मूल गुजराती कथाकार: वंदना शांतु इंदु
अनुवाद: डाॅ.रानू मुखर्जी
पानी पर प्रतिफलित नीले आकाश का प्रतिबिंब आकाश के जैसा सपाट तो नहीं होता इसलिए हवा के पदचिह्न जैसी तरंगों को चित्रित करके रवि को हवा को चित्रित करने जैसी तृप्ति हुई। उठकर थोड़ी दूर चला गया और वहाँ से चित्र को परखने लगा। कुछ कमी सी लगी। हवा को चित्रित करने का वह आनंद खत्म होता सा लगा। पूरे कैनवास पर एक पैनी नजर डाली। बडी गहराई से देखा। खंगाल डाला। कमी खटकी पर पकड़ में नहीं आई। ऐसा तो कभी हुआ नहीं। कूची की एक तेज धार से प्रकृति का सृजन करने वाला रवि असमंजस में पड गया। बनाए हुए शकुंतला के चेहरे को एकटक निहारने लगा। शकुंतला की आँखों में प्रतीक्षा के भाव को उसने बडी सूक्ष्मता से उभारा था। वह उन आँखों में डूबने लगा और तभी शकुंतला ने आँखें मिचमिचाई। रवि ने आँखों को मसलकर फिर से देखा। उसे लगा यह उसकी थकान का असर है। आज वह बहुत थका हुआ है, उसे भ्रम हुआ है। उसने भी शकुंतला की ओर देखा, आँखें मिचमिचाई और खाट पर लेट गया। तन्द्रावस्था में ही था कि उसे ऐसा लगा जैसे कहीं से कुछ आवाज आई हो। आँखें खोलकर उसने चारों ओर नजर दौड़ाई , फिर एक नजर चित्र पर डाली और करवट बदलकर सो गया। पर अब तो नींद आने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। उसे फिर से यह अहसास हुआ कि शकुंतला ने आँखे मिचमिचाई हैं। उठकर खडा हो गया। बहुत बारीकी से देखने लगा। कुछ कमी वाली बात फिर से खटकी और अचानक चेहरा उगते सूरज की रोशनी के उजाले सा चमक उठा।
कैनवास के सामने फिर से बैठ गया। कूची हाथ में उठा ली। सरोवर के किनारे में चित्रित झाड़ की परछाई के चित्र को आंकना ही रह गया था। शाम के समय को दिखाना हो तो झाड़ की परछाई को तो सरोवर में पड़ना ही चाहिए। शाम होने पर घर लौटते प्रेमी की राह तकती शकुंतला को सरोवर के बीच में चित्रित एक चबूतरे पर बैठाया था रवि ने। उसने कूची से दो-चार हाथ फेरा , पानी को थोडा गहराया और फिर उभरकर आई झाड़ की काली परछाई। आसमानी पानी पर इधर उधर से थोडी कूची फेर दी और शाम की लाली खिल उठी। अब तक तो बहुत थक चुका था। खाट पर लेटते ही गहरी नींद में डूब गया। उसके चेहरे पर संतोष की चादर फैली थी। शकुंतला ने धीरे से कैनवास के बाहर कदम रखा। उसके शरीर से रिसते पानी से स्टूडियो की कालीन भीगने लगी। चित्रित पानी गंदला हो गया। वो आगे बढ़ी।
उसने रवि की ओर देखा। शायद कोई सपना देख रहा है क्योंकि उसकी बंद आँखों की पुतलियाँ सतत घूम रही थी । शकुंतला तेजी से आगे बढ गई। उसे जल्दी थी, पूरी तरह से निचुड़ जाने से पहले वो विद्याधर बावड़ी तक पहुंच जाना चाहती थी। दो कदम चली और फिर दौड़ने लगी , तेजी से बावड़ी की सीढ़ियाँ उतरने लगी। उसे इस बात का भी ध्यान रखना था कि आसपास कहीं भी पानी के छींटे न उड़ें क्योंकि इसका परिणाम वह जानती थी। वह तो खुद भी इसका परिणाम थी इस बात से वह कहाँ बेखबर थी। आखिरी सीढ़ी पर पहुँचते ही अपनी साड़ी निकालकर बावड़ी में निचोड़ने लगी। उसी तरह घाघरा और चोली को भी निकालकर बावड़ी में निचोड़ने लगी। अचानक वो हँस पडी। अगर रवि उसे इस हालत में देख ले तो ऐसा करने का कारण पूछने के बदले कपड़े निचोड़ती शकुंतला को चित्रित करने लगेगा। जिस तरह से उसने पीछे मुड़कर एक पाँव को ऊँचा करके पाँव में से कांटे को निकालती हुई शकुंतला को चित्रित किया है वैसे ही। बावला चित्रकार या बावला प्रेमी? शकुंतला की हँसी बावड़ी के बाहर तक फैल रही थी। उस हँसी के कारण राजमहल के वृक्ष झूम उठे थे। चौकीदार को अजीब सा अनुभव हुआ। वही हँसी उसके चेहरे पर भी झलक उठी। वह मदमस्त हो गया और उसे नींद आ गई।
बावड़ी में फैले छोटे छोटे डबरों में शकुंतला अपनी छवि देख रही थी। नीले पानी में उसकी आकृति बहुत सुन्दर लग रही थी। अचानक उसकी नजर बावड़ी में खुदी मूर्तियों की ओर उठ गई। उसके भी वक्ष और कटि एकदम वैसी ही हैं जैसी इन मूर्तियों की हैं। इन मूर्तियों को देखकर रवि ने उसका चित्र बनाया है या मूर्तिकार ने चित्रों को देखकर इन मूर्तियों को बनाया है? शकुंतला कपड़े पहनकर बाहर निकल आई। पौ फटने को थी। वह फिर दौड़ी, स्टुडियो में आई , कैनवास में फिर से सज्ज हो गई। चित्रित पानी में फिर से तरंगें उठीं और स्थिर हो गईं।
शकुंतला को उन लडकियों की याद आई जो उसकी पेन्टिंग देखने आई थी। ईशा और शकुंतला। उन दोनों की बातों को उसने सुना था। ईशा शकुंतला से कह रही थी कि, “प्रत्येक स्त्री की यही हालत होती होगी? कि प्रेमी प्रेम करता है और भूल जाता है। मुझे तो इसलिए प्रेम करने से डर लगता है। प्रेम तो आदि अनादि है उनका क्रम भी ऐसा ही चलेगा। दुष्यंत शकुंतला जैसा ही? पर अब न तो कण्व है, न उनका आश्रम हैं और न नदी नाले तालाब हैं। ऐसा हो सकता है कि स्वीमिंग पूल में नहाते वक्त अंगूठी निकल जाए पर स्वीमिंग पूल में मछली कहाँ से आएगी जो उसकी अंगूठी को निगल ले और फिर मछली मछुवारे की पकड़ में आ जाए और वह उसे चीरे तो अंगूठी निकले। मुझे तो लगता है रवि वर्मा के लिए ही इन चरित्रों की रचना की गई है। रवि राजा के बनाए चित्र एकदम जीवंत होते हैं। बस जान डालने भर की देर होती है। हम तो अपनी पढ़ाई के बाबत यहाँ आते हैं, नहीं तो किसे पड़ी है यहाँ आने की?”
‘क्या इतनी सी बात के लिए प्रेम नहीं करना चाहिए! प्रेम का होना क्या अपने वश में होता है? ये तो बस हो जाता है। किसी की परिणति को देखकर अपने जीवन का निर्णय नहीं लेना चाहिए।’ शकुंतला ने ईशानी से कहा।
‘तो क्या तुझे प्रेम हो गया है? फिर कहाँ है तेरा प्रेमी? ध्यान रखना, वह भी दुष्यंत न निकले! उस पर से सबसे बड़ी बात यह हुई कि तेरा नाम भी शकुंतला है।’ शकुंतला, शकुंतला के चित्र में अपने चेहरे को ढूंढती हुई बोली, ‘वह सब अध्याय तो कब के पूरे हो गए।’
‘मेरी बात सही निकली न? ये तो सदियों से चली आ रही है। ऐसा ही होता है। तेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। अब तो मुझे इस चित्रकार से कहना ही पड़ेगा कि हे चित्रकार जी! अब एक दुष्यंत का चित्र बनाईए, मेरी इस शकुंतला के लिए।’ शकुंतला
का हाथ पकड़ते हुए ईशानी ने कहा।
शकुंतला ने ईशानी की ओर देखते हुए कहा, ‘नहीं अभी तक तो पूरा नहीं हुआ। मुझे मेरे दुष्यंत को याद दिलाना है जिस तरह शकुंतला को याद दिलाना पडा था। पर मेरी अंगूठी तो विद्याधर बावड़ी में गिर गई थी और उसे मछली ने निगल लिया था। मैंने अपनी आँखों से देखा। मछली के अंगूठी को निगलते ही तुरंत पानी सूख गया और मछली पत्थर बन गई। है न अचरज की बात।’
ईशानी घबरा गई , ‘ये तू क्या बात कर रही है शकुंतला। किस जमाने की बात कर रही है! कला की खोज में हर समय खंडहरों में घूमती रहती है। ऐसे में ऐसे किसी जगह में से लगता है किसी भूत की चपेट में आ गई होगी । पुराने जमाने में यही सब तो होता था। चल…’
‘ईशानी! मेरा वास्ता ऐसे किसी से नहीं पड़ा। मेरे साथ जो हुआ मैं वही तुझे कह रही हूँ। जिसे देखा नहीं उसे हम नहीं मानते ऐसा कह देना आसान नहीं है?’
‘चल मेरी माँ’ अब तो चल। इन राजमहलों ने न जाने कितनी शकुंतलाओं की आहुति ले ली होगी, क्योंकि उन्होंने प्रेम किया होगा। इनमें से किसी न किसी की आत्मा तो भटकती ही होगी, जो तुझसे उलझ गई होगी। चल यहाँ से भाग चलें।’ ईशानी भागने को हुई पर शकुंतला वहा से हटी नहीं। वो एकटक शकुंतला को देखने लगी। उसे लगा शकुंतला उनकी बातें सुन रही है। इससे वो उसके एकदम नजदीक चली गई और धीरे से बोली, ‘रवि का बनाया ये सरोवर का पानी अगर विद्याधर बावड़ीमें पहुँचाएगी तो मछली जीवित हो जाएगी, उसके जीवित होते ही उसके पेट में से अंगूठी निकलेगी और तभी रवि मुझे पहचानेगा। मैं रवि की प्रेमिका हूँ। जरा ध्यान से देख उसके बनाए तमाम चेहरे मेरे चेहरे से मेल नहीं खाते क्या? और तेरा भी। रवि पर तो यही आरोप लगा था और केश भी चला था। तुझे पता है? मैं वही हूँ जो तब थी।’ ईशानी शकुंतला का हाथ पकड़कर एकदम से खींचती हुई ले गई।
रवि उठा, निवृत्त होकर स्टुडियो से बाहर जाने से पहले फिर से एक बार शकुंतला के चित्र के सामने आकर खड़ा हो गया। कल का बनाया चित्र आज कुछ अलग सा लगा। कल रात का लबालब भरा हुआ सरोवर थोडा सूखा हुआ गंदला सा लगा। उसे लगा कल रात को वह इतना थक गया था कि उसे पता ही नहीं चला। उसने शकुंतला की ओर देखा। उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक रही थी। वह अचम्भित हो गया।’ अरे थकान कहाँ से उभर कर आई चेहरे पर। प्रेमी के इंतजार में थकावट कैसी? मैंने तो तुझे प्रफुल्लित होकर प्रेमी का इंतजार करते हुए उकेरा था शकुंतला। पर लगता है जैसे मैने मेरी थकावट की रेखाएं तेरे चेहरे पर खींच दीं। अचानक उसने नीचे की ओर देखा। गलीचा गीला दिखा और फिर वह बाहर की ओर दौड़ गया। चौकीदार को पुकारा। चौकीदार दौड़ा आया। कल रात की मस्ती भरी नींद से वो अभी तक उबरा नहीं था। रवि ने पूछा, ‘स्टूडियो में कोई आया था?’
‘कोई नहीं साहब।’
‘फिर ये पानी?’ रवि ने भीने गलीचे की ओर इशारा किया। चौकीदार ने गलीचे को छूकर देखा, नीले रंग से उसकी उंगलियों के पोर भीग गए , ‘साब , रंग ढुलक गया है, ये देखिए। आपको पता ही नहीं चला।’ रवि का मन इसे मानने को तैयार नहीं था। उसने चौकीदार से जाने के लिए कहा। बाहर निकलकर चौकीदार कुछ देर खड़ा रहा। उसे दूर तक जाते हुए नीले रंग के कदमों के निशान नजर आए। वह लौटकर अंदर आ गया।
‘कोई तो आया था यहाँ, इसमें कोई दो राय नहीं है। नीले रंग में डूबे कदमों के निशान बाहर तक हैं।’
‘चलो देखते हैं।’ कहता हुआ रवि उठकर खड़ा हो गया। कदम दर कदम दोनों बाहर निकलकर चलते गए। कदमों के चिह्न विद्याधर बावड़ी में उतरते जा रहे थे। चौकीदार ने रवि का हाथ पकड लिया, ‘नहीं साब मत उतरिये। ये तो कोई प्रेत का मामला है। कोई आभासी चरित्र रात को शायद आया था।’ उसके चेहरे पर डर पसरा हुआ था। रवि ने उसे जाने के लिए कहा और खुद सीढ़ियों से उतरने लगा। बावड़ी के अंदर नीले रंग के पानी से डबरे भरे हुए थे। वो बैठ गया । पीछे मुड़कर ऊपर की ओर देखा। वही सीढ़ियाँ उन पर झूमते हुए वृक्ष और सबसे ऊपर गहरा नीला आसमान दिख रहा था। उसे लगा पानी में आसमान का प्रतिबिंब पड़ रहा हो तो फिर वृक्षों का क्यों नहीं ! उसने पानी को मथ दिया। नजदीक की मूर्तियों पर छींटें उड़ीं। सब जीवंत होकर कहने लगी, ‘ रवि , रहने दो, पानी खत्म हो जाएगा तो जीवित मछलियाँ फिर से पत्थर की बन जाएंगी। पानी में तैरती मछलियों को बाहर निकालो।’
‘तु – – – तुमलोग! ये पानी! मछलियाँ! क्या है ये सब!’
‘ढूंढ़कर मछली को तो निकालो फिर बताते हैं।’
‘पर इसमें से! कैसे? इस नीले पानी में कैसे ढूँढू? ये पानी नीला क्यों है!’ ‘रवि , तुम पानी के ऊपर पानी का चित्र बनाओ। चित्रित जल में से मछली ऊपर आ जाएगी और तुम उसे पकड़ लेना।’
‘क्यों, मेरे बनाए दयमंति को चाहिए क्या ? उसके हाथ में से सरकती मछली को मैने चित्रित किया है, तो अब?’
‘कलाकार, कला…कला मतलब सिर्फ कला! कला के लिए जीवन या जीवन के लिए कला! जवाब दो कलाकार। पर जवाब मुझे नहीं चाहिए।
‘जाओ मछली को चीरो! तुम्हे तुम्हारे सभी जवाब मिल जाएगें।’ मूर्ति पर से पानी के सूख जाने पर जीवित मछलियाँ फिर से मूर्ति बन गईं।
रवि नीले जल पर स्थिर जल चित्रित करने के लिए कूची लेकर आया । नीले पानी पर स्थिर कांच जैसा पानी चित्रित किया। उसे मछली दिखाई दी। पकड़ने के लिए उसने हाथ बढाया। मछली अपने आप ही उसके हाथ में आ गई। उसे ऐसा लगा जैसे मछली के बदले शकुंतला की आँख उसके हाथ में आ गई हो। वो कांप गया। मछली को वह पानी में छोड़ने ही वाला था कि वो बोल उठी, ‘ऐ कलाकार, इन सब को होते हुए देखकर आश्चर्य नही होता तुम्हें। कलाकार होकर भी तुम विस्मय उत्पन्न करनेवाली स्थिति से परे हो!’ अब रवि को समझ में आया कि उसने पानी पर पानी का चित्र बनाया है। जड़ को बनाने में वह चेतन को कैसे भूल गया! उसे एक के बाद एक घटी घटनाएं याद आने लगी। मछली फिर से बोल उठी, ‘तुम्हारी कला से ही तो सब जीवंत बनता है। तुम्हारा बनाया हुआ पानी का चित्र भी पानी बन सकता है। भीगी हुई शकुंतला, तुम्हारे केनवास में से निकलकर टपकती हुई , बावड़ी में आकर वस्त्र निचोड़कर चली गई। मैं तो पत्थर की थी, तुम्हारे बनाए पानी के चित्र से मैं जीवित हुई। मूर्तियों पर छींटें पड़ीं तो ….’
बाद की बातों को सुनने के लिए रवि ने इंतजार नही किया। मछली को पानी में छोड़ दिया। शकुंतला! वो स्टुडियो में आया। उसे लगा शकुंतला उसके इंतजार में बैठी है।
‘वह भी तो शकुंतला ही थी। जिसे छोडकर मैने कूची को थामा था और वह मेरे इंतजार मे बैठी है। ओह! कला के लिए प्रेम की तिलांजलि देने की क्या जरूरत थी। पर अगर मैं अपने पिता जैसा कलाकार बन जाऊँ और मेरी पत्नी का जीवन मेरी माँ के जीवन जैसा हो जाए तो! नहीं! नहीं! चित्रित जीवन से सजीव जीवन का महत्व अधिक है यह सही है पर शकुंतला मैं तुम्हारे साथ उतना न्याय नही कर सकता था जितना मैंने तुम्हारे चित्र के साथ किया। उसने शकुंतला के चेहरे से पसीने की बूंदों को मिटाने के लिए कूची उठाई । उसके चेहरे से टपकते पसीने में इसके आँसू घुलमिल रहे थे।