थोड़ी सी अंगोर
राख के ढेर में टिमटिमाती
थोड़ी सी अंगोर
क्यूं रखते हैं चूल्हे में आदिवासी
क्या एक चूल्हे से दूसरा चूल्हा जलाने
शायद नहीं
ये अंगोर एक खपरैल से
दूसरे खपरैल
रोटी के टुकड़े सेंकने नहीं जाती
ये एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक
ले जाती है अपनी सभ्यताएं
अपनी संस्कृतियों को ढोती रहीं हैं
सदियों से।
इस राख की चिंगारी में
बसता है कोई कुलदेवता
वो जंगल को बचाता है,
किसी अनहोनी से
जल को रखता है पवित्र
सभ्य लोगों के अभिशाप से
और रक्षा करता है इस जमीन की
शहर से आई विशालकाय मशीनों से।
ये अंगोर सूरज की सतह से
आई है छिटककर
तभी इसका अंत संभव नहीं
क्योंकि इसमें जीवित हैं
आदिवासी सभ्यताओं की गाथाएं
संस्कृतियों की कथाएं और
लोकगीतों की परम्पराएं।
जब कभी भी दुनिया का
नव सृजन हुआ,
तो इसी थोड़ी सी अंगोर ने की होगी
नवनिर्माण की शुरुआत
शायद तभी बची रहती है आज भी
हर चूल्हे में थोड़ी सी अंगोर
और जलते आ रहे हैं चूल्हे
सदियों सदियों से।
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बुद्ध की ओर
मैं बुद्ध की ओर जा रहा हूं या
बुद्ध मेरी तरफ आ रहे हैं
मेरे बुद्ध की ओर जाने
और बुद्ध का मेरी ओर आने का
ये कौन सा मार्ग है
पहले ये सफर हर बार अधूरा रहा
क्या पूरा हो सकेगा अब?
क्या बुद्धत्व को प्राप्त बोधिसत्व
आज भी किसी नये बुद्ध के लिए
इंतजार कर रहे होंगे
लुम्बिनी, बोधगया, सारनाथ या
कुशीनगर में।
इस सफर पर चलते हुए
बहुत सारे प्रश्नों ने घेर रखा है मुझे
और मैं भी मकड़ी के जाले की तरह
उलझता जा रहा हूं
उलझन की इस ग्रिड से निकलकर
छटपटा रहा हूं
गोलाकार रंगों का मेहराबी इन्द्रधनुष
बन पड़ा है किसी सेतु की तरह
इस मार्ग पर
जिसके रंग चले जा रहे हैं मेरे साथ
इस सफर पर
निरंतरता की लय में समानांतर।
किस जन्म में पूरी तरह
होगा कोई मिलन इस भग्न खण्डहर से
मानवता के सारतत्व का
किस सदी में पहुंचेगा प्रकाश
इस मन के अंधेरे कोनों में
जो कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन जैसी
कालिख को समेटे
चला जा रहा है अंधेरे की
प्रतिछाया बन मार्ग से भ्रमित करता
किसी टूटे हुए सितारे की तरह।
दुनिया का हर रास्ता
बुद्ध की ओर जाने का मार्ग है
जिस रास्ते पर तुम्हें
हड्डियों के ढांचे में लिपटा
कोई बुजुर्ग मिलता है
जिस राह पर कोई बीमार मिलता है
जिस रास्ते पर कोई अर्थी मिलती है
वो सब मार्ग जाते रहे है हमेशा
हर सदी में, हर युग में
बुद्धत्व की ओर।