आज उमाजी का मन बालकनी में पड़े झूले से उठने को बिलकुल नहीं कर रहा था. अभी कल ही तो शिखर के घर से वापस आईं थीं. शिखर उन के नव विवाहित बेटे हैं, जो मुंबई में रहते हैं. शिखर ने पिछले वर्ष ही प्रेम विवाह किया था. झूले पर आगे पीछे होती, उमा भी अपने भूत और बेटे के वर्तमान को मन ही मन में तौल रहीं थी.
लगभग, ३० साल हो गए, उन्हें इस घर में कदम रखे हुए. अब इतने सालों के साथ में भी वह सुरेश जी को इतना नहीं समझ पाईं हैं, जितना चार दिन की आयी सुमेधा ने शिखर को जान लिया है. क्या यही प्यार है?
जब सुमेधा ने बताया कि शिखर तो शिमला मिर्च और भिन्डी भी टिफिन में ले कर जाता है तो उन्हें हैरानी भी हुई और अपने बेटे पर नाज़ भी हुआ. उन्हें मन में शांति थी कि जो शिक्षा वह अपने बेटे को देना चाहती थी, वह शायद उसने बिना कहे ही सीख ली. शायद शिखर ने उन्हें उन रातों में अपने सिरहाने गीले करते देखा होगा.
आज तक कभी भी खाने की मेज़ पर सुरेशजी ने एक बार भी तारीफ़ नहीं की. कितना रच बस कर वह खाना बनाती, बस इस इंतज़ार में कि आज तो इन्हें पसंद आ जाए. पर आज तक एक बार भी ये मौका नहीं आया. हाँ, कभी गलती से पूछ लिया कि खाना कैसा बना है तो कह देंगे “हाँ, आज ठीक बना है”. कितनी बार,अगर खाना अच्छा नहीं लगा तो खाने को कोसते हुए सिर्फ बटर निकाल कर खाना खाएंगे. साथ में तुर्रा यह कि “पेट है मेरा, कोई कूड़ा दान थोड़ी है”. जैसे उन्होंने कूड़ा ही खिलाया है सब को. सोचते-सोचते उमाजी की बंद आँखों से अश्रु बह निकले. हर किसी को उनका बनाया खाना पसंद आता था. वह कभी समझ ही नहीं पाईं कि सुरेश को क्या पसंद है, क्या नहीं! शायद यह उनका तरीका था, अपना पतिपने का रौब दिखाने का.
यूँ ही फेसबुक पर डोलती एक कहानी याद आ गयी. यूँ तो यह राष्ट्रपति अबुल कलाम के माता पिता की कहानी बताई जाती है. कहानी कुछ यूँ है – एक रात जब कलाम साहब के पिता रात में थक कर खाना खाने बैठे तो देखा, रोटियां जली हुई थीं. माँ ने पिता से कहा, आज रोटी थोड़ी जल गयीं हैं. पिता ने बड़े सहज आवाज़ में कहा, मुझे जली रोटी पसंद है.
नन्हे कलाम ने जब पिता से पूछा, कि क्या आपको जली हुई रोटियां पसंद हैं, तो उन्होंने कहा “जली हुई रोटियों से कोई नुक़सान नहीं होता, कड़वे बोलों से होता है”.
सुबह उठ कर सुमेधा कितने जतन से शिखर के लिए खाना नाश्ता तैयार करती. कितने प्यार से मान मनुहार से खिलाती. शिखर भी उसका मान रखने के लिए ख़ुशी-ख़ुशी खा भी लेता. यह सब उमाजी बिस्तर में पड़े पड़े ही सुनती रहतीं. यूँ तो उन्हें जल्दी उठने की आदत है, पर बेटे के घर आ कर चुपचाप पड़ी रहतीं. किसी की बात सुनना तो नहीं चाहिए, पर आवाज कानों में पड़ ही जाती है. बेटे बहु की प्यार भरी बातें सुन कर उनके रेगिस्तान से सूखे मन पर जैसे ठन्डे पानी की फुहार पड़ जाती.
उमाजी फिर पुराने दिनों में खो जातीं. एक बार भी अगर वह सुरेश से कहतीं और लीजिये, अच्छी लगी है सब्ज़ी, तो एक दम बदतमीज़ी से बोलते, “ले लूंगा, जब ख़तम होगी या मुझे ज़रूरत होगी”. एक दम अंदर तक दिल पर लग जाती थी. प्यार क्या होता है, यह आज तक जाना ही नहीं. इसीलिए, हमेशा ही शिखर से कहतीं थी उमाजी, कि जब किसी से प्यार हो, तभी शादी करना. बिन प्यार के बंधनों में ज़िन्दगी काटना एक बड़ा अभिशाप है.
यूँ तो उमा और सुरेश को सभी प्रायः “एक दूजे के लिए बने हुए” जोड़े के रूप में ही जानते हैं, पर यह उमाजी का दिल ही जानता है कि वह इस रिश्ते को बस निभा रहीं थीं, जी नहीं रहीं थीं. उन दोनों की कोई भी सोच, शौक़ और आदतें मिलती नहीं थी. विज्ञान में तो कहते हैं, Opposite attracts each other पर असल जिंदगी में, यह बहुत दुखदायी स्थिति होती है.
अभी उस दिन, शिखर, सुमेधा के लिए एक पेंटिंग एक्सहिबिशन का फॉर्म लेकर आया था. सुमेधा एक बेहतरीन पेंटर है. वही २ महीने का समय था, सुमेधा से कह रहा था कि घर के काम छोड़ के बस पेंटिंग्स बनाओ. अंदर तक सुकून से भर गईं उमाजी.
आज ही क्यों उन्हें वह सब याद आ रहा था… वह पेंटिंग एक्सहिबिशन में जाने के लिए सुरेश से कहना. शादी के कुछ ही दिनों के बाद की बात होगी. सुरेश ऑफिस से आये थे, वह हमेशा की तरह तैयार थी. आते ही कहा, चलो चाय पी कर आर्ट गैलरी में पेंटिंग एक्सहिबिशन देखने चलते हैं. कितना बुरा सा मुँह बना, तिरस्कारिक स्वर में सुरेश ने मनl कर दिया था. एक दम अंदर तक सुन्न हो गयी थी वह. इस के बाद कई मौके आये, पर हर बार यही रिएक्शन. तिलमिला जाती थी वह. फिर जब से छोटी बेटी स्कूल जाने लायक हुई, उन्होंने स्कूल में ही अध्यापन का कार्य ले लिया. तब से आज तक उसी में अपने को समेट रखा है. इसी बहाने चार लोगों से मन की बात हो जाती है.
दोनों बच्चों को एक दुसरे का सहारा बनते देख उन का मन खुशियों से भर गया. हाँ यही प्यार है, यही आपसी रिश्तों की मज़बूत बुनियाद है. रिश्ता भी ऐसा, जिस में प्यार भी था, साथ भी था और एक दूसरे के लिए आगे बढ़ने का खूब स्पेस भी था.
मन में एक राहत सी थी. चलो, एक जीवन में तो वह खुशियां भरने में कामयाब हो सकीं. और फिर एक नयी उमंग के साथ उमाजी उठीं और अपनी अलमारी में ढेर तहों के नीचे से अपने ब्रश ढूंढ कर बाहर रखे. फिर पर्स उठा कर, बाजार से रंग और कैनवास लाने के लिए चल दीं. अब वह भी अपने काले सफ़ेद जीवन को रंगों से भर देंगी. अभी तक के जीवन पर तो सुरेश की पसंद, नापसंद हावी रही. पर अब बाकी जीवन वह अपने अंदाज़ से जिएंगी.
अपने लिए हम नहीं सोचेंगे, तो कौन सोचेगा!