जुगनू
बड़ी देर से जाना मैंने
दुःख होता है उम्मीदों के टूटने से
सदियों से आत्मा से चिपकी आसक्ति के
कठोर प्रहार से
रुंधे हुए कंठ में फूट पड़ने को रुकी रुलाई
भी कंठ में ही घुट जाती है
इस टटपूँजिये संसार मे
अनाज का गोदाम के स्वामी बनने की उम्मीद
चूल्हे से निकली गर्म रोटी से भी
वंचित कर देती है
खुशी के पीछे एक खोजी की तरह भागते
जब क्लांत हो जाओ
तब लहू रिसते पैर और छलनी हुई आत्मा
से ये प्रश्न जरूर पूछना
वर्षों पहले तुम्हारी नन्ही हथेली में बंद जुगनू
ने उगा दिए थे प्रसन्नता के कई सूरज
आज हथेलियों में बंद हीरे भी
क्या उगा सकते हैं कोई तारा भी ?
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असभ्य
उसकी आँखों में अब वो तारे नहीं टिमटिमाते
उसकी हँसी भी अब पहले जैसी उजली नहीं
कैसी हो ? पूछे कोई तो होंठ बस फैल जाते
उसके देह के भीतर बहती नदी
अब उस लय में नहीं बहती
टपकते महुए को चुनने की नहीं है सुधि
दिल्ली प्रस्थान और वापसी की कथा पूछते सब
पश्चाताप के दहकते अंगारों में झुलसता
उसके क्षत विक्षत मन का यात्रा वृतांत कोई न सुनता अब
उसके अंदर का हरा पेड़ अब सूख चला है
उसे दुलारना है खाद पानी देकर
उसकी खनकती हँसी बिन जंगल उदास है
आयो की पहाड़ से लाई कोई औषधि
वेदना कम नही करती गुम चोटों का
शहर के जानवरों के हत्थे चढ़ गई ये निर्बुद्धि
ऐसे विकास और सभ्यता की ओर जाती डगर
से भला ये असभ्य पहाड़ और जंगल
और मिट्टी के घर में मेरी प्रतीक्षा करता मेरा ईश्वर