बाल-साहित्य अर्थात् ऐसा साहित्य, जिसमें बच्चों का, बच्चों के लिए एवं बच्चों की कलम से या बड़ों द्वारा आज के बचपन का बच्चा बनकर अपनी अनुभूतियों के संकलन पिरोए गए हों। इसे पढ़ते हुए बच्चा अपनी भूख-प्यास सब भूल जाए और होठों पर प्रश्नवाचक मुस्कान लिए केवल पढ़ता ही जाए। यह बड़ों के साहित्य का लघु-रूप तो बिल्कुल ही नहीं है और इसमें अपेक्षाकृत अधिक सतर्कता की आवश्यकता है।
बच्चों को बाल-साहित्य से विभिन्न प्रकार की प्रेरणा और अनुभव प्राप्त होते हैं। बच्चे कविता से मुग्ध होते हैं, कहानी से उनका मनोरंजन होता है, नाटक से अनुकरण प्रवृत्ति जाग्रत होती है, जीवनी से प्रेरणा, रेखाचित्र से कल्पनाएँ, डायरी से उत्साह, पत्र/यात्रा वृतांत से अनुभव, लेख से वैचारिकता एवं पहेलियों, चुटकुलों, गीतों के माध्यम से बच्चों का समाजीकरण होता है।
पूर्वकाल में बच्चों को संस्कारित करने का काम उनके माता-पिता और शिक्षक करते थे। किंतु आज ये किनारों पर खड़े दिखाई देते हैं। अतः यह ज़िम्मेदारी भी बाल-साहित्य की ही बनती है। किंतु विडम्बना यह है कि आज भी कई अभिभावकों को उनके बच्चों के लिए अच्छी बाल-पत्रिकाओं की जानकारी ही नहीं है। प्रकाशकों एवं बाल-साहित्यकारों में आज भी ‘बच्चे ही तो है’ वाला भाव कायम है। इस भाव ने बाल पुस्तकों के प्रकाशन को व्यवसाय बना दिया और फिर बे-सिर पैर की कई पुस्तकों के अंबार लगा दिये। न ही इस ढ़ेर से बालोपयोगी उत्कृष्ट रचना को अलगाये जाने का कोई सार्थक प्रयास हुआ और न ही समीक्षा/आलोचना जैसी स्वायत्त इकाई सामने आई।
बदलते समय के साथ दादी-नानी के किस्से लुप्त होते गये और मेट्रो जीवन की आपाधापी ने बच्चों के हाथों में असमय कंप्यूटर, स्मार्टफोन एवं टेलीविजन का रिमोट देकर साहित्य से उनका निर्वासन कर दिया। किंतु बच्चों के जन्म के बाद माँ की लोरियों से लेकर दादी-नानी के किस्सों तक बाल-साहित्य का आकर्षण बच्चों मेें इतना गहरा संस्कारित होता है कि आज भी खाली समय में बच्चे कोई बाल-साहित्य ही पढ़ते नज़र आते हैं। चाहे स्कूल से लौटते वक्त दोस्तों से बाल-पत्रिकाओं का आदान-प्रदान हो या फिर नेशनल ज्योग्राफिक पर डायनासोर की प्रजातियाँ देखते बच्चे द्वारा बिजली जाते ही, ऐसे बाल-रचना की तलाश जो कथात्मक एवं चित्रात्मक होकर इसकी ज्ञानवर्द्धक जानकारी दे सके। आशय यह है कि तकनीक, विज्ञान एवं आधुनिकता का असर हमारी सोच पर कितना भी क्यों न हुआ हो, बच्चे आज भी बाल-साहित्य में अपनी समस्याओं, जिज्ञासाओं एवं प्रश्नों का हल ढूँढते नज़र आते हैं।
किंतु समस्याएँ हैं कि:-
1. आज भी बच्चे पाठ्य-पुस्तकों के बीच में छिपाकर बाल-पत्रिका पढ़ते हैं।
2. आज भी यह जानने की कोशिश बहुत कम हुई है कि शहरी परिवार के दम्पत्ति के आपस के झगड़े को देखकर बालकनी में सहमा बच्चा क्या सोच रहा है?
3. बच्चों को नैनी से बचपन के संस्कार सीखने पड़ रहे हैं, टेलीविजन पर जीने की कला और सोशल साइट्स पर सामाजिकता सीखते हैं आज बच्चे।
4. आखिर एक बच्ची को इनेम और प्यार में अंतर कैसे पता चलेगा?
(द्वारा विद्या बालन,चित्रित ‘कहानी-2’)
5. स्वयं अनैतिक मूल्यों में सिर तक डूबे रहने वाले अभिभावक बच्चों को नैतिक मूल्यों बातें सिखाते हैं।
6. बच्चों को गोद लेने के नाम पर घृणित कर्म हो रहे हैं।
7. जम्मू-कश्मीर में आए दिन गेंद खेलने वाले हाथों में पत्थर देखा जाता है।
8. स्मार्टफोन एवं डिजिटल युग की आपाधापी में बच्चे असमय बहरेपन, दृष्टि दोष एवं अवसादग्रस्त होते जा रहे हैं। उनसे उनका व्यायाम और खेल का मैदान छूटता जा रहा है और वे साइबर-क्राइम में लिप्त पाये जाने लगे हैं।
9. बच्चों की आज की समस्याओं तथा बाल-तस्करी, बाल-श्रम, बाल-शोषण एवं लिंग भेद को उनके ही बाल-साहित्य में बहुत कम स्थान मिल रहा है।
10. बढ़ते बस्ते का बोझ, स्कूल-मोलेस्टेशन, कैपिटल-पनिशमेंट, अंकों की होड़ यहाँ तक कि ये बच्चे कौन से विषय पढ़ें अभिभावक तय करेंगे। इससे बचपन मशीन-सा हो गया है।
11. रचनात्मकता एवं मनोरंजन के अभाव में बच्चों के लिए लिखी गई किताबों को ही बच्चे बोझ की तरह देखते है।
अतः आज हिन्दी बाल-साहित्य की विभिन्न विधाओं में संरचनात्मक परिवर्तन की दरकार है। यथा:-
बालगीत:-
शुरुआत इसकी हमारे घर से होनी चाहिए। परिवार में माता-पिता एवं संबंधियों को बालगीत के महत्व का ज्ञान होना चाहिए तथा उनके द्वारा बच्चों को लगातार बालगीत सिखाया जाना चाहिए। प्ले स्कूल तथा नर्सरी की कक्षा में भी बच्चों को खेल-खेल में बालगीत स्मरण करवाने चाहिए। अंताक्षरी में नए प्रयोग होने चाहिए। इससे बच्चों में बाल-साहित्य के प्रति क्षुधा जाग्रत होगी और वे अपने भविष्य के लिए स्वयं को तैयार कर पायेंगे।
बाल कविता:-
आज के दौर की बाल-कविताएं बच्चों के आज से जुड़े, उनके समाज से जुड़े और उनके विद्यालयी समस्याओं से लेकर घर के एकांकीपन, दोस्त हीनता, महंगाई, प्रदूषण, भ्रष्टाचार, कम्प्यूटर, रोबोट, वैज्ञानिक जागरूकता को अभिव्यक्त करते हुए बालश्रम, बाल-शोषण एवं बाल अधिकार जैसे मुद्दों पर केन्द्रित हों।
बाल कहानी:-
आज की बाल-कहानियों में आज के बचपन की झलक होनी चाहिए। समन्वयवादी दृष्टिकोण के ज़रिए प्राचीनता एवं आधुनिकता का स्वस्थ संतुलन आवश्यक है। पुराने अंधविश्वासों/ढोंग की पोल वैज्ञानिक तरीक़े के सहारे खोली जाए। यथा:-
– पुराने राजा-रानी को आज मोबाइल पर महंगाई पर चिंता करते दिखाया जाए।
– पंचतंत्र के पशु-पक्षियों द्वारा लोकतंत्र एवं पर्यावरणीय चेतना
– परी-रानी द्वारा बच्चों को बाल-अधिकार की बातें बताना
– अलादीन के जिन्न द्वारा ढोंगी बाबा के ढोंग का वैज्ञानिक तरीके से पर्दाफाश
बाल उपन्यास:-
टेलीविजन पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों में भी बाल-धारावाहिक को पहचान मिले। यह कार्टून से अलग हो तथा इसमें बच्चों की आज की समस्याओं का चित्रण हों और सम्पूर्ण धारावाहिक के रूप में ‘अमक बाल-उपन्यास पढ़ें’ का जिक्र हो। इसके अलावा कार्टून नेटवर्क के चरित्रों को लेकर भी स्वस्थ बाल-उपन्यास लिखे जा सकते हैं।
बाल नाटक:-
नाटक न केवल रोचक, मनोरंजक और अभिनेय हो, बल्कि वह किसी न किसी रूप में बच्चों की दुनिया से हो। बच्चों की समस्याओं, शैतानियों, गलतियों, जिज्ञासाओं एवं उनके भोले-भाले खेल-करतबों की अभिव्यक्ति इन नाटकों में हो। साधारण वेशभूषा और पात्र-सज्जा तथा छोटे सरल एवं स्पष्ट शब्दों द्वारा मंचित नाटक ही बच्चों द्वारा ग्राह्य होते हैं।
बाल पत्रिका:-
– अभिभावकों द्वारा एक महंगे खिलौने की बजाय बच्चों को अच्छी बाल-पत्रिका दी जाए।
– एक राष्ट्रव्यापी बाल-पत्रिका एजेंसी बने, जो हर राज्य की अच्छी हिन्दी बाल-पत्रिकाओं को एक सार्वभौम मंच प्रदान करे।
– पत्रिका के प्रकाशन एवं विक्रय को सरकारी रियायत/प्रोत्साहन मिले तथा online free download को भी बढ़ावा मिले।
कुल मिलाकर कहें तो-
1. बच्चों की हर छोटी से छोटी समस्याओं का मनोवैज्ञानिक अध्ययन हो और उपयुक्त समाधान सुझाते हुए हिंदी बाल साहित्य की हर विधा में इसका चित्रण हो।
2. अधिक से अधिक बाल-पाठकों तक इसकी पहुँच सुनिश्चित की जाए।
3. बाल-साहित्य के वृहद् भंडार से बालोपयोगी एवं प्रासंगिक रचनाओं को अलगाया जाए।
4. बाल-साहित्य का आज के संदर्भ में पुनर्लेखन हो। तथा
5. बाल पाठकों, नवलेखकों, प्रकाशकों, शोधार्थियों, शिक्षकों एवं अभिभावकों में बाल-साहित्य के प्रति रुचि एवं आकर्षण पैदा किया जाए।