मालती दोपहर को छत से कपड़े उतारने गई तो एक ओर कोने में उसकी नजर रुक गई। कोई गुलाबी सा टुकड़ा जैसे, नजदीक गई तो एक दम दंग रह गई। इस्तेमाल किया हुआ कंडोम सामने पड़ा था, ममटी के ठीक नीचे। किसने फेंका होगा यहाँ! आस पास की छतों की तरफ बारी बारी से नजर घुमाई, किसी पड़ोसी की छत इतनी नजदीक नहीं लगी कि छलांग लगा कर कोई आ सके या इतनी हल्की चीज फेंक सके। मन अजीब सी बेचैनी से भर गया।
“तो क्या पति ने!” नहीं, नहीं! ये मैं क्या सोचने लगी। वो तो छत पर आए ही नहीं कई दिन से।
बच्चे छोटे, वे भी ऐसा नहीं कर सकते! बेटी तो अभी तेरह की हुई, इस साल ही पीरियड्स शुरू हुए। कैसे उसकी टीचर ने उसे शारीरिक बदलाव के बारे में समझाया। खुद उसे भी बेटी को सब समझाने को लेकर गाइड किया। बेटी उदास हुई जान कर कि वो इस बरस कंजक पूजन में नहीं जा पाएगी। मालती को अपने बचपन की याद आई, जब पहली बार उसे पीरियड्स आए, बाथरूम में वो हतप्रभ खड़ी थी कि क्या हुआ उसे! मां आई, देखा, न कुछ बताया, न समझाया। बस इतना ही कहा, “इतनी जल्दी”
“क्या इतनी जल्दी?” सवाल उसके मन में दबा ही रह गया। अपने ही शारीरिक बदलाव के बारे में कितना कम जान पाती थी तब लड़कियाँ।
बेटा तो उससे भी छोटा। दस साल का हो गया,अभी भी मुझसे चिपक कर सोता। पति कितनी बार कह चुके, अब इसे अलग सुलाने की आदत डाल पर वो ही टाल जाती, अभी बच्चा ही तो है।
“तुम से तो कुछ कहना ही बेकार है”, विनोद चिढ कर कहते।
“तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है!” मालती के मन में ये शब्द जम गए जैसे। कहीं कोई और तो नहीं आ गई विनोद की जिंदगी में, जिस से कुछ कहना बेकार नहीं हो। मन में तरह- तरह के विचार आने जाने लगे। उसने तो कभी दूसरी पत्नियों की तरह विनोद से पूछताछ नहीं की, न कभी जानने की कोशिश की कि किस- किस दोस्त के साथ बाहर आते जाते हैं।
ये भी क्या बेकार की बातें सोचने लगी मैं, इतनी तो नपी तुली जिंदगी जीते विनोद, घर से काम पर और काम से घर। और फिर घर पर कोई आए, ऐसा कैसे हो सकता! एक मामूली सी चीज भी खरीदनी हो तो बिना उसकी सलाह के नहीं लेते।
फिर से उसकी नजर उस तरफ गई। इस वाहियात चीज को पहली बार तब देखा था, जब वो पांचवीं कक्षा में थी। स्कूल में पानी पीने गई तो नल के पास गिरा हुआ था। लगभग ऐसा ही, गांठ लगा हुआ। बच्चों की सी जिज्ञासा से उसने उसे उठा लिया, गुब्बारे जैसा कुछ समझ।
“लड़की!”, किसी ने फटकारते हुए कहा, “फेंको इसे, ये गन्दी चीज है”, उसने पीछे देखा हड़बड़ा कर, दसवीं कक्षा का कोई लड़का था। लड़के की आंखों में किसी घर के बुजुर्ग जैसे भाव थे, जो उसे किसी साये से बचाना चाहता था। एक अनजान लड़का, न पहले कभी दिखा, न बाद में। रुआंसी बेहद घबराई वो, बिना पानी पिए ही वापिस कक्षा की ओर चल दी। पीछे मुड़ कर देखा तो लड़के ने उस चीज को झाड़ियों के पीछे फेंक दिया और हाथ ऐसे रगड़ रगड़ कर धो रहा था जैसे कभी साफ नहीं होंगे।
हमारा समाज भी कितना अजीब था, या शायद है भी। वर्जित मानी जाने वाली चीजों के बारे में सवाल पूछना भी वर्जित ही था। दिन रात टीवी पर चलते माला डी के गीत जिसे सरकार ने जैसे परिवार नियोजन का अघोषित राष्ट्रीय गीत बना दिया था, को एक दिन वो और उसकी सहेली नीतू एक बार गली में ही गाने लगी, “बोल सखी बोल तेरा राज क्या है।” पास से दो आदमी गुजर रहे थे, हँसने लगे। नीतू की मां ने ये देखा और तेजी से बाहर आई, आव देखा न ताव एक झापड़ उसके मुँह पर दे मारा और बोली, “दोबारा इसे गाया तो टांगे तोड़ दूंगी, और तू री चल जा तू भी अपने घर।” न नीतू कुछ पूछ पाई न मैं। कसूर जाने बिना ही बस अपराधबोध से भर गई हम दोनों।
पहाड़ी मैना की कर्कश आवाज से मालती चौंक गई, देखा तो उड़ उड़ कर बार बार ममटी की खिड़की के छज्जे पर जा रही थी। कुर्सी खींच कर उस तरफ ले गई और ऊपर देखा तो बेतरतीब और भद्दा सा एक घोंसला। मालती देख कर दंग रह गई, तिनकों के ढेर में पड़े हुए दस पंद्रह कंडोम, एक दम से उसे हँसी आई, तो ये इसका काम है।
उसे अपने दादा जी के साथ हुई एक बात याद आ गई। जब उसने एक बार पूछा था ये तिनके इतने सख्त होते हैं। पंछी के चूजों को चुभते नहीं होंगे।
“अरे नहीं ये पंछी भी दिमागदार होते, अपने घोसलें में रुई, धागे, कोई कपड़े का टुकड़ा ला ला कर रखते ताकि घोसलें बच्चो के लिए आरामदायक बने।
मालती को लगा इस अबोध पंछी को क्या पता कि ये वर्जित वस्तु है। पांचवीं कक्षा में पढ़ती किसी लड़की की तरह!
फिर उसके बेतरतीब से बने घोसलें को देखने लगी। जैसी कर्कश आवाज, वैसा भद्दा घोंसला। बया जैसा नहीं, किसी योजना से बनी पोश कॉलोनी सा नहीं, बल्कि अवैध झोपड़पट्टी सा बदसूरत फैला हुआ। एक पल को दिल में आया कि उठा के फेंक दूं, ये तिनके और उनके बीच में पड़ी ये गंदगी। फिर सोचने लगी इनके लिए जगह ही कितनी है! इनके लिए ही क्या, इंसानों के लिए भी जगह कहाँ! सड़कों के किनारे सोते, हजारों लाखों लोगों के पास एक कमरे जितनी जगह नहीं। यूं लाखों मीलों दूर तक फैला हुआ ये देश, सारी फैली हुई जमीन राष्ट्र की। ये राष्ट्र को किसने अधिकार दिया कि सारी जमीन का मालिक वो ही। स्वंयभू अधिकार, कितना अजीब राष्ट्र अमीर और लोग गरीब।
प्रकृति ने तो नहीं रोका पंछियों, वनस्पतियों को यहां वहां पनपने से, बस ये राष्ट्र ही राष्ट्रीय संपति की दुहाई देता, और ये कंडोम क्या है? राष्ट्रीय कूड़ा? दूर तक फैले कूड़े के ढेर में छितरे हुए, राष्ट्रीय संपदा की तरह हर तरफ फैले हुए। अभी इसे उठा कर कूड़े के बिन में डालूंगी, फिर कूड़े वाला आएगा और इसे वापिस कूड़े के ढेर में छितरा देगा। शायद फिर कोई पंछी ….
डस्टबिन में फेंकने के बाद हाथ धोते समय उसे अचानक उस लड़के की याद आई जो उसे स्कूल के नल के पास मिला था।
उसे लगा कि कोई है इस दुनिया में, जो किसी अनजान अबोध लड़की की मासूमियत को बचा कर रखना चाहता है।