दुल्हनों के शादी के बाद घरों से भाग जाने की बॉलीवुड में कहानियाँ आपने कई देखी, सुनी हैं। लेकिन इधर राजस्थान राज्य में तो सबसे ज्यादा ऐसी घटनाएं असल जीवन में होती रही हैं। आपके-हमारे आस पड़ोस में ऐसी बहुत सी बहुएं आईं और गई होंगी जो शादी के अगले दिन ही या कुछ समय बाद ही चकमा देकर फरार हो ली। साथ में घर में सास, ससुर, देवर, जेठ, ननद, पति इत्यादि को भागने की एक रात पहले कुछ ऐसा बढ़िया बनाकर खिलाया कि सब सोते रह गए इधर घर साफ।
लेखक, निर्देशक अनिल भूप शर्मा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। लेकिन बावजूद इसके इसका क्लाइमैक्स कुछ अलग तरह से है वैसा नहीं जैसा आम फिल्मों में आपने अब तक देखा। फिल्म की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। एक लड़का जो। शादी की उम्र को कब का पार कर चुका है। फेरे लेने की दहलीज को लांघ चुकी लगभग उम्र में उसे लड़की मिली वह भी मोल की। यानी शादी के लिए लड़की खरीदी गई। आज भी हमारे देश के बहुत से हिस्सों में शादी के लिए लड़कियां खरीदी जाती हैं। फिर घर बसाने वाली ने कैसे खेल रचाए उसे देखने के लिए मनोरंजन के साथ आनंद लेने के लिए आपको सिनेमाघरों का रुख करना होगा, 14 अप्रैल को।
फिल्म के पहले हाफ में बहुत सी कमियाँ हैं जिन्हें राजन पुरी नरेश पुरी अपने दम पर भरने की कोशिश करते नजर आते हैं। लेकिन कहते हैं न अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। फिल्म का पहला हाफ यदि अभिनय, बैकग्राउंड स्कोर, फॉली, गाने और तेज सरपट कहानी के साथ कसे हुए स्क्रीनप्ले के साथ पेश किया जाता तो यह फिल्म दर्शकों को खींच लाती खुद से।
सुनिए सुनिए पहला हाफ खत्म होते ही आप दर्शक भी सिनेमाघरों से बिन्दणी की तरह भाग मत जाना। क्योंकि बाबू जी असल खेल शुरू होगा पहले हाफ के बाद। खुलकर हँसने और जी भर कर मनोरंजन राजस्थानी फिल्मों में कहां देखने को मिलता है? वो भी सिनेमा घरों में।
दरअसल सब्सिडी पाने के इरादों और कुछ नया करने की ख्वाहिशात के साथ बनाई गई इस फिल्म में बजट की घोर समस्या नज़र आती है। तकनीकी रूप से खोजा जाए तो राजस्थान में ही कुछ अच्छे साउंड, बैकग्राउंड स्कोर, फॉली, वी एफ एक्स देने वाले लोग मिल जाएंगे।
दो एक कलाकारों को छोड़ काम सभी का मनोरंजन देता है आपको। फिल्म में गाने ज्यादा है नहीं लेकिन जो है वो दमदार भी नहीं फिर भी आपको पहले हाफ में जो थोड़ा कमी महसूस हुई उस पर ठंडा अहसास दिलाते हैं। सबसे ज्यादा तारीफ इसके लिए लेखक की होनी चाहिए। ‘मनोज फोगाट’ की जिद फिल्म से ध्यान अपनी ओर खींचने वाले ‘अनिल भूप’ इस फ़िल्म के अंत होते-होते अपने लिए तालियां बटोर ले जाते हैं।
किसी फिल्म में कोई निर्माता स्वयं अभिनय करते हुए ‘गोविंद सिंह’ की तरह दम लगाने की असफल कोशिश करें तो आप यही कहेंगे की भाई तुम्हारा पैसा, तुम्हारी फिल्म सब्सिडी मिले न मिले हमें क्या लेकिन जरूरी थोड़ी है कि निर्माता हो तो अभिनय में भी जबरदस्ती अपने को ठूंसना! ज्यादा है तो थोड़ा थियेटर सीख कर आओ क्यों? ‘राकेश कुमावत’ , ‘सुनील कुमावत’ की जोड़ी भी अच्छा खासा हास्य पर्दे पर आपको परोसती है। सिकंदर चौहान राजस्थानी सिनेमा के अच्छे कलाकारों में गिने जाते हैं। इस फिल्म में भी उनका अभिनय निराश नहीं करता।
कुल मिलाकर अच्छे लेखन ठीकठाक स्क्रीन प्ले के साथ भरपूर मनोरंजन लेने के लिए जब भी यह राजस्थानी फिल्म रिलीज हो देखिएगा जरूर। बशर्ते आप पहले हाफ के भाग भाग खड़े न हों तभी मनोरंजन का स्वाद आप चख पाएंगे। निर्देशक दिनेश राजपुरोहित को समझना चाहिए की बजट के अभाव में भी फिल्में बेहतर कैसे बनाई जा सकती हैं। यदि पहले हाफ को थोड़ा और वे रगड़ते, मांजते उस में दम लगाते तो यह फ़िल्म खूब देखी जाती बावजूद इसके अभी भी यह कुछ कमाल कर जाए तो अपने लेखक की पीठ थपथपा लीजिएगा निर्देशक।