रोज की तरह मार्निंग वाक करते हुए मैं चौराहे से दाहिनी ओर मुड़ी और मेरी नजर खुद ब खुद उस मकान की ओर चली गई। दरअसल रोज वहाँ एक रिक्शा खड़ा रहता था और कोई उस पर कम्बल ओढ़ कर सोया रहता था। मैं सोचती थी कि कैसे कोई रिक्शे की पतली सीट को रिक्शे के फ्रेम और चलाने वाली सीट के बीच पुल सा फंसा कर, सिर तक कम्बल तान, रात भर उस पर सो सकता है। जरा सा हिलो तो नीचे आ जाओ वाली पोजीशन होती थी। आज पहली बार उस सोने वाले को देखा मैंने। दुबले शरीर के अधेड़ से व्यक्ति थे। आज उठ गए थे तो कम्बल तहा रहे थे।
मुझे अपनी ओर देखते पा कर हल्का सा मुस्कुरा दिए। जवाब में हम भी थोड़ा मुस्कुराए और उनके पास जाते हुए कहा, “मैं रोज आपको सीट पर सोते हुए देखती थी और सोचती थी कि आप कैसे इस पर रात काट लेते हैं, बिना गिरे।“
“बस ऊपर वाले को जो करवाना होता है, वह वो करवा ही लेता है।“ रिक्शे की गद्दी को थपथपाते हुए थोड़ दार्शनिक अंदाज में बोले वे।
“अच्छा दादा, एक बात और करनी थी आपसे।“
“कहो बहिनी”
“आप अगर रोज रात को यहीं रहते हैं तो क्या आठ बजे तक हमें घर से ले कर लखनपुरवा तक छोड़ दिया करेंगे। वो पीपल का पेड़ है जो सामने उससे लगी हुई जो सड़क दाहिनी ओर को जा रही है उसी पर है हमारा घर । पंद्रह दिन तक जाना है , रोज सबेरे और शाम को लौटना है।“
दादा से बात तय हो गई और हमारा जाना- आना शुरू हो गया। दादा की पहले दिन की ही बात से लग गया था कि इनसे बात- चीत अच्छे स्तर पर होने की संभावना है और इन पंद्रह दिनों में बात- चीत भी हुई, फिर आगे भी कहीं आने- जाने के लिए उन्हें बुलाने का सिलसिला भी शुरू हो गया। और इसी सबमें दादा के जीवन के उतार चढ़ाव से भी परिचित होते रहे। तो चलिए आज कहते- सुनते हैं इन्हीं दादा की कहानी ।
हमारी और दादा की मुलाकात जिस शहर में हुई थी उससे बहुत दूर, दूसरे प्रांत में एक गाँव है। पता नहीं अब गाँव का कैसा स्वरूप है, बदलते बदलते कस्बे या गाँव के बीच कुछ अधकचरा सा हो गया है या फिर गाँव ही नहीं रह गया पर जिस समय से कहानी का प्रारम्भ हुआ उस समय यह गाँव था, नदी. तालाब, बाग , बगीचे खेत और कच्ची पगडंडियों वाला गाँव। चलिए सुविधा के लिए हम गाँव का नाम मान लेते हैं, कुंदनपुर।
कुंदनपुर के अधिकांश निवासियों का गाँव बाहर की दुनिया से कुछ ज्यादा लेना –देना नहीं था।उनकी नाते –रिश्तेदारी भी आस-पास के गाँवों में थी, जहाँ वे विशेष अवसरों पर पैदल या फिर कभी कभार बैलगाड़ी से चले जाया करते थे। गाँव के प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब के पास साइकिल थी और एक साइकिल और आया जाया करती थी गाँव में, प्राइमरी हेल्थ केयर के डाक्टर साहब की। वे सप्ताह में एक दिन पास के कस्बे से आते थे। हाँ, एक जीप भी थी जो ठाकुर विक्रम सिंह के अहाते में खड़ी रहती थी। उनके अहाते में बग्घी, घोड़े भी थे। ठाकुर साहब पुश्तैनी रईस थे। उनके खेतों, घर में गाँव के बहुत लोग काम करते थे और सब बहुत संतुष्ट रहते थे। ठाकुर साहब का परिवार बहुत संस्कारी था।
इन्हीं काम करने वाले लोगों में एक थे बिसुन भैया। बिसुन भैया और ठाकुर विक्रम सिंह हमउम्र थे। बिसुन भैया के बाबा के जमाने से यह परिवार ठाकुर साहब की देहरी से जुड़ा था।बिसुन भैया अकेले ऐसे कार्यकर्ता थे जिन्हें आवश्यकता पड़ने पर विक्रम सिंह की माता जी घर के भीतरी हिस्सों में भी बुला लेती थीं। बिसुन के साथ पीछे –पीछे घूमता फिरता था उनका दो साल का बेटा कान्हा। कान्हा की अम्मा को भगवान जी ने अपने पास बुला लिया था जब वह मुश्किल से एक साल का था। बिसुन भैया के प्राण बसते थे कान्हा में लेकिन काम काज के सिलसिले में उनकी इतनी दौड़ रहती थी कि वे हर समय कान्हा को अपने साथ चिपटाए नहीं घूम सकते थे। बड़ी मलकिन यानि विक्रम सिंह की माता जी के कहने पर ही बिसुन कान्हा को कोठी के अहाते में छोड़ने लगे थे, जहाँ उसे खाने के समय कोई भी पकड़ कर खाने बिठा देता था और बाकी समय वह वहीं हाते में खेलता रहता था। कभी कभी विक्रम सिंह के लड़के उसे अपने खेल में शामिल कर लेते थे।पर कान्हा से पूछो तो उसे सबसे अच्छा उन दिनों लगता था जब घर में महिलाओं की कोई पूजा होती थी। रामदेई काकी उसे पकड़ कर पीछे चबूतरे पर खड़ा कर रगड़ रगड़ नहला देतीं थी। काकी के खुरदुरे हाथों से कान्हा की मुलायम खाल छिलने लगती थी पर उसे मजा भी बहुत आता था। वह पानी उछाल काकी को भिगोता रहता था और काकी उसे डांटती हुई हल्के से थपड़िया भी देती थीं पर उत्ता छोटा कान्हा भी बूझ लेता था कि यह सब काकी का दुलार है। नहलाते तो उसके बाबू भी रोज थे पर काकी के नहलाने में उसे लगता था जैसे साबुन पानी से नहीं दूध मलाई से नहला रहीं हो काकी। एक और कारण भी था। जब पूजा वाले दिन काकी नहलाती थी तो कान्हा को पता था इसके बाद बड़ी मलकिन के बक्से से निकले कपड़े पहनने को मिलेंगे और वो कपड़े साफ सुथरे ही नहीं होते थे केवल, उनमें बड़ी मलकिन के हाथों की खुशबू भी होती थी।
कपड़े पहना कर काकी कान्हा को घर के भीतर ले जाती थी, जहाँ गाँव जुहार की बहुत सारी काकी, ताई, दादी लोग होती थी। कान्हा को अच्छा लगता था रंग- बिरंगे कपड़ों में लिपटी इत्ती ढेर औरतों से भरा आंगन। बहुत सारे बच्चे इधर से उधर दौड़ते भागते रहते पर कान्हा दादी माँ , यानि बड़ी मलकिन के पास ही बैठा रहता था। उनकी गोद में लेटी रहती थी नन्हीं गुड़िया, विक्रम सिंह की बिटिया। एकदम मक्खन के गोले सी लगती थी वो। अधिक तर आँखें बंद कर लेटी रहती थी। कभी- कभी अपने आप ही मुस्कुरा देती थी। कान्हा को वो किसी जादू के देश से आई लगती थी। वो उसे एकटक देखा करता था। बच्ची को देख मुस्काते कान्हा की चमकती आँखें देख दादी माँ के मन में उसके लिए ढेर लाड़ उमड़ पड़ता था। कित्ता प्यारा बच्चा है, गोरा चिट्टा, घुंघराले बाल, एकदम बाल गोपाल सरीखा। कैसी सुघड़ और सुंदर थी इसकी माँ। भाग पता नहीं कैसा लिखा के लाया है। कभी कभी दादी माँ उस समय कान्हा को इजाजत दे देती थीं कि वो गुड़िया के तलवों में हल्के से हाथ फिरा ले। डरते डरते ही छूता था कान्हा उसे। उसके मुलायम गुलाबी पंजों के हल्का सा छूने के बाद कान्हा का मन नहीं करता था कि किसी और चीज को हाथ लगाए।
तो ऐसे ही मस्ती में बीत रहा था बचपन पर समय भला कब इकसार रहा है। धीरे धीरे कान्हा बड़ा होने लगा। खाने पीने पहनने और सच पूछो तो स्नेह, सहानभूति की भी कोई ऐसी कमी नहीं थी कान्हा को पर अब उससे छोटे मोटे काम कराए जाने लगे थे।
देखते –देखते कान्हा अब सत्रह बरस का हो गया था। खाना- पीना तो अच्छा मिलता ही था, बाग बगीचों की हवा और हाथ पैर चलाने वाला काम, अच्छी कद काठी निकल आई थी उसकी। बाल अभी भी धुंधराले थे और माथे तक झूल झूल आते थे। मसें भी भीगने लगीं थीं। बड़ी बड़ी मुस्काती आंखों में दुनिया जहान की मस्ती भरी रहती थी।हाँ एक बात और, गला बहुत सुरीला पाया था कान्हा ने। रामायण की चौपाईं हो या बिरहा, कान्हा जब सुर उठाता था सुनने वाले को लगता था कि सुनता ही चला जाय।
कोठी के अहाते में उठा धरी के काम तो कान्हा के जिम्मे थे ही, संझा बाती के समय नहा धो कर दादी को रामायण, भजन सुनाना भी उसकी दिनचर्या में शामिल था। मुंहजबानी रटे थे उसे न जाने कितने भजन और रामायण का सुंदर कांड भी।जब दादी के चरणों के पास बैठ कान्हा भजन – चौपाई के सागर में डूब उतरा रहा होता था तो काम से इधर उघर आते –जाते कोठी के बाशिंदे कुछ देर दरवाजे ठिठक कर ही आगे बढ़ते थे पर दादी की पीठ की तरफ भीतर की ओर के दरवाजे की फांक से दो आँखे तो जैसे कान्हा के चेहरे पर चिपक ही जाती थीं और फिर अचानक ही कान्हा की नजर उन आंखों से जा मिलती थी तो उसके कंठ से अमृत धार ही फूट पड़ती थी जैसे। दादी भी चौंक कर आँख खोल देती थीं और फिर दोनों होथ जोड़ कोई प्रार्थना बुदबदाने लगती थीं। और ये आँखें थीं पद्मा बिटिया, यानि नन्हीं गुड़िया की।
कान्हा और पद्मा की बात चीत तो होती ही नहीं थी, आमना सामना भी बहुत मुश्किल से होता था पर कुछ सुगबुगाहट तो थी दोनों के मन में जिसका ठीक ठीक अंदाजा दोनों में से किसी को नहीं था। फिर भी कान्हा को पता था कि जिस दिन पद्मा की झलक भी न मिले तो मन बुझा बुझा रहता था। कंठ से भजन के बोल भी रूंधे रूंधे निकलते थे। और पद्मा , पद्मा तो जब भी अपने पलंग पर लेट पलकें मूंदती थी तो एक ही चेहरा दिखाई पड़ता था उसे।
और एक दिन दो दृष्टि बिंदुओं के बीच खिंचे तार पर थरथराते स्पंदन को दादी की अनुभवी आँखों ने बाँच ही लिया।उस दिन सारी रात सो नहीं पाईं वो।उनकी ममता इस छोर से उस छोर तक हिलोरें मारती रही और बार बार भीग जाती रही नयनों की कोर। क्या करें बच्चे बिचारे भी। यह मुई उम्र ही ऐसी होती है, पतझड़ में भी बसंत की खूशबू टटोलने वाली।और कान्हा तो है ही ऐसा कि जो देखे वही उसका हो जाय। कहाँ समझ काम करती है ऐसे में।लेकिन दादी को मालुम था कि कुछ तो जतन करना पड़ेगा इससे पहले कि किसी और की निगाह सेंध लगाए इसमें। नहीं, इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्या पता कब हवा किस तरफ का रूख पकड़ ले फिर राख ढकी चिनगारी को भी लपटों में बदलते देर नहीं लगेगी और स्वाहा हो जाएगा बहुत कुछ। पर क्या करें वो। कहाँ भेज दें कान्हा को और कैसे। बिसुन के तो प्राण ही निकल जायेंगे लड़के के बिना और बिसुन ही क्यों उनके खुद के कलेजे में कैसा हौल सा उठ रहा है लड़के को ऐसे ही कहीं भेज देने की सोच कर। कुछ दिनों की सोच – विचार के बाद एक दिन दादी ने कान्हा से सीधे ही बात करने की सोची। मौका निकाल कर संझा समय बगीचे के ओर के पुराने शिवालय की सीढ़ीयों में बैठ दादी ने बात शुरू की जो उन्होंने देखा, समझा, और साझा की कान्हा से अपने मन की सारी उथल-पुथल, आशंकाएं। थोड़े दर्द में भीगी दादी की आवाज सुन कान्हा को खूब जोर से रोने का मन हो आया था, पता नहीं क्यों। अंत में कहा था दादी ने, देख रे कान्हा, मैं तुझ पर पद्मा बिटिया से ज्यादा भरोसा करती हूं और इसीलिए तुझसे ही बात भी की है। मेरी बात की लाज रखेगा न, जिस देहरी के भीतर पद्मा बिटिया हो उस देहरी के भीतर तेरे कदम तो दूर तेरी नजर भी नहीं पहुंचनी चाहिए। यह बात कह उठ खड़ी हुई थीं दादी और बिना कान्हा की ओर देखे बस उसका सिर सहला चली गईं थीं। कान्हा विमूढ़ सा बैठा रह गया था।
ऐसा नहीं था कि उसे अपनी सीमायें नहीं पता थीं या फिर उसके मन ने पद्मा को ले कर कोई सपने बुने थे, न ऐसा तो कुछ न था। बस उसे देखना अच्छा लगता था। पद्मा ही क्यों जिंदगी के विषय में भी कहाँ कुछ सोचा था उसने गम्भीरता से। बस एक अजब सी बेख्याली भरी मस्ती में डूबे दिन बीत रहे थे। दादी की बातों ने उछलती कूदती जलधार को जैसे बाँध दिया था। और इस ठहरे हुए परिवर्तनकारी पल में एक बात तलवार की नोक सी धंसी हुई थी… जिस देहरी के भीतर……दादी के कहने में न कुछ अभियोग था, न दुत्कार पर कान्हा को फिर भी लग रहा था कि जैसे उसके पैर के नीचे से झटके से जमीन खिसक गई हो।
उसके बाद स्थितियां बहुत तेजी से बदलीं थीं। कान्हा ने बाहर के काम अपने जिम्मे ले कर अपने पिता जी को उनकी बढ़ती उम्र का वास्ता दे कोठी के काम सँभालने को मना लिया था। बिसुन को भी अचरज लगा था कि कैसे अचानक से बेटा बड़ा और समझदार हो गया पर अच्छा लगा था उन्हें। पर ज्यादा दिन नहीं मिल पायें उन्हें खुश रहने को। कुछ महीने बाद ही बारिश की एक रात साँप ने काट लिया उन्हें और कान्हा निपट अकेला रह गया दुनिया में। मन उचट गया उसका गाँव से। बाँधने को उसे वहाँ बचा ही क्या था। पहले पास के कस्बे फिर एक जगह से दूसरी जगह, कभी मजदूरी, कभी कुछ और काम कई बरसों वह भागता ही रहा , पर कभी लौट कर नहीं गया। ऐसा नहीं कि उसे गाँव और वहाँ के लोग याद नहीं आते थे। बल्कि अक्सर रातों में खुली आँखों के सामने वही चेहरे घूमते थे। इन्हीं क्षणों में कभी उस पर उजागर हुआ था कि दादी ने वह भाँप लिया था जो उस समय उसका अल्हड़ मन छू भी नहीं पाया था। उन दिनों में पद्मा उसके लिए गोकुल की कान्हा थीं और बाद में मथुरा की युवराज हो गईं पर उसका मन ग्वालों के घर की राधा रानी सरीखा ही रह गया। कितने गाँव, कितने शहर, मंदिर, जंगल, नदी के घाट डाँव –डाँव भटके बंजारे पाँव, पर जब –जब साँझ घिरे आँख बंद कर तान खींची है दो आँखें अंधियारे में झलमल हो गईं हैं।
पता नहीं मन में कैसी फाँस चुभी थी कि कहीं थिर हो कर बैठ ही नहीं पाया तो भला कैसे बनता कोई ठौर ठिकाना। ऐसा नहीं कि इतनी यात्रा में किसी आमंत्रण, किसी मनुहार से साबका पड़ा ही नहीं, पर मन बँध नहीं पाया।
और अब इस शहर में अचानक उन्हें मिल गया रिक्शा चालक बिशुन प्रसाद। एक तो उसके नाम ने ही उनके मन से नाता जोड़ लिया दूसरे उसकी बीमार हालत और दस साल की बिटिया ने कान्हा के पैर बाँध दिए हैं और हाथ में थमा दिया है रिक्शे का हैंडल।
उस दिन बिशुन प्रसाद की बिटिया के लिए कुछ कपड़े दादा को देते हुए मैंने कहा, “दादा, अब तो आप यहीं बस जाओ।“
“हाँ,जब तक बिशुन प्रसाद में फिर से रिक्शा खींचने की ताकत नहीं आ जाती तब तक तो रूकना ही है ,बहिनी।“
“तो उसके बाद भी क्यों जाना, देखिए बिशुन प्रसाद, उसकी बिटिया कितना स्नेह और भरोसा करने लगे हैं आप पर और भरोसा तो हम भी बहुत करते हैं आप पर। आप हैं ही ऐसे।“
“बस बहिनी, यही भरोसा तो बहुत डराता है हमें।“एक लम्बी साँस ले उठ खड़े हुए थे दादा। मुक्ति की छटपटाहट से थरथराती वो साँस बहुत देर हवा में वहीं ठिठकी रह गई, कब आसान हुआ है भला भीतर की भटकन को राह दिखाना।
कभी कभी जिंदगी का एक पल, कोई एक बात समूची जिंदगी पर कुछ यूं भारी पड़ जाती है कि हम अपनी ही गिरफ्त में सजा काटते रह जाते हैं।