाने के बाद वह यह काम करती रही होगी- यह है माँ। सोच के भी डर लगने लगता है कि ऐ औरत! क्या यही तेरी कहानी है? क्या कभी इन बेज़ुबान रिसते जख्मों को देखकर इन्सान का दामन आँसुओं से नहीं भरता? और ऐसे कई नागवार सिलसिलों को देखकर, उन्हें महसूस करते हुए जैसे माँ के साथ वह भी वही दौर जी रही हो – उन दरिंदों के चंगुल का शिकार बनकर, जिनमें इन्सानियत का नामों-निशान दूर तक बाक़ी नहीं।
आज घर के आँगन को पार करते हुए दो बार मैत्री पिछवाड़े के कमरे में पिताजी के साथ बेधड़क भीतर चली गई थी और तब माँ की आँखों की उदासी और गहरी होती हुई देखी थी उसने। मिनी की पैनी नज़रों से यह सब छुपा नहीं रहता।
‘माँ तुम किस सन्दर्भ में बात कर रही हो? तुमने कौन-सा डर मन में पाल लिया है मुझे बताओ, शायद मैं अपने ढंग से कुछ सोच पाऊँ और किसी सुझाव का दरवाज़ा खटखटा सकूँ। समस्या का समाधान तो निकाला जा सकता है, पर जब तक तुम कहोगी नहीं…… !’
‘मिनी…’ और माँ आँसुओं के दरिया में डूबती हुई नज़र आई।‘माँ कहो ना क्या बात है जो तुम चाहकर भी मुझसे नहीं कह पा रही हो?
‘बेटी तुम्हारे पिता तुम्हारे रिश्ते की बात कर रहे थे… और मैं जानती हूँ उन रिश्तों की नींव कितनी कमज़ोर होती है।’ माँ ने कुछ झिझक भरे स्वर में धीमे से कहा।
मिनी सुनकर जैसे बहरी हो गई, और माँ कहती रही – ‘बस कोई लड़का तलाश करके तेरे हाथ पीले करना चाहती हूँ और यही प्रार्थना करूँगी कि तू इस घर से दूर, बहुत दूर चली जा, जहाँ ये ज़हरीली हवाएँ तेरी साँसों में घुटन न पैदा कर सके!’
पर आज जो हुआ वह पहले कभी नहीं हुआ। और जो गुज़रा वह हादसा था…… इस हादसे के गुज़र जाने के बाद लग रहा है मैं बड़ी हो गई हूँ! वहीं उसी चौखट पर मेरा बचपन लुट गया, मासूमियत लुट गई, वह नटखटता, वह चुलबुलाहट, वह खिलखिलाहट उस हैवानियत के आगे घुटने टेक कर रह गई। शायद अमानुष बनना ज़्यादा आसान है। मनुष्य तो बस क़ीमत चुकाने के लिये होता है!