मैं
खुद की आँखों में स्वचरित्र
स्वर्ण सरीखा लगता है
मैं तो तप तप के निखरा हूँ
ये भाव हृदय में जगता है
खुद की आँखों की क्या कहिए
ये तो खुद पे बलिहारी हैं
मुझको कोई समझ न पाएगा
दिल में अंगार सुलगता है
ये लोग जो खुद में जीते हैं
बस खुद की बातें करते हैं
इनको लगता है जीवन भर
औरों की ख़ातिर मरते है ।
इसमें इनकी कोई भूल नहीं
ये मैं में जीवन जीते हैं
इनको लगता है दे अमृत
ये सिर्फ़ गरल ही पीते हैं
जिनकी खुद से पहचान नहीं
वो औरों को क्या जानेंगे
ग़र कह दोगे ये सच उनसे
वो कभी न उसको मानेंगे
वो समझेंगे ये नादां है
इनकी बुद्धि परिपक्व नहीं
दुनिया जब ठोकर मारेगी
तब ये हमको पहचानेंगे
ये मैं का आँखों पर पर्दा
इतना भारी हो जाता है
मैं के आगे इस दुनिया में
कुछ और नज़र नहीं आता है
मैं हूँ, बस मैं ही हूँ सब कुछ
मैं ही में जकड़ा जाता है
ऐसे मैं में जीने वाला
बिन जिए ही मर जाता है
**************
खुली किताब
जो कहते हैं ख़ुद को किताबें खुली सी
उन्हीं में बहुत कुछ कहीं पे छुपा है
है दावा ये उनका कि हम बस यही हैं
मगर उनके चेहरे पे सब कुछ लिखा है
लबों को हिदायत है, ख़ुद कुछ न बोलें
ये चेहरे हैं इन पर हुकूमत नहीं है
बिना बोले ही बोल जाते हैं सब कुछ
इन्हीं पे लिखा है कि ये वो नहीं हैं
हैं शिकवे शिकायत से भरपूर ये भी
जुबा ये बता दे इजाज़त नहीं है
वो हैं पाक दामन ज़माना ये समझे
मगर पाक दामन ये बिल्कुल नहीं हैं
पहना है जामा कि एक रूप है हम
जो कहते हैं करते हैं हम दो नहीं हैं
ये बतलाना पड़ता है उनको जुबां से
करनी में उनके कोई दम नहीं है
किताबें खुली सी भी हैं इस जहाँ में
अन्दाज़ उनका सबसे जुदा है
महकती हवाएँ बरसती दुआएँ
लगता है वो सब रूहे खुदा हैं