1.
जब बंदूकें बोलती हैं,
तब शब्द चुप हो जाते हैं…
लेकिन हर गोली के बीच
कुछ ऐसे पल भी होते हैं,
जहाँ कोई नजर
किसी दूसरी आँख में
डर नहीं, संवेदना भी देख लेती है।
घाटी के ख़ूनी क्षणों में
जब बारूद की गंध थी,
कहीं भीतर जीवन फिर भी सरसराया।
कहते हैँ न
ज़िंदगी सिर्फ़ बचने का नाम नहीं,
टूटकर भी फिर से खिलने का नाम है।
——–
2.
हाँ, आतंकवाद के मध्य,
समय के साथ
घाटियों में फिर से फूल खिले थे ।
बारूद की गंध के बीच
किसी प्राकृतिक सुगंध-सी
कहीं से किसी सँग आई थी वो,
धीरे से,
दूर से,
और फिर लौट गई…
दर्द भरे आंसुओं सँग
सब कुछ तो सामान्य था,
फिर भी क्यों कुछ गोलियाँ चलीं,
कुछ चीखें हवा में घुलीं,
कुछ मौतें
दीवारों से टकराईं।
झूले भी,
खून के कारण
थम गए अचानक।
लेकिन तभी,
उसी डर, तमस और धुएँ के बीच,
कुछ अनजानी आँखों ने
नैसर्गिक भीड़ में कुछ देखा,
भीगी पलकों ने गुलाबियत के पार
समझी संवेदनाएँ,
जैसे राख में
दीप की अंतिम लौ टिमटिमाए।
आँसुओं में
दर्द का मरहम था,
कुछ कहा नहीं,
फिर भी बहुत कुछ
बाँट लिया गया।
वक़्त भी जैसे
कुछ पल को ठहर गया,
जैसे युद्ध ने
ख़ुद एक साँस ली हो।
और वहीं,
जहाँ कल लाशें थीं,
आज फिर
एक फूल खिला।
हताहतों के बीच
बिखरे बालों वाली
वो बुझी-सी लड़की
जैसे कह गई—
“ज़िंदगी गई,
पर कोशिश रही,
कि कुछ तो फूल
फिर से खिलें…
जो कलियाँ थीं।”
ज़िंदगी को
भूलकर नहीं,
समेटकर
फिर चलने का नाम है —
ज़िंदगी।
(ए लड़की, तुझे सलाम!!)